Friday 18 December 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१६)

(भाग - १५ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ड)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


भारतीय-यूरोपीय संख्यायों के सबूत 

‘भारत-भूमि अवधारणा’ के पक्ष में एक और अप्रत्याशित और निर्णायक सबूत बनकर  हमारे सामने  भारतीय-यूरोपीय संख्यायों की व्यवस्था का सच आता है। इसकी विस्तार से चर्चा श्री तलगेरी ने अपनी पुस्तक “संख्यायों और अंकों की दुनिया में भारत का अनोखा स्थान’ ( India’s Unique Place in the world of Numbers and Numerals) में की है। संक्षेप में हम उनकी यहाँ चर्चा करेंगे। भारोपीय भाषाओं में संख्यायों की व्यवस्था दशमलव- प्रणाली में परिचालित होती हैं। इनका आधार अंक १० (दस) होता है। दुनिया की सारी भाषाओं में क़रीब-क़रीब यहीं व्यवस्था दिखायी देती है और शायद इसका एक कारण क़ुदरत की वह व्यवस्था हो सकती है कि उसने मनुष्य के दोनों हाथों में गिनने के लिए कुल मिलाकर दस अंगुलियाँ दी है। ऐसे तो आप हाथ और पैर दोनों की अंगुलियों को गिनने के लिए ले लें तो कुल मिलाकर बीस अंगुलियाँ हो जाती हैं, और इसी कारण कहीं-कहीं दस आधार अंक वाली  ‘दशमलव-प्रणाली’ की जगह बीस आधार अंक वाली ‘विंशमलव-प्रणाली’ के प्रचलन के भी दृष्टांत मिलते हैं। भारोपीय भाषाओं के आने से पहले दक्षिण-पश्चिम यूरोप में बोली जाने वाली बास्क भाषा के प्रभाव में ‘आइरिश’ और ‘वेल्श’ जैसी सेल्टिक भाषाओं में भी यह ‘विंशमलव-प्रणाली’ विकसीत हो गयी थी और यहाँ तक कि इटालिक और फ़्रेंच भाषाओं पर भी इसके छिटपुट प्रभाव देखने को मिल जाते हैं।

यूस्करा (बास्क) 

१–१० : बट, बिगा, हिरूर, लौर, बोर्त्ज़, से, जजपी, ज़ोर्टजी, बेडेरटजि, हमर 

११-१९ : हमेक, हमबि, हमहिरर, हमबोर्टज, हमसे, हमजजपी, हमज़ोर्टजी, हमरेटजि 

२०, ४०, ६०, ८०, १०० : होगे, बेर्रोगे, हिरुएटनोगे, लुएटनोगे, एहुन 

अन्य संख्या : विंशमलव + टा + १-१९

अतः २१ : होगे टा बट (२० +टा +१), 

९९ : लुएटनोगे टा हमरेटजि (८० + टा + १९)

वेल्श ( भारोपीय – सेल्टिक)

१-१० : उन, दौ, त्रि, पेडवर, पम्प, छवेच, सैथ, वय्ठ, नव, देग 

११-१५ : उन-अर-द्देग, देद्देग, त्रि-अर-द्देग, पेडवर-अर-द्देग, ब्य्म्थेग  

१६-१९ : उन-अर-ब्य्म्थेग, दौ-अर-ब्य्म्थेग, त्रि-अर-ब्य्म्थेग, पेडवर-अर-ब्य्म्थेग 

२०, ४०, ६०, ८०, १०० : हुगैं, देगैं, त्रिगैं, पेडवरगैं, सेंट 

२१ से लेकर ९९ तक की संख्यायों के बनने के लिए नियमित व्यवस्था इस प्रकार है – १-१९ + अर + विंशमलव (पुरानी अंग्रेज़ी भाषा की तरह यहाँ भी पहले इकाई संख्या आती है। जैसे २१ के लिए – उन अर हगैं (१ + अर +२०) और ९९ के लिए – पेडवर-अर- ब्य्म्थेग अर पेडवरगैं (१९ + अर + ८०)

आइरिश (भारोपीय-सेल्टिक)

१-१० : आओं, दो, त्रि, केथैर, कूइग, से, सीख़्त, ओख्ट, नोई, देख 

११-१९ : आओं-देग (१ + १०), आदि।

२०, ४०, ६०, ८०, १०० : फिखे, दा-फिखिद, , त्रि-फिखिद, खेथ्रे-फिखिद, कीद 

अन्य संख्याएँ : १-१९ + इस + विंशमलव ( यहाँ भी इकाई संख्या पहले आएगी)

