भारत माँ के उस महान सपूत का शव
रखा हुआ था । सबकुछ खपाकर उसने बची अब अपनी अंतिम साँस भी छोड़ दी थी । कुछ
दिन पहले ही वह साबरमती से लौटे थे । गाँधी से पूछा था, 'महात्माजी, अब कबले मिली
आज़ादी?' महात्मा जी निरुत्तर थे । 'बोलीं न, महात्माजी! गुम काहे बानी? हमरा तकदीर
में आज़ाद हिन्दुस्तान देखे के लिखल बा कि ना!' मुंह की आवाज के साथ- साथ आँखों से
लोर भी ढुलक आया शुकुलजी के गाल पर । उनके माथे को अपनी गोद में थाम लिया था कस्तूरबा
ने । शरीर ज्वर से तप रहा था । शुकुल
जी तन्द्रिल अवस्था में आ गये थे । आँख के आगे काली-काली झाइयों में तितर-बितर
दृश्यों के सफ़ेद सूत तैर रहे थे..............................''भितिहरवा आश्रम की झोंपड़ी में क्रूर अंग्रेज जमींदार एमन ने आग
लगवा दी थी । कस्तूरबा ईंट ढो रही हैं उनके साथ!'' .......................... दो दिन तक बा ने उनकी तीमारदारी
की । अर्द्ध-स्वस्थ-से शुकुलजी वापस लौट गए । मोतिहारी आते-आते तबियत खराब हो गयी । रेलवे
स्टेशन से सीधे केडिया धर्मशाला पहुंचे । उसी कमरे का ताला खुलवाया जिसमें उनके महात्माजी
ठहरा करते थे । रात में जो सोये सो सोये ही रह गए । कालनिद्रा ने अपने आगोश में उन्हें समा लिया था
। सुबह शुकुलजी जगे ही नहीं, हमेशा के लिए! लोगों
की भीड़ जमा हो गयी । चन्दा किया गया अंतिम संस्कार के लिए । रामबाबू के बगीचा में चंदे के पैसों से गाँधी के
इस चाणक्य का अंतिम संस्कार स्थानीय लोगों ने किया ।
उनके पुश्तैनी गाँव, सतवरिया,
में उनका श्राद्ध कर्म आयोजित हुआ । ब्रजकिशोर बाबू, राजेन्द्र बाबू औए मुल्क तथा
इलाके के बड़े-बड़े नेता पहुंचे हुए थे । थोड़ी ही देर में बेलवा कोठी के उस अत्याचारी
अँगरेज़ ज़मींदार एमन का एक गुमश्ता वहाँ पहुंचा तीन सौ रूपये लेकर । 'साहब
ने भेजे हैं सराद के खरचा के लिए ।' उसने
बताया । राजेंद्र बाबु का माथा चकरा गया । ''अत्याचारी एमन! जिंदगी भर इससे लोहा लेते रहे
राजकुमार शुक्ल । चंपारण सत्याग्रह की पृष्ठभूमि ही थी इन दोनों
की लड़ाई! मोहनदास को महात्मा बनाने का निमित्त! शुक्लजी ने एमन की आत्याचारी
दास्तानों को पूरी दुनिया के सामने बेपरदा कर दिया और उसकी ज़मींदारी के महल को
ढाहकर पूरी तरह ज़मींदोज़ कर दिया..........................भला, उसी एमन ने तीन सौ रूपये भेजे
हैं, शुक्लजी के श्राद्ध के खर्च के निमित्त!'' खबर घर के अन्दर शुकुलजी की पत्नी, केवला कुंवर, के कानों में
पिघलते गर्म लोहे की तरह पड़ी । वह आग बबूला हो गयी । उनकी
वेदना उनके विलाप में बहने लगी । उन्होंने पैसे लेने से मना कर दिया ।
इसी बीच एमन स्वयं वहाँ पहुँच गया ।
वह गहरे सदमे की मुद्रा में था
। उसने शुकुलजी के दामाद, सरयुग राय भट्ट जी से
विनम्र याचना की । उसे शुकुलजी की पतली माली हालत की जानकारी थी कि
किस तरह इस स्वतन्त्रता सेनानी ने उससे लड़ाई में अपना सब कुछ गँवा दिया था । उसने
सरयुग राय जी को काफी समझाया-बुझाया और फिर एक सिफारशी पत्र मोतिहारी के एस पी के
नाम लिखकर दिया ।
यह दृश्य देख पहले से चकराए माथे वाले राजेन्द्र
बाबू की आँखे अब चौधियाँ गयी । उनकी जुबान लड़खड़ाई, 'अरे आप!............आप तो
शुकुलजी के जानी दुश्मन ठहरे! पूरी दुनिया के सामने आपके घुटने टेकवा दिए थे उन्होंने!
