दिन के कोने में दुबकी संझा
पोत देती है काजल
मुंह पर समय के,
और ओढ़ लेता है वह,
चादर काली रात की।
उधर उस ओर उषा भी
मल देती है सिंदूर
क्षितिज के आनन पर।
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फिर चढ़ जाता है
आवरण आलोक का।
भला देख पाता कोई?
कि रात- दिन,
अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को
उतारता-पहनता वक़्त,
अंदर से कितना नंगा होगा
हमारे अकेलेपन की तरह!