Friday 4 September 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध-------(६)

(भाग - ५ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ग)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


मिती  पुरा(तात्विक)-सामग्री
अब इतनी बात मान लेते हैं कि मिती , भारतीय और ईरानी पहले एक साथ थे। फिर सबसे पहले मिती  अलग हो गए। उसके बाद भारतीय-आर्य और ईरानी भी अलग हो गए।यह भी मान लेते हैं कि मिती  संस्कृति भारतीय आर्य संस्कृति से पहले की है।तो, अगर ऐसा है तो मिती  (और साथ में अवेस्ता भी) के जो तत्व हमारे ऋग्वेद से मिलते हैं उनका यह मिलना ऋग्वेद के पुराने मंडलों के साथ ज़्यादा होना चाहिए क्योंकि  उनके अलग होने की दशा और दिशा के काल-प्रवाह के हिसाब से पुराने मंडल नए मंडलों (जो बाद में रचे गए) की अपेक्षा उनके ज़्यादा नज़दीक हैं। पुराने मंडलों  के संशोधित सूक्त और नए मंडलों की रचना के आते-आते उनके मध्य एशिया में सहवास  की स्मृतियाँ  काल-प्रवाह की लहरों में ज़्यादा धुल चुकी होंगी। लेकिन यह अत्यंत ही आश्चर्यजनक  और रोचक तथ्य है कि असलियत में जो हम पाते हैं वह बिल्कुल उलटा है। ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पुराने सूक्तों की लेशमात्र भी समानता हमें मिती  या अवेस्ता के साथ नहीं मिलती। पुराने मंडलों के संशोधित सूक्तों की थोड़ी बहुत समानता मिलती है और सबसे हैरतंगेज़ तथ्य यह है कि ऋग्वेद के बाद में रचे गए  नए मंडलों और उनके भी  बाद रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों  के  तो मिती  संस्कृति और अवेस्ता में समानता के प्रचुर तत्व मिलते हैं।
अब आप इन उपसर्गों  और प्रत्ययों की इस झलकी का दृश्यपान करें जो  वैदिक-मिती  नामों में अपनी तात्विक समानता का रस घोलते हैं : -अस्व-, -रथ-, -सेना-, -बंधु-, -उत-, -वसु-,  -र्त-,  -प्रिय- (प्रसिद्ध भारतविद पी ड्यूमौन्ट ने इसे खोज निकाला है), -ब्रुहद-, -सप्त-, -अभि-, -उरु-, -चित्र-, -क्षत्र-, -यम-, यमी- आदि। एक शब्द और मिला है  ‘मणिजो माला या आभूषण के अर्थ में प्रयुक्त  हुआ है।

अ१रचनाकारों के नामों के दृष्टांत  
    
ऋग्वेद में उपरोक्त उपसर्ग एवं प्रत्ययों के संयोग से बने नामों के विस्तार का ब्योरा इस प्रकार है : -
मंडल , , , और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
मंडल , , , और १० के नये सूक्त : १०८ सूक्त।

मंडल
             सूक्त संख्या
सूक्तों की कुल संख्या
(नया)
से , २४, २५, २६, ४६, ४७, ५२ से ६१, ८१ और  ८२
२१
(नया)
१२ से २३, १००
१३
(नया)
से , २३ से २६, ३२ से ३८, ४६, ६८, ६९, ८७, ८९, ९०, ९८ और ९९
२४
(नया)
, २७ से २९, ३२, ४१ से ४३ और ९७
१०
(नया)
१४ से २९, ३७, ४६, ४७, ५४ से ६०, ६५, ६६, ७५, १०२, १०३, ११८, १२०, १२२, १३२, १३४, १३५, १४४, १५४, १७४, और १७९
४१
उपरोक्त उपसर्ग या प्रत्यय लगे नामों के किसी एक भी रचनाकार का नाम ऋग्वेद के किसी भी पुराने मंडल में नहीं आता है।

अ२नामों के संदर्भों का दृष्टांत

रचनाकारों से इतर उपरोक्त उपसर्ग और प्रत्यय लगे अन्य  नाम औरमणिशब्द के जो संदर्भ ऋग्वेद में मिलते हैं, उनका ब्योरा इस प्रकार है : -
मंडल , , , ६और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : दो सूक्त और दो मंत्र।
मंडल , , , और १० के नये सूक्त: अठहत्तर सूक्त और एक सौ अट्ठाईस मंत्र।