अतः २१ : आओं इस फिखे, ९९ : नोई-देग इस खेथ्रे-फिखिद (१९ + इस + ८०)

[ किंतु इस भाषा में वैकल्पिक तौर पर दशमलव-प्रणाली का भी चलन पाया जाता है। १०, २०, ३० आदि : देख, फिखे, त्रोखा, देखीद, काओगा, सीसका, सीखटो, ओखटो, नोखा, कीद ]

फ़्रांसीसी (भारोपीय-इटालिक) (किंतु आंशिक तौर पर ही)

१-१० : उन, डू, त्रोईस, कुआत्रे, सिंक, सिक्स, सेप्ट, हुईट, नेफ़, दिक्ष 

११-१९ : ओंजे, डौज़े, ट्रेजे, कुआतोरजे, कुइंजे, सीज़, दिक्ष-सेप्ट, दिक्ष-हुईट, दिक्ष-नेफ़ 

२०-१०० : विंग्ट, त्रेनते, कुआरंते, सिंकुआंते, सोईक्षांते, सोईक्षांते-दिक्ष,  कुआत्रे-विंग्ट्स,  कुआत्रे-विंग्ट-दिक्ष, सेंट 

२१ से लेकर ९९ तक की संख्याएँ इस प्रकार  से लिखी जाती हैं : 

२० : विंग्ट, १ : उन, २१: विंग्ट एट उन 

‘एट’ (और) सिर्फ़ ‘उन’ के पहले आता है। २२ : विंग्ट-डू  आदि। 

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ७०, ८० और ९० के लिए ‘६०+१०’, ‘४*२०’ और ‘(४*२०)+१०’ का प्रचलन है। इसलिए ७१ से लेकर ७९ तक की संख्यायों के लिए सोईक्षांते-एट-ओंजे, सोईक्षांते-डौजे ……… सोईक्षांते-दिक्ष नेफ़ क्रमशः लिखे जाते हैं। उसी तरह ९१ से ९९ के लिए कुआत्रे-विंग्ट-ओंजे, कुआत्रे विंग्ट डौजे (४*२०+११,४*२०+१२) आदि तथा ८१ से ८९ के लिए कुआत्रे-विंग्ट-उन, कुआत्रे-विंग्ट-डू आदि लिखे जाते है।

बाक़ी भारोपीय भाषाओं में तीन चरणों वाली दशमलव पद्धति का चलन है। सही मायने में तो दशमलव पद्धति के विकसित होने की चार अवस्थाएँ हैं, लेकिन विकास के पहले चरण का भारोपीय भाषाओं में कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुछ-कुछ अनजानी प्राक-भारोपीय भाषा वाली स्थिति है। फिर भी, कुछ ग़ैर-भारोपीय भाषाओं में इसका विवरण अवश्य मिलता है और प्राचीनतम प्रोटो-भारोपीय भाषाओं में इसके उपस्थित होने के पर्याप्त तर्क हैं। 

क – दशमलव-पद्धति की पहली अवस्था : 

दशमलव पद्धति के विकास के प्रथम चरण में मात्र ग्यारह संख्यायों १ से १० और १०० के लिए शब्द थे। बीच की संख्यायों का निर्माण सीधे इन्हीं ग्यारह संख्यायों की मदद से या फिर घुमा-फिराकर किसी दूसरे तरीक़े से किया जाता है। यह पद्धति प्रमुख रूप से साइनो-तिब्बती भाषा (चीनी, तिब्बती, थाई आदि) और औस्ट्रिक परिवार की कुछ भाषाओं (वियतनामी आदि) में पायी जाती है। भारत की संथाली भाषा के साथ-साथ दुनिया की अनेक भाषाओं में भी यह प्रणाली देखने को मिलती है।

संथाली (औस्ट्रिक- कोल, मुंडा)

१ से १० : मित, बार, पे, पॉन, मोरे, तरुई, इया, इरे, आर, जेल 

दहाई २०-९० : बार-जेल, पे-जेल, पॉन-जेल, मोरे-जेल, तरुई-जेल, इया-जेल, इरे-जेल, आर-जेल। १००: मित-साए।