अब तो उनके जाने पर आपको तसल्ली मिल गयी होगी ।'
'चंपारण का अकेला मर्द था, वह!' काँपते स्वर में एमन
बोला, 'पच्चीस से अधिक वर्षों तक वह अकेला अपने दम पर मुझे टक्कर देता रहा । वह
अपनी राह चलता रहा और मैं अपनी राह! विचारों का संघर्ष था हमारा! शहीद हो गया वह!
अब तो मेरे जीने का भी कोई बहाना शेष न रहा!' उसकी आँखों से आंसुओं का अविरल
प्रवाह हो रहा था ।
बड़ी भारी मन से वह अंग्रेज एमन अपने घर लौटा । शुकुल
जी के दामाद को पुलिस में उस सिफारशी पत्र से सहायक अवर निरीक्षक (जमादार) की
नौकरी मिल गयी । और, करीब तीन महीने बाद एमन ने भी अंतिम साँस ले
ली ।
गाँधी की जयंती के एक सौ पचासवें वर्ष में इस कहानी को
नवयुग के सोशल साईट पर पढ़ते-पढ़ते उस जिज्ञासु और अन्वेषी साइबर-पाठक की भी आँखें
गीली होने लगी थी । अब उसकी अन्वेषी आँखें इतिहास के पन्नों को
खंगालकर राजकुमार शुक्ल की लाश के इर्द-गिर्द गाँधी की आकृति ढूढ़ रही थी अपने
चाणक्य को श्रद्धा सुमन चढाने की मुद्रा में! किन्तु, शुकुलजी के 'अग्नि-स्नान से श्राद्ध' तक
गाँधी की छवि तो दूर, उस महात्मा की ओर से संवेदना के दो लफ्ज़ भी उस दिवंगत के
प्रति उसे नहीं सुनाई दे रहे थे । वह अवाक था "'महात्मा' की इस संवेदनहीनता पर या
फिर 'इतिहासकारों की कुटिलता' पर जिन्होंने उस 'महात्मा' की संवेदना वाणी को लुप्त कर
दिया था!" हाँ, उलटे उस 'दुरात्मा' अँगरेज़
एमन की छवि में उसे सत्य और अहिंसा की संवेदना के दर्शन अवश्य हो रहे थे । इतिहासकारों
की इस चूक से वह 'दुरात्मा' संवेदनशील छवि उस 'महात्मा' असंवेदनशील बुत को तोपती
नज़र आ रही थी ।
कभी कभी भ्रम होने लगता है कि हम इसी देश के वासी हैं? आपने फिर याद दिला दिया वही प्रश्न।
ReplyDeleteशुकुलजी के 'अग्नि-स्नान से श्राद्ध' तक गाँधी की छवि तो दूर, उस महात्मा की ओर से संवेदना के दो लफ्ज़ भी उस दिवंगत के प्रति उसे नहीं सुनाई दे रहे थे । वह अवाक था "'महात्मा' की इस संवेदनहीनता पर.....