मंडल
सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र/नाम  
(संशोधित)
३३/()
/
(संशोधित)
३०/(१८)
/
(नया)
१९/(), २७/(, , ), ३३/(), ३६/(), ४४/(१०), ५२/(), ६१/(,१०), ७९/(), ८१/(
१२/१२
(नया)
३३/(), ३५/(), ३६/(१०, ११, १७, १८), ३८/(), ४५/(, ), ८३/(५०, १००/(१६, १७), ११२/(१०, १५, २०), ११६/(, , १६), ११७/(१७, १८), १२२/(, १३, १४), १३९/(), १६३/(), १६४/(४६)
१४
२६/२६
(नया)
/(३०, ३०, ३२), /(३७, ४०), /(१६), /(२०), (२५), /(४५), /(१८, २०), (१०), २१(१७, १८), २३/(१६,२३,२४), २४/(१४, १२, २३, २८, २९), २६/(, ११), ३२/(३०), ३३/(), ३४/(१६), ३५/(१९, २०, २१), ३६/(), ३७/(), ३८/(), ४६/(२१, २३), ४९/(), ५१/(, ), ६८/(१५, १६), ६९/(, १८), ८६/(१७), ८७/()
२४
४२/४४
(नया)
४३/(), ६५/()
/
१० (नया)
१०/(, , १३, १४), १२(), १३(), १४/(, , , , , १०, ११, १२, १३, १४, १५), १५/(), १६/(), १७/(), १८/(१३), २१/(), ३३/(), ४७/(), ४९/(), ५१/(), ५२/(), ५८/(), ५९/(), ६०/(, १०), ६१/(२६), ६४/(),७३/(११), ८०/(), ९२/(११), ९७/(१६), ९८/(, , ), १२३/(), १३२/(, ), १३५/(१७), १५४/(, ), १६५/()
२९
४६/४७


पुराने मंडल के मात्र दो संशोधित सूक्तों में ऐसा संदर्भ देखने को मिलता है।
ऊपर के तथ्यों में किसी भी तरह के भ्रम या संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है और अब यह शीशे की तरह बिल्कुल साफ है कि ऋग्वेद और मिती , दोनों ग्रंथों या संस्कृतियों में पाये  जानेवाले  एक समान तत्व या संदर्भ  ऋग्वेद के पूर्व के किसी ऐसे कपोलकल्पित काल में मध्य एशिया की वह सौग़ात नहीं थी जो भारतीय आर्यों को भारतमें घुसनेसे पहले मिली थी। वे ऋग्वेद के बाद के उस काल की उपज हैं जब ऋग्वेद के ही नए मंडलों की ऋचाएँ रची जा रही थी।

– ‘अवेस्ताग्रंथ में उपलब्ध सामग्री

सांस्कृतिक तत्वों की यह एकरूपता केवल वैदिक-मिती  संस्कृति की ही बात नहीं है, प्रत्युत यह वैदिक-मिती-ईरानी लोगों की सांस्कृतिक साझेदारी का प्रकट तत्व है। मसलन, हम अवेस्ता में वर्णित नामों या नामसूचक शब्दों की पड़ताल कर सकते हैं इस बात को परखने के लिए कि ऋग्वेद के नए मंडलों की कितनी छाप  बाद में पनपने  और पसरने वाली  वैदिक संस्कृति पर पड़ी और  इस बात का सीधा  गवाह  ईरान भी है। अवेस्ता की सामग्रियों का आकार मिती  सामग्रियों की तुलना में केवल अपार है, बल्कि बाद में रचित वेदों के मंडलों से शब्दों के साथ-साथ छंदों की एकरूपता के तत्व भी  उसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। पहले बताए गए वैसे उपसर्ग और प्रत्यय जो वेदों के समान मिती  संस्कृति में पाए जाते हैं उनसे भी ज़्यादा ऐसे नामों  और नामसूचक उपसर्ग और प्रत्ययों की अवेस्ता में भरमार है। ‘-अश्व-‘, ‘-रथ-‘, ‘मा-‘, ‘-चित्र-‘, ‘-प्रस-‘, ‘-अयन-‘, ‘-द्वि-‘, ‘-अस्त-‘, ‘-अंति-‘, ‘-ऊर्ध्व-‘, ‘-ऋजु-‘, ‘-सम-‘, ‘-स्वर-‘, ‘-मानस-‘, ‘-सवस-‘, ‘-स्तुत-‘, ‘-सुर-‘, ‘-नर-‘, ‘-विदद-‘, ‘-नर-‘, ‘-प्रसाद-‘, ‘-पृथु-‘, ‘-जरत-‘, ‘-माया-‘, ‘-हरि-‘, ‘-सृत-‘, ‘-स्यव-‘, ‘-तोष-‘, ‘-तनु-‘, ‘-मंत-‘, क्रतु-‘ आदि उपसर्ग और प्रत्ययों के प्रयोग से सजे नामों की अवेस्ता में एक लम्बी सूची है।  कुछ तो ऐसे नाम अवेस्ता में हैं जो हू--हू ऋग्वेद  के उन नए मंडलों से लिए गए प्रतीत होते हैं,  जो बाद में रचे गए थे। जैसेघोड़ा, अपत्या, अथर्व, उसिनर, अवस्यु, बुध, रक्ष, गंधर्व, गया, समाया, कृपा, कृष्ण, मायाव, सास, त्रैतन, उरक्ष्य, नाभानेदिष्ट, वर्षणी, वैवस्वत, विराट आदि। ऋग्वेद में प्रयुक्त कुछ शब्द अवेस्ता में शब्दों के साथ-साथ नामों के संदर्भ में भी प्रयुक्त हुए हैं और ऋग्वेद के कुछ नाम अवेस्ता में मात्र शब्दों के तौर पर भी प्रयोग में लाए गए हैं। ऐसे शब्दों में उदाहरण के तौर परप्राण’, ‘कुम्भजैसे शब्द और कुछ जानवरों के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अलावा हौपकिंस जैसे पुराने भारतविद और लुबोत्सकी एवं विजेल जैसे आधुनिक भारतशास्त्रियों ने ऐसे प्रचुर शब्दों को चिन्हित कर लिया है जिनके तत्व भारतीय आर्य और ईरानी भाषा-शाखाओं से मिलते  हैं और अन्य भाषाओं से इनका साम्य दूर-दूर तक नहीं बैठता। यथाकद्रु, तिस्य, फल, सप्तर्षि, स्तक, स्त्री, क्षीर, उदर, स्तन, कपोत, वृक, शनै:, भंग, द्वीप आदि।
- रचनाकारों के नाम
ऋग्वेद की  रचनाओं के नाम में प्रयुक्त उपसर्ग और प्रत्ययों से अवेस्ता की समानता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है :
१-      मंडल , , , और के पुराने सूक्तकोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
२-     मंडल , , , और के संशोधित सूक्तएक सूक्त और तीन मंत्र (अठारह मंत्रों में अंतिम तीन मंत्र)
३-     मंडल , , , और १० के नए सूक्त३०९ सूक्त और ३३८९ मंत्र।