अन्य संख्याएँ : दहाई + खान + इकाई 

जैसे ११ : जेल खान मित, २१ : बार-जेल खान मित, ९९ : आर-जेल खान आदि।

और चाहे तो ‘खान’ को लगाए बिना भी लिख सकते हैं। (अब यदि अंग्रेज़ी में इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता तो बड़ी सहजता से ११ के लिए ‘दस-एक’, बीस के लिये ‘दो-दस’ २१ के लिए ‘दो-दस-एक’, ९९ के लिए ‘नौ-दस-नौ’ लिखा जाता।)

ख – दशमलव पद्धति के विकास की दूसरी अवस्था 

दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था में भाषाओं में १ से १०, २० से ९० के दहाई अंकों और  सैकड़ा १०० के लिए शब्दों का इजाद हो गया था। बीच की संख्यायों का निर्माण सीधे इन बीस शब्दों से या फिर घुमा-फिराकर किसी अन्य तरीक़े से कर लिया जाता है। यह पद्धति मूल रूप से अटलांटिक परिवार की भाषाओं ( तुर्की, मंगोलियाई, मंचु, कोरियाई, जापानी)  के साथ- साथ दुनिया की कुछ अन्य भाषाओं में भी पाया जाता है। भारोपीय भाषाओं की जहाँ तक बात की जाय तो यह सिर्फ़ संस्कृत भाषा में ही पाया जाता है और वहाँ भी अपनी लचकदार शैली में यह कहीं-कहीं भाषा की संधियों के छलजाल में जाकर मिल जाती है। साथ में इनका चलन दक्षिण की सिंहली और उत्तर की टोकारियन भाषा में भी देखने को मिलता है।

संस्कृत : 

१-९ : एक, द्वि, त्रि, चतुर, पंच, षट्, सप्त, अष्ट, नव 

दहाई अंक  ९० तक : दस, विंशती, त्रिंशत, चत्वारिमशत, पंचशत, षष्ठी, सप्तति, असीती, नवती, शतम।

अन्य संख्याएँ : इकाई रूप + दहाई। 

संयुक्त होने की प्रक्रिया में दहाई अंकों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। बस केवल एक अपवाद सोलह (षोडस) का है, जहाँ ‘द’ का ‘ड’ हो जाता है।  संस्कृत-उच्चारण के नियमानुसार शब्दों के संयोजन में ‘अ’ और ‘अ’ की संधि ‘आ’ हो जाती है और ‘इ तथा ‘आ’ की संधि ‘या’ हो जाती है। ८१ के लिए ‘एकासीति’, ८२ के लिए ‘दव्यशीति’ आदि।

इकाई स्वरूप  

१ – एक : एका – (११), एक – (२१, ३१, ४१, ५१, ६१, ७१, ८१, ९१)

२ – द्वि : द्वा – (२२, ३२), द्वि – (४२, ५२, ६२, ७२, ८२, ९२)

३ - त्रि : त्रयो – (१३, २३, ३३), त्रि – (४३, ५३, ६३, ७३, ८३, ९३)

४ – चतुर : चतुर – (१४, २४, ८४, ९४), चतुस – (३४), चतुष – (४४), चतु: - (५४, ६४, ७४)

५ – पंच : पंच (१५, २५, ३५, ४५, ५५, ६५, ७५, ८५, ९५)

६ – षट् : षो (१६), षड (२६, ८६), षट् (३६, ४६, ५६, ६६, ७६), षण  (९६)

७ – सप्त : सप्त - (१७, २७, ३७, ४७, ५७, ६७, ७७, ८७, ९७)

८ – अष्ट : अष्टा – (१८, २८, ३८, ४८, ५८, ६८, ७८, ८८, ९८)

९ – नव : ऊन – (१९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९), नव (९९)

[ नोट - यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि आज की संस्कृत-गिनती में ‘एकोन’ (अर्थात एक पहले) शब्द का प्रचलन बढ़ गया है। जैसे १९ के लिए एकोनविंश। एकोन (१९, २९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९, ९९) - विश्वमोहन]

बोलचाल की सिंहली भाषा : 

१ - ९ एक, डेक, टुना, हतरा, पसा, हया, हता, अटा, नवय 

दहाई – १० से १०० :  -दहया-, -विस्सा-, -टिसा-, -हतलिस-, -पनस-, -हेटा-, -हेट्टे-, -असु-, -अनु-, सिया-