ReplyDeleteमैं भी अवाक हूँ इस वाकये को पढ़कर ! आखिर ऐसा क्यों हुआ होगा ?
नमन आपको इस प्रस्तुति के लिए।
अत्यंत आभार, हृदयतल से।
DeleteEtihas ke jis anchhuye pristo ko aapne jis bariki se paltne ka kam kiya hai uske liye aapko sadhuvad
ReplyDeleteअत्यंत आभार, हृदयतल से।
DeleteVishwamohanji aapka lekh pdhker mujhe yesa lga jaise maichal chitra dekh rha hun
ReplyDeleteR B Roy
अत्यंत आभार, हृदयतल से।
Deleteअत्यंत आभार, हृदयतल से।
ReplyDeleteइतिहास का एक मर्मान्तक अध्याय खोलती रचना | महात्मा गाँधी एक सर्वस्व समर्पित क्रांतिवीर के अकाल परायण पर क्यों मौन रहे थे , ये एक अनुत्तरित प्रश्न हो शायद या फिर हो सकता है इतिहासकारों की कोई भूल या चाल | पर इस प्रसंग का सबसे उल्लेखनीय और प्रेरक पक्ष है क्रांति और आजादी के पथ पर मर मिटने को आतुर एक अथक यायावर को मिटाने के लिए आकुल -व्याकुल घोर शत्रु एमन का इस विराट व्यक्तित्व के समक्ष नत हो जाना | कथित - दुरात्मा ' एमन ने सहृदयता और ईमानदारी से आत्मचिंतन कर , इस स्वतंत्रता सेनानी के लिए , पश्चाताप में अपने प्राणों का उत्सर्ग तक कर के एक महात्मा होने का परिचय दे दिया , ये बात कोई कम महत्वपूर्ण नहीं | कहीं ना कहीं उसने शुक्ल जी की बर्बादी के लिए खुद को जिम्मेवार माना होगा [ जिसके लिए वो जिम्मेवार था भी ] | और इसी लिए एमन अपने पाप धो चला औरयदि महात्मा गाँधी ने इतनी असंवेदनशीलता दिखाई तो ये बात उनके कथित उदार और महात्मीय व्यक्तित्व पर एक प्रश्न चिन्ह लगाती है | मीना जी की तरह मैं भी सोच रही हूँ , ऐसा क्यों हुआ होगा आखिर ? हो सकता है वे उनकी मातृभूमि के प्रति निष्ठा को भांप ना पाए हों !गाँधी को महात्मा कह पुकारने वाले और अपनी मातृभूमि के लिए आजीवन संघर्ष से भरे शुक्ल जी ने अपने सद्गुणों और सच्चाई से एक शत्रु को भी झुकने के लिए विवश कर दिया यहाँ तक कि उसकी शुक्ल जी के प्रति श्रद्धा ने उसे उन्हीं के पथ [ मृत्यु पथ ] का अनुगामी बना दिया | माँ भारती के इस लाल की पुण्य स्मृति को कोटि नमन ! और आपको सादर आभार विश्वमोहन जी , ये भावपूर्ण प्रसंग रचना के माध्यम से पाठकों के समक्ष लाने लिए | |
ReplyDeleteअत्यंत आभार, हृदय तल से।
Deleteवह अवाक था "'महात्मा' की इस संवेदनहीनता पर या फिर 'इतिहासकारों की कुटिलता' पर जिन्होंने उस 'महात्मा' की संवेदना वाणी को लुप्त कर दिया था!" हाँ, उलटे उस 'दुरात्मा' अँगरेज़ एमन की छवि में उसे सत्य और अहिंसा की संवेदना के दर्शन अवश्य हो रहे थे । इतिहासकारों की इस चूक से वह 'दुरात्मा' संवेदनशील छवि उस 'महात्मा' असंवेदनशील बुत को तोपती नज़र आ रही थी ।