मंडल
             सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र
(संशोधित)
३६/(१६, १७, १८)
(नया)
, -, , १०, २०, २४-२६, ३१, ३३-३६, ४४, ४६-४९, ५२-६२, ६७, ६८, ७३-७५, ८१, ८२
३९
३६२
(नया)
१२-३०, ३६-४३, ४४-५०, ९९, १००, १०५, ११६-१३९
६१
७१०
(नया)
-, १०, १४, १५, २३-३८, ४३-५१, ५३, ५५-५८, ६२, ६८, ६९, ७५, ८०, ८५-८७, ८९, ९०, ९२, ९७-९९
५२
८७८
(नया)
, , -२४, २७-२९, ३२-३६, ४१-४३, ५३-६०, ६३, ६४, ६८, ७२, ८०-८२, ९१, ९२, ९४, ९५, ९७, ९९-१०३, १११, ११३, ११४
६२
५४७
१०
(नया)
-१०, १३-१९, ३७, ४२-४७, ५४-६६, ७२, ७५-७८, ९०, ९६-९८, १०१-१०४, १०६, १०९, १११-११५, ११८, १२०, १२२, १२८, १३०, १३२, १३४, १३५, १३७, १३९, १४४, १४७, १४८, १५१, १५२, १५४, १५७, १६३, १६६, १६८, १७०, १७२, १७४, १७५, १७९, १८६, १८८, १९१
९५
८९२
  
पुराने मंडल में ऐसे दृष्टांत मात्र तीसरे मंडल के ३६वें सूक्त में दृष्टिगोचर होते हैं जहाँ अठारह मंत्रों के अंतिम तीन (मंत्र संख्या १६, १७, और १८) में ऐसा हुआ है। यह ऐतरेय ब्राह्मण के छठे मंडल के अठारहवें सूक्त से संबद्ध ऋग्वेद के तीसरे मंडल (पुराने) में किया गया संशोधन है।




- सूक्तों के अंदर के दृष्टांत :

ऋग्वेद और अवेस्ता के सूक्तों  में  प्रयुक्त उपसर्गों और प्रत्ययों की भारतीय-ईरानी तात्विक समानता और समरूपता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है:
१-     मंडल , , , और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं, कोई मंत्र नहीं।
२-      मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : १४ सूक्त और २० मंत्र।
३-     मंडल , , , और १० के नए सूक्त : २२५ सूक्त और ४३४ मंत्र।