बाक़ी संख्याएँ दहाई + इकाई मिलकर बनाती है। जैसे ११ : दह-एक, २१ : विसि-एक, ९९ : अनु-नवय 

टोकारियन :

१ – १०  : से, वि, त्राई, सत्वेर, पिष, स्क, सुक्त, ओक्त, न, षक 

११ – १९ : दहाई + इकाई। जैसे,  ११ षक से 

२० : इकम 

[ अब चूँकि यह भाषा लुप्तप्रायः हो गयी है और अब कुछ पुरातात्विक अभिलेखों तक ही ही सीमित है, इसलिए अन्य संख्यायों की जानकारी अब उपलब्ध नहीं है।]

यदि अंग्रेज़ी ने इस प्रणाली को स्वीकारा होता तो संभवतः इसका सरलतम स्वरूप ऐसा होता कि ११ = टेन-वन, २० = ट्वेंटी, २१ = ट्वेंटी-वन, ९९ = नाइनटी नाइन 

दशमलव के विकास की तीसरी अवस्था  

उत्तर-पश्चिम में बुरुशासकी और पूरब की तुरी एवं साओरा सरीखी औस्ट्रिक जैसी विंशमलव संख्या-पद्धति वाली पड़ोसी अभारोपीय भाषाओं के प्रभाव में दशमलव प्रणाली के विकास का तीसरा चरण इस मायने में उल्लेखनीय रहा कि ग्यारह से लेकर उन्नीस तक की संख्यायों का स्वरूप अपने बाद की संख्यायों के समूह अर्थात २१ से २९, ३१ से ३९, ४१ से ४९, ५१ से ५९, ६१ से ६९, ७१ से ७९, ८१ से ८९ और ९१ से ९९, के स्वरूप से भिन्न हो गया। दशमलव के विकास की इस तीसरी अवस्था में भाषाओं में एक से दस, दहाई अंकों बीस से नब्बे और सौ के लिए संख्याएँ आ गयी। ग्यारह से उन्नीस तक की संख्यायों का गठन एक ख़ास ढंग से था। अन्य संख्याएँ ( २१-२९, ३१-३९, ४१-४९ आदि) या तो सीधे या परोक्ष रूप से  अन्य पद्धतियों के सहारे किसी दूसरे तरीक़े से बनती थीं। यह व्यवस्था संसार के दो भाषा परिवारों की ख़ासियत है।  पहला परिवार है - भारोपीय परिवार और दूसरा परिवार है - द्रविड़ परिवार। हालाँकि, संसार की अन्य भाषाओं में भी अलग-अलग छिटपुट तौर पर यह प्रवृत्ति पायी जाती है।

इस मामले में सबसे अनोखी बात तो यह है कि भारतीय-आर्य शाखा और टोकारियन एवं सेल्टिक शाखाओं के अलावा  भारत के बाहर यह प्रणाली समान रूप से भारोपीय भाषाओं की आठ शाखाओं में पायी जाती है। भारतीय-आर्य, टोकारियन और सेल्टिक शाखाओं में पाए जाने का कारण हम पहले ही तलाश चुके हैं कि ये शाखाएँ बास्क की विंशमलव पद्धति को  पहले से ग्रहण कर चुकी थी। भारतीय-आर्य शाखा में भी जिस एक भाषा में यह पद्धति मिलती है वह भाषा है - भारत भूमि के उत्तर से बाहर निकल चुकी साहित्यिक सिंहली भाषा। अब आइए हम भारोपीय परिवार की इन शाखाओं और साहित्यिक सिंहली भाषा के इन लक्षणों की तनिक तुलना कर के देखें।



दशमलव पद्धति के विकास की यह तीसरी अवस्था अपनी दूसरी अवस्था से पूरी तरह रूपांतरित हो गयी थी। इस बात को यदि ठीक-ठीक समझना है तो हम इस बात पर अपना ध्यान केंद्रित करें कि ११ और १२  की संख्यायों  के लिए संस्कृत भाषा में कैसे शब्द-रूप हैं और इन  संख्यायों के लिए बाक़ी भारोपीय भाषाओं या द्रविड़ भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों का रूप क्या है।


हम यहाँ स्पष्ट तौर पर यह देखते हैं कि संस्कृत में ११ और १२ के लिए शब्दों का रूप सीधे-सीधे क्रमशः ‘एक और दस’ तथा ‘दो और दस’ के शब्दों का संयोजन है।  आगे भी लगभग यहीं क्रम रहता है। जैसे, एक (१) + विंश (२०) = एकविंश (२१)।