ReplyDeleteऐसे अनगिनत सत्य अब भी पर्दो में हैं जो इतिहासकारों के मेहरबानी के फलस्वरूप शायद कभी सामने भी नहीं आ पाएंगे, आपकी लेखनी में जादू हैं जो हर शब्द को सजीव कर देते हैं ,एक हृदयस्पर्शी दृश्य , ऐसा लगा कि मैं भी उस सारे घटनाक्रम की साक्षी हूँ। सादर नमस्कार आपको
अत्यंत आभार, हृदयतल से।
Deleteयदि राजकुमार शुक्ल न होते तो शायद गांधी महात्मा गांधी नही हो पाते।अंग्रेजों के खिलाफ बिगूल फूँकने वाला मसीहा के साथ इतिहासकारों ने न्याय नही किया ।किसानों के हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते अपना सब कुछ यहाँ तक कि अपने प्राणों की आहुति भी दे दी। ऐमन जो शुक्ल जी का घोर विरोधी तथा उन्हें मिटा देने का संकल्प ले चुका था,उनके निधन के पश्चात उन्हें चम्पारण का इकलौता मर्द के रूप में याद किया । शुक्ल जी के निधन के चंद दिनों के पश्चात ऐमन भी इस दुनिया को अलविदा कह गया ।जिस गांधी को शुक्ल जी ने महात्मा बनाया शायद उन्होंने शुक्ल जी के प्रति सहानुभूति के दो शब्द भी नही कहा,यह विडंबना ही है।शुक्ल जी के बिना चम्पारण सत्याग्रह असंभव था और चम्पारण सत्याग्रह के बिना स्वाधीनता आंदोलन का राष्ट्रीय पटल पर गांधी का महत्व।
ReplyDeleteअत्यंत आभार, हृदयतल से।
Deleteइतिहास जब तक शासक वर्ग के आधीन और किसी स्वार्थ के चलते लिखा जायेगा ... या किसी विशेष वाद की कलम से लिखा जायगा ... वो अपना स्वरुप खोता जाता है ... और किसी भी देश समाज के लिए ये अच्छा नहीं होता ... शायद इसलिए ही हम अपने इतिहास पे कई बार प्रश्न चिन्ह खड़े करते नज़र आते हैं ... किसी व्यक्ति को भगवान् के करीब खड़ा कर देना स्वार्थ सिद्ध करने से अधिक कुछ नहीं ... महात्मा जी के लिए भी ऐसा ही किया गया है ...
ReplyDeleteवाह! बहुत ही उत्तम और वस्तुनिष्ठ विचार। अत्यंत आभार आपका।
Deleteइसमें कोई शक नहीं है की लेखक की इस रचना में गांधीजी कटघरे में खड़े नजर आते हैं यह सोचने वाली बात है कि जिस गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में शुक्ल जी के बारे में लिखा है कि उनका और मेरा मिलना एक पुराने मित्रों से जान पड़ा इससे मैंने सत्य अहिंसा और ईश्वर का साक्षात्कार किया
ReplyDeleteफिर वही गांधी इतने असंवेदनशील कैसे हो गए। इसमें कहीं इतिहासकारों की चालबाजी तो नहीं है?
सुमित कुमार वत्स
निश्चय ही, आपके द्वारा उद्धृत गांधी के वाक्य उनकी आत्मकथा में राजकुमार शुक्ल की मृत्यु के बाद ही लिखे गए होंगे। अब तो इस लेख से निकलते सवाल का जबाब इतिहासकार ही देंगे कि किसकी चूक है यह!
Deleteनमन आपको| दो दिन पूर्व मोतिहारी से लौटा हूँ।
ReplyDeleteकाश, ये काम दो महीने पहले किये रहते तो हम आपको पकड़ के अपने गाँव ले चलते! अब तो दिल्ली आ गए है, गैस चैम्बर में।
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