मंडल
सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र/नाम
(संशोधित)
१५/(१७), १६/(१३, १४), ४७/(२४)
/
(संशोधित)
३८/(), ५३/(२१)
/
(संशोधित)
३३/(, १२, १३), ५५/(, ), ५९/(१२), १०४/(२४)
/
(संशोधित)
३०/(, १८), ३७/(), ५७/(, )
/
(संशोधित)
३२/(), ४१/(, १२)
/
(नया)
१०/(, ), १८/(), १९(, ), २७(, , , ), ३०/(, १२, १४), ३१(१०), ३३(, १०), ३४(), ३५(), ३६(, ), ४१(, ), ४४(, १०, १०, १०, ११, ११,  १२, १२), ४५/(११), ५२/()५३/(१३), ५४/(१३), ६१/(, , , १०, १८, १९), ६२/(, , ), ६४/(), ७४/(), ७५/(), ७९/(), ८१()
२३
४२/४७
(नया)
(), १०/(), १८/(),२२/(१४), २३/(२२), २४/(१२, १३), २५/(१५), ३०/(,), ३३/(, १४, १५)३५/ (), ३६(१०,१०, १०, ११, १७, १७, १८), ३८(), ३९(), ४२(), ४३/(, ), ४४/(), ४५/(, , , ), ५१/(, , १३), ५२/(), ५९/(), ६१(), ६६(), ८०/(१६), ८३/(, ), ८८/(, ), ९१/(), १००/(१६,१७), १०४/(), ११२/(,, १०, १०, ११, १२, १५, १५, १५, १९, २०, २३, २३), ११४/(), ११६/(, , , , १२, १६, १६, २०, २१, २३), ११७/(, , , १७, १७, १८, १८, २०, २२, २४), ११९/(), १२१/(११), १२२/(, , , , १३, १४), १२५/(), १२६/(), १३८/(), १३९/(), १४०/(), १५८/(), १६२/(, , १०, १०, १५), १६३/(, ), १६४/(, १६, ४६), १६७/(, , ), १६९/(), १८७/(१०), १८८/(), १९०/(), १९१/(१६)
५०
९५/११३
(नया)
/(११/३०, ३०, ३२), /(, , ३७, ३८, ४०, ४०, ४१), /(, १०, १२, १२, १२, १६), /(, , , १९, २०), /(२५, २५, ३७, ३७, ३७, ३८, ३९), /(, ३९, ४५, ४६, ४६, ४८), /(२३), /(१८, २०), /(, १०, १५), १२/(१६), १७/(, १२, १४), १९/(, , ३७, ३७, ३७, ३८, ३९), /(, ३९, ४५, ४६, ४६, ४८), /(२३), /(१८, २०), /(, १०, १५), १२/(१६), १७/(, १२, १४), १९/(, , ३७), २०/(), २१/(१७, १८), २३/(, १६, २३, २४, २४, २८), २४/(, १४, १८, २२, २३, २८, २८, २९), २५/(, २२), २६/(, , ११), २७/(१९), ३२(, , ३०), ३३/(, १७), ३४/(, १६), ३५/(१९,२०,२१), ३६/(), ३७/(), ३८/(), ४५/(, ११, २६, ३०), ४६/(२१, २१, २१, २२, २४, २४, ३१, ३३), ४७/(१३, १४, १५, १६, १७), ४९/(), ५०/(), ५१/(, , , , , , ), ५२/(, , , , ), ५४/(, , , ), ५५/() ५६/(२। ), ५९/(), ६२/(१०), ६६/(), ६८/(१०, १५, १५, १६, १६, १७), ६९/(, १८), ७०/(, ), ७१/(, १४), ७४/(, , १३, १३, १३), ७५/(), ७७/(, , १०, १०), ८०/(), ८५/(, ), ८७/(), ९१/(, ),  ९२/(, २५), ९३/(), ९७/(१२), ९८/(), १०३/()     
५५
१२८/१५७
(नया)
/(), ११/(, ), ४३/(), ५८/(), ६१/(१३), ६५/(), ६७/(३२), ८३/(), ८५/(१२), ८६/(३६, ४७), ९६/(१८), ९७/(, १७, ३८), ९८/(१२), ९९/(), १०७/(११), ११२/(), ११३/(, ), ११४/()
१८
२३/२३
१०
(नया)
/(), /(), १०/(, , , , १४), ११/(), १२/(), १३/(), १४/(, , , , , , , , , १०, ११, १२, १३, १४, १५), १५/(), १६/(), १७/(, , , ), १८/(१३, १३), २०/(१०), २१/(, ), २३/(, ), २४/(), २७/(, १०, १७), २८/(), ३१(११), ३३/(), ३४/(, ११), ३९/(), ४७/(, ), ४८/(), ४९/(, ), ५१/(), ५२/(), ५५/(), ५८/(, ), ५९/(, , १०), ६०/(, , १०, १०, १०,), ६१/(१३, १७, १८, २१, २६), ६२/(), ६३/(१७), ६४/(, , , १६, १७), ६५/(१२, १२), ६७/(), ७२/(, ), ७३/(११), ८०/(), ८२/(), ८५/(, , ३७, ३७, ४०, ४१), ८६/(, , २३, २३), ८७/(१२, १६), ८९/(), ९०(, १३), ९१/(१४), ९२/(१०, ११), ९३/(१४, १५, १५), ९४/(१३), ९५/(, १५), ९६/(, , ), ९७/(१६), ९८/(, , , , , ), ९९/(, ११), १०१(), १०३/(), १०५/(), १०६/(, ), १०९/(), ११५/(, ), १२०/(, ), १२३/(, , ), १२४/(), १२९/(), १३०/(), १३२/(, ), १३५/(, ), १३६/(), १३९/(, ), १४६/(), १४८/(), १५०/(), १५४/(, ), १५९/(), १६४/(), १६५/(, , , , , ), १६६/(), १७७/(), १८९/()     
७९
१४६/१६०

पुराने मंडलों के मात्र चौदह संशोधित सूक्तों में ही समरूपता के ये तत्व पाए गए हैं।


ब३अष्टवर्णी या अष्टमातृक छंद

वेद और अवेस्ता दोनों में छंद-योजना को लेकर एक अद्भुत समानता यह है कि दोनों में आठ वर्णों या मात्राओं वाले छंद विधान का प्रयोग हुआ है।  ऋग्वेद के पुराने मंडलों के आठ-आठ वर्णों के तीन पद वाले गायत्री छंद (++) और चार चरणों वाले अनुष्टुप छंद (+++) के प्रयोग को छोड़कर बाक़ी नए मंडलों और अवेस्ता में पंक्ति (++++), महापंक्ति (+ ++ ++) और शक्वरी (++++++) छंदों की समानता मिलती है। इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है:
१-     पुराने मंडल , , , और के सूक्त: कोई सूक्त और कोई मंत्र नहीं।
२-     पुराने मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : एक सूक्त और एक मंत्र।
३-      नए मंडल , , , और दस के नए सूक्त : पचास सूक्त और दो सौ पचपन मंत्र।