दूसरी ओर, ऊपर की सारणी में यदि हम ध्यान दें तो संस्कृत के अलावा बाक़ी सभी भाषाओं में ११ और १२ के लिए बिलकुल स्वतंत्र शब्द हैं जिनमें उनके अवयव अंकों १, २ और १० के लिए बने शब्दों का कोई योगदान नहीं है।  कहने का सरलार्थ यह है कि संस्कृत के शब्दों (एकादश और द्वादश) में हम १, २ और १० की उपस्थिति आराम से ढूँढ सकते हैं लेकिन अन्य भारोपीय और द्रविड़ भाषाओं में यह सुविधा हमें नहीं मिलेगी।

साथ ही, संस्कृत, दूसरे चरण की बोलचाल की सिंहली भाषा, टोकारियन बी, और विकास के चौथे चरण की भारतीय-आर्य भाषाओं के अलावा अन्य सभी भारोपीय भाषाओं एवं द्रविड़ परिवार की भाषाओं में भी एक बात समान रूप से पायी जाती है।  बाद की संख्याओं (२१-२९, ३१-३९, ४१-४९, ५१-५९, ६१-६९, ७१-७९, ८१-८९ और ९१-९९) के लिए शब्दों के गठन की प्रक्रिया अत्यंत नियमित  शैली में एक वैज्ञानिक तरीक़े से है। उनका यह स्वरूप ११-१९ की शब्द-शैली से बिलकुल अलग है।


11 comments:

  1. सलाम आपकी मेहनत और लगन के लिये।

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    1. जी, बहुत आभार आपके उत्साहवर्द्धन का।

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  2. दशमलव के बिना संभवतः गणित की सभी इकाइयाँ अधूरी रह जाती। उसकी उत्पति का वैदिक वांगमय से इतना गहरा संबंध हम भारत वंशियों के लिए गर्व का विषय है। दशमलव के विकास की चार अवस्थाओं के बारे में पहली विस्तार से जाना। पर इसके विकास की पहली अवस्था का भारोपीय भाषाओं में ना पाया जाना हैरान करता है। फिर भी भारत की इस अतुलनीय देन का विश्व ने सदैव स्वागत किया है। बहुत- बहुत ज्ञानवर्धन करते इस लेख;के लिए कोटि आभार और नमन 🙏🙏

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    1. जी, बहुत आभार आपके सुंदर शब्दों का!!!

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (20-12-2020) को   "जीवन का अनमोल उपहार"  (चर्चा अंक- 3921)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  4. नमस्कार व‍िश्वमोहन जी, दशमलव पद्धति पर इतना व‍िस्तार से बताता ये लेख हमारे ल‍िए क‍िसी खजाने से कम नहीं...और तमाम व्यस्तताओं के बाद भी हम आपके प्रयास के वशीभूत होकर अपनी जड़ों से पर‍िच‍ित होते जा रहे हैं....बहुत खूब...

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    1. आपकी ये सुंदर बातें हमारा उत्साह बढ़ाती हैं।🙏🙏

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  5. आपकी महनत, लगन और इतना दुष्कर प्रयास ज़रूर आपबी सभ्यता, संस्कृति और समाज के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार कर रही है एक ही मंच पर ... संख्या और दशमलव पर इतनी सिस्त्रत चर्चा पहले कहीं नहीं देखि ... आपका आभार और शुभकामनायें हैं ...

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    1. जी, बहुत आभार आपकी उत्साहवर्द्धक बातों का।

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  6. कुछ घरेलु व्यस्तता के कारण इन दिनों ब्लॉग पर सक्रियता बहुत कम हो गई है,इसी वजह से आपका ये अनमोल आलेख पढ़ने से वंचित रह जाती हूँ,आपकी ये ज्ञानवर्धक बेशकीमती धरोहर जब भी वक़्त मिलेगा जरूर पढूँगी,ईश्वर आपको ये श्रमसाध्य लेख पूरा करने में सदैव सहायता करें यही कामना करती हूँ,सादर नमस्कार

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    1. जी, आपके प्रोत्साहन से ही यह धारावाहिक आगे बढ़ रहा है। अत्यंत आभार। फ़िलहाल आप अपने स्वास्थ्य-लाभ पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें। शुभकामनाएँ!!!

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