मंडल
          सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल मंत्र
(संशोधित)
७५/(१७)
(नया)
/( से १०), /(१०), /(, ), १०/(, ), १६/(), १७/(), १८/(), २०/(), २१/(), २२/(), २३/(), ३५/(), ३९/(), ५०/(), ५२/(, १६, १७)६४/(), ६५/(), ७५/( से ), ७९/( से १०)
४९
(नया)
२९/( से ), ८०/( से १६), ८१/( से ), ८२/( से ), ८४/(१० से १२), १०५/( से और से १८), १९१/(१० से १२)
६०
(नया)
१९/(३७), ३१/(१५ से १८), ३५/(२२, २४), ३६/( से ), ३७/( से ), ३९/( से १०), ४०/( से ११), ४१/( से १०), ४६/(२१, २४, ३२), ४७/( से १८), ५६/(), ६२/( से और १० से १२), ६९/(११, १६), ९१/( और )
८६
(नया)
११२/( से ), ११३/( से ११), ११४/( से )
१९

१०
(नया)
५९/(, ), ६०/(, ), ८६/( से २३), १३३/( से ), १३४/( से ), १४५/(६०, १६४/(), १६६/()
४१
  
पाँच पुराने मंडलों में मात्र एक छठा मंडल है जिसमें काफ़ी बाद का बस एक ही संशोधित सूक्त है जो अपने छंद-शिल्प में अवेस्ता से मिलता है।
कुल मिलाकर ऋग्वेद से अवेस्ता और मिती  ग्रंथों के सांस्कृतिक तत्वों की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि
क-    ऋग्वेद के पुराने पाँच मंडलों के २८० सूक्तों के २३५१ मंत्रों में इनसे समानता के तत्व का लेशमात्र भी नहीं है।
ख-    पुराने मंडल के ६२ ऐसे सूक्त जो नए मंडलों के रचनाकाल में संशोधित हुए, उनके ८९० संशोधित मंत्रों में समानता के छिटपुट तत्व मिलते हैं और
ग-     बाद में सृजित पाँच नए मंडलों के ६८६ नए सूक्तों के ७३११ नए मंत्रों और उसी काल में या बाद में रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों या संस्कृत साहित्य में समानता के तत्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

सारांश रूप में कहें तो नए मंडलों में हुए संशोधनों को भटकाव मानते हुए भी पुराने मंडलों के साथ ऊपर विस्तार में दिए गए विवरणों का एकपक्षीय स्वरूप जो उभरता है वह इस प्रकार है :

सम्पूर्ण ऋग्वेद के समस्त मंडलों में रचनाकारों
के नाम, अन्य नाम और छंद विधान की मिती  ग्रंथ और अवेस्ता के साथ तात्विक तुलना (* पुराने मंडल के संशोधित सूक्तों और मंत्रों को छोड़कर)
पुराने मंडल
(, , , , )
सूक्तों की संख्या
पुराने मंडल
(, , , , )
मंत्रों की संख्या
नए मंडल
(, , , , १०)
सूक्तों की संख्या
नए मंडल
(, , , , १०)
मंत्रों  की संख्या
सम्पूर्ण ऋग्वेद *
२८०
२३५१
६८६
७३११
रचनाकारों के नाम के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
३०९
३३८९
अन्य संदर्भों में नाम के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
२२५
४३४
छंद- विधान के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
५०
२५५

ऋग्वेद के नए मंडलों की मिती  ग्रंथों और ईरानी अवेस्ता के साथ ऊपर वर्णित तात्विक समानता हमें ऋग्वेद की रचना के काल में झाँकने की एक वैज्ञानिक दृष्टि देती है।

सीरिया और इराक़ के भूभाग में मिती  साम्राज्य का उदय ईसा से क़रीब १५०० साल पहले के आसपास हुआ था। किंतु जो भी दर्ज सबूत हासिल हैं उनसे यही मालूम होता है कि अपनी साम्राज्य-स्थापना से लगभग दो सौ से भी अधिक वर्षों पहले वे पश्चिमी एशिया में रहते थे। साथ ही १७५० ईसा पूर्व के आसपास बेबिलोन (इराक़) में मिती  लोगों के समान ही कासाइट  लोगों की उपस्थिति का प्रमाण मिलता है। इन, कासाइट लोगों, के राजा का नामअधिरथ’ (‘-रथ-‘ प्रत्यय लगा हुआ) था।  यह मिती  लोगों में बाद के दिनों में प्रचलित नामों में हुआ करता था।

   ईसापूर्व १८वीं सदी में सीरिया-इराक़ के इलाक़े में जीवन यापन कर रहे मिती  और कासाइट लोगों की ज़िंदगी में ऋग्वेद के नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों के पाए जाने के बाद से ऋग्वेद का रचनाकाल और काफ़ी पीछे की ओर खिसक जा रहा है। ग़ौरतलब है कि मिती  और कासाइट, दोनों की भाषा अभारोपिय भाषा थी। विजेल (२००५:३६१) ने मिती  लोगों की भाषा में उपस्थित भारतीय-आर्य तत्वों का अध्ययन किया है और उन तत्वों के वर्गीकरण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि असल में ये तत्व मिती  लोगों द्वारा काफ़ी पहले अतीत में बोली जाने वाली हुर्राइट भाषा के भारतीय-आर्य तत्वों के अवशेष थे। जे पी मेलोरी (१९८९:४२) ने तो इसे एक मरी हुई हुर्रियन भाषा के अंदर से निकलती वह जीवित आवाज़ बताया है जो हमें इतिहास की यह आहट सुनाती है कि सहजीविता की सदियों लम्बी प्रक्रिया की यात्रा तय करने के बाद मिती  भाषा अपने वजूद में आयी होगी। चाहे हम अपने आकलन में  कितनी भी अतिरिक्त सतर्कता बरत लें इतना तो पक्का ही है कि १८०० ईसा पूर्व में ये वैदिक तत्व कम-से-कम पश्चिमी एशिया में तो विद्यमान थे ही।

अब इसमें तो कोई विवाद नहीं कि ऋग्वेद के पुराने मंडल से लेकर नए मंडल तक संस्कृति  की एक ही विराट धारा का अनवरत प्रवाह हुआ है और सच कहें तो अपने नैरंतर्य के तत्व में उसका प्रवाह अद्यतन अछूता ही रहा है। यही सांस्कृतिक निरंतरता उसकी मूल पहचान है। अतः, नए मंडलों में आने वाले नवीन तत्व ऋग्वेद की रचना के भूभाग में पुराने मंडलों (, , , , ) की रचनाकाल से लेकर नए मंडलों (, , , , १०) के रचे जाने के काल तक के सांस्कृतिक विकास  के  निरंतर प्रवाह से निष्पन्न लहरियाँ  हैं। और, तय है कि नए मंडलों के रचना काल में तरंगायित इन सांस्कृतिक लहरियों ने अपने समकालीन भूभाग के एक बड़े विस्तार को भिगोया होगा जिसके तत्व हमें मिती  संस्कृति या अवेस्ता-ग्रंथ के सांस्कृतिक तत्वों की समरूपता में दिखायी दे रहे हैं।  अब ऋग्वेद के भूगोल को भी याद कर लें। इस भौगोलिक वितान का विस्तार पूरब में पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और हरियाणा से लेकर पश्चिम में अफगनिस्तान के पूरबी किनारे को छूता था और यहीं वह क्षेत्र है जहाँ से निकलकर  मिती  लोगों के भारतीय-आर्य पूर्वज और अवेस्ता रचने वालों के ईरानी पूर्वज अपनी संस्कृति और विरासत को अपने माथे पर  ढोते अपना  इतिहास रचने अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर बस गए थे।

अब यदि पश्चिमी एशिया अर्थात सीरिया-इराक़ के इलाक़े में १८०० ईसापूर्व के इन  मितानियों के संस्कृति-तत्व अपने भारतीय-आर्य पूर्वजों की संस्कृति केअवशेषयाबचे-खुचे अंशथे, तो उन पूर्वजों का पश्चिम एशिया में कम-से-कम २००० ईसापूर्व तक तो रहना तय है।  इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि  ऋग्वेद की भूमि से निकलकर वे पूर्वज उससे भी कई सदियों पूर्व पश्चिमी एशिया में आकर बस गए थे और ऋग्वेद के तत्कालीन रचित नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों को अपने साथ सहेजकर लेते गए थे। यह काल किसी भी तर्क की कसौटी पर ईसा से तीसरी सदी पूर्व का ही ठहरता है।

जिस संस्कृति को ये पूर्वज अपने साथ पश्चिम एशिया में लेकर गए, वह ऋग्वेद की भूमि पर पूरी तरह से विकसित और खिला हुआ संस्कृति-कुसुम था जिसकी सुरभि आगे कई सदियों तक केवल पश्चिमी एशिया बल्कि उससे मिती  साम्राज्य और अवेस्ता की ईरानी भूमि की ओर बहकर जाने वाली हवाओं  में भी घुलकर उस समस्त भूभाग को आने वाली कई सदियों तक सुवासित करती रही। इस आधार पर ऋग्वेद के नए मंडलों से खिलने वाले इस संस्कृति-कुसुम का काल कम-से-कम २५०० ईसापूर्व के पास तो जाकर ठहरता ही है या उससे भी पीछे यदि चला जाय तो कोई चौंकने की बात नहीं।

अब ऋग्वेद के पुराने मंडलों की ज़रा बात कर लें। रचना काल के आधार पर इन मंडलों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। सबसे पुराने मंडल (, और ) कोसबसे पुरातन कालके और मंडल ( और ) कोबाद के पुरातन कालयामध्य-पुरातन कालका कह सकते हैं। इन दोनों कालों की रचनाओं में नये  मंडलों की रचनाओं के सांस्कृतिक तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित दिखते हैं। अतः इनकी रचनाओं का काल निश्चित तौर पर २५०० ईसापूर्व से काफ़ी पीछे जाएगा और किसी भी स्थिति में यह ३००० ईसापूर्व के बाद का तो हो ही नहीं सकता।

कालक्रम की इस गणना की वैज्ञानिकता को इस बात से भी बल मिलता है कि तीसरी सदी ईसापूर्व के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसे तकनीकी खोजों और प्राद्यौगिक ईजादों का हवाला मिलता है जिसका उल्लेख ऋग्वेद के नए मंडलों में तो है लेकिन पुराने मंडलों में उनका कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है।

उसी काल में मध्य एशिया के आसपास  आरेदार पहिए की खोज हुआ मानते हैं। उसी तरह विजेल ने यह प्रमाण इकट्ठा किया है कि बैक्ट्रियायी ऊँटों को मध्य एशिया में पालतू बनाए जाने का भी समय वही तीसरी सदी ईसापूर्व का अपराह्न काल है। आरेदार पहियों और पालतू ऊँटों की चर्चा ऋग्वेद के बाद के मंडलों में पाए जाने का दृष्टांत इस प्रकार है :

मंडल
सूक्त-संख्या/(मंत्र-संख्या)
(नया)
१३/(), ५८/(
(नया)
३२/(१५), १४१/(), १३८/(), १६४/(११, १२, १३, ४८)
(नया)
/(३७), /(४८), २०/(१४), ४६/(२२, ३१), ७७/()
१०(नया)
७८/()

ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा से लेकर अफगनिस्तान की  पूर्वी सीमा को छूती भूमि तक फैले विस्तृत भूभाग में ३००० साल ईसापूर्व रचे जाने के इस तथ्योद्घाटन से अब दो बड़े ज़रूरी सवाल उभरते हैं।
पहला सवाल तो यह कि  ३००० वर्ष ईसा पूर्व या इसके आसपास का यही काल है जब उस समय यहाँ पर विकसित सभ्यता की पुरातात्विक पहचान की गयी है, जिसे हमसिंधु-घाटी सभ्यतायाहड़प्पा-सभ्यताया अबसिंधु-सरस्वती सभ्यताके नाम से जानते हैं।
और दूसरा सवाल यह कि भाषायी खोजों से प्राप्त सबूत इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं की बारहों शाखाओं को बोलने वाली जनजातियाँभारोपीय भाषाओं की जन्मभूमियाप्राक-भारोपीय-भाषा की अपनी मातृभूमिमें ३००० वर्ष ईसापूर्व तक साथ-साथ रहती थीं। तो, क्या यह मान  लिया जाय कि  समस्त भारोपीय भाषाओं की जननी और जन्मभूमि उत्तर भारत की यहीं भूमि है!

23 comments:

  1. सुन्दर और जानकारीपरक पोस्ट।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-09-2020) को   "शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ"   (चर्चा अंक-3815)   पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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    1. जी, अत्यंत आभार इस जानकारी को पाठकों के बड़े समूह के पास पहुंचाने के लिए।

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  3. सर इसे एक किताब की शक्ल दे
    गहन खोज और मेहनत से तैयार तथ्य

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    1. बस आशीष दीजिये कि काम पूरा हो जाय🙏। बहुत आभार।

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  4. ओह ! ज्ञान का खजाना ! इसे बड़ी शांति और मनन के साथ पढ़ना होगा। पहले भाग से शुरू करती हूँ। आपकी लगन, मेहनत, लोकहित की भावना और विद्वत्ता को मेरा प्रणाम।

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    1. जी, बहुत आभार आपके आशीष का।

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  5. आदरणीय विश्वमोहन जी , आपकी इस लेख श्रृंखला की विषय -वस्तु रोचकता के साथ आगे बढ़ रही है | 'अवेस्ता ' की वैदिक सभ्यता से समानता और उसके प्रमाणिक तथ्य बहुत हैरान करते हैं | असल में मज़बूरी वश अथवा शौकिया पलायनवादी प्रकृति सभ्यताओं और संस्कृतियों में परिवर्तन का अहम् कारण रही और इसी मानवी प्रवृति के कारण स्थानीय सांस्कृतिक तत्व - सहजता से दूसरी संस्कृतियों में समाहित होते गये || आदिकाल से आज तक यही हो रहा है | यूँ तो व्यवहारिक तौर पर इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि अवेस्ता या वैदिक साहित्य में कोन प्राचीनतम है | पर अपनी ऋषि मेधा की अस्मिता की रक्षा के लिए इस पर शोध के सार्थक प्रयास जरूरी हैं | बहुत हैरानी की बात है कि वैदिक - मिति और ईरानी लोगों की सांस्कृतिक विरासत में साझेदारी है | अवेस्ता और वेदों में छंद विधान और शब्दों की एकरूपता भी बहुत विस्मयकारी तथ्य है | एक जैसी शब्दावली इन्हें एकता के सूत्र में पिरोती है | इसके साथ 'कासाइट ' लोगों के जीवन में अधीरथ जैसे -- नितांत भारतीय नाम का , प्रचलनमें होना - दो संस्कृतियोंकी प्रगाढ़ता का प्रमाण है | और ये संकेत भी कि एक के तत्व दूसरी में समाहित होना ही इनकी एकरूपता का सशक्त कारण है | आपके लेखों से मेरी जिज्ञासा भी वैदिक साहित्य में जगी है | सच कहूं तो आज तक इस और कभी ध्यान नहीं दिया था | पर इस विषय पर एक वीडियो से ये पता चला कि 1859से पहले वैदिक साहित्य के काल निर्धारण के लिए किसी ने चिंता नहीं की | ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि उस समय वेदों को मानव रूप में प्रकट होने की अतिप्राचीन और पौराणिक मान्यता प्रचलित थी | उन्हें सदैव ईश्वर - वाणी माना गया और श्रुति कहा गया | बाद में बाल गंगाधर जैसे विद्वानों ने भी ज्योतिषीय आधार पर ही इसके लिए शोध किया तो वह भी आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से पूरा नहीं था | इन की प्रमाणिकता सभ्यताओं के वैज्ञानिक दृष्टि से परख लेने के बाद ही सिद्ध हुई अन्यथा ये वैश्विक स्तर पर अधूरी थी |ये अलग बात है कि जर्मन जिज्ञासु विवर - मैक्समुलर इत्यादि विद्वानों ने घोषणा कर दी --'' कि पृथ्वी पर मानव - मति में कोई ऐसी शक्ति

    नहीं है जो वेदों का काल-निर्धारण कर सके।''
    पर इस विषय पर माननीय तलगरी जी जैसे शोधकर्ताओं के शोध के बहाने विभिन्न संस्कृतियों के एकता के सूत्रों के बारे में जानना बहुत रोचक लग रहा है | इस अनुवाद में भाषा के उत्तम संस्कार की सराहना करते हुए अपने शब्दों को विराम देना चाहूंगी | हार्दिक शुभकामनाओं के साथ अगली कड़ी की प्रतीक्षा में --

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    1. आपकी सधी समीक्षा और आशीर्वचनों ने सदैव हमारा हौसला बढ़ाया है। हृदयतल से आभार आपके सारस्वत वचनों का।

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  6. आदरणीय सर आप ने बहुत मेहनत की है बहुत कुछ सीखा आपकी पोस्ट से बहुत शुक्रिया ।

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    1. आपके सुंदर प्रेरक वचनों का हृदयतल से आभार। आशा है आपकी आशीष-दृष्टि हमारे इस प्रयास को ऊर्जा देती रहेगी।

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  7. "अब इसमें तो कोई विवाद नहीं कि ऋग्वेद के पुराने मंडल से लेकर नए मंडल तक संस्कृति की एक ही विराट धारा का अनवरत प्रवाह हुआ है और सच कहें तो अपने नैरंतर्य के तत्व में उसका प्रवाह अद्यतन अछूता ही रहा है। यही सांस्कृतिक निरंतरता उसकी मूल पहचान है।"
    अपनी संस्कृति और विरासत को जन-जन तक पहुंचने का आपका ये अद्भुत प्रयास अतुलनीय है ,मेरा भी मत यही है कि-आप इसे एक पुस्तक का रूप दे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगो ये सत्य जान सकें। शायद,इस शोधपूर्ण अमूल्य कृति को वो मान मिल सकें (जो इस ब्लॉगमंच पर तो मिलता नहीं दिखाई दे रहा है)
    आपके श्रम को सत-सत नमन,देर से आने माफी चाहती हूँ।

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    1. जी, हार्दिक आभार आपके अनुपम आशीष का। हर पाठक को अपनी रुचि में विचरने का अधिकार है। साहित्य-साधक तो गीता के औपनिषदिक निष्काम भाव में साधना करता है
      "योगस्थ: कुरु कर्मणि....समत्वं योग उच्यते।"
      बस, आपका आशीष बना रहे🙏🙏

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  8. कालजई रहने वाली है ये आपकी श्रंखला ... इतिहास में वैज्ञानिक तथ्यात्मक खोज और नए सन्दर्भ और सार्थक दृष्टिकोण से देखना और उसका पुनर्लेखन आसान तो नहीं होता ... इस दुष्कर कार्य का बीड़ा उठाया है आपने ... इश्वर आपको शक्ति दे ...

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    1. बहुत आभार। बस, आपका आशीष बना रहे🙏🙏

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  9. नमस्ते व‍िश्वमोहन जी, आपकी इस अद्भुत शोधपरक श्रृंखला से हमें न‍ित ज्ञानवर्द्धन का अवसर म‍िल रहा है , आपका ज‍ितना आभार प्रगट करूं उतना कम होगा...इस आपाधापी वाले जीवन में अपनी सभ्यता को भुला बैठना स्वाभाव‍िक ही है परंतु आपकी इस श्रृंखला ने हमें उत्साह से भर द‍िया है क‍ि हम और जाने .. और समझें..और आगे बढ़ायें ...धन्यवाद

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    1. बहुत आभार। बस, आपका आशीष बना रहे🙏🙏

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  10. अथक शोधकार्य आपकी मेहनत को नमन ।
    यह संग्रह करने लायक शोध है इसे पुस्तक रूप
    देदिया जाना नितांत आवश्यक है, अब ये सिर्फ आप की
    कृति नहीं रही पूरे हिंदीं साहित्य की धरोहर है, इसे
    एकबार पढ़ कर समझ लेना मेरे जैसों के लिए
    असंभव है इसे पुस्तक रूप दिजीए,आने वाली पीढ़ी आपकी ऋणी रहेगी ।
    अद्भुत, असाधारण, अद्वितीय।

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    1. जी, बहुत आभार आपके इस अनुपम आशीष का, जिसके सहारे हम आगे की यात्रा जारी रखेंगे।

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  11. महत्वपूर्ण शोधकार्य ....
    उत्तम अनुवाद...
    मेरी भी दो पुस्तकें भारतीय इतिहास पर हैंं- "प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास" तथा "खजुराहो की मूर्ति कला के सौंदर्यात्मक तत्व"। यह दोनों पुस्तकें विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी से प्रकाशित हैं तथा अमेजॉन पर ऑनलाइन उपलब्ध हैं। 🙏

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    1. वाह! बहुत सुंदर। फिर तो ऐतिहासिक लेखों पर आपके मार्गदर्शन और समीक्षात्मक टिप्पणी का लाभ मिलेगा। अत्यंत आभार!

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