Wednesday, 11 August 2021

अकेलेपन

 दिन के कोने में दुबकी संझा

पोत देती है काजल 

मुंह पर समय के,

और ओढ़ लेता है वह,

चादर काली रात की।

उधर उस ओर उषा भी

मल देती है सिंदूर

 क्षितिज के आनन पर।

............      ..........


फिर चढ़ जाता है

आवरण आलोक का।

भला देख पाता कोई?

कि रात- दिन, 

अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को 

उतारता-पहनता वक़्त,

अंदर से कितना नंगा होगा

हमारे अकेलेपन की तरह!

34 comments:

  1. सुंदर बिंबों से सजी गहन अभिव्यक्ति।
    ज़िंदगी का सच यही है।
    -----
    ज़िंदगी नीम तो कभी है स्वाद में करेला
    समय की चाल में हर घड़ी नया झमेला
    दुनिया की भीड़ में अपनों का हाथ थामे
    चला जा रहा बेआवाज़,आदमी अकेला।
    -----
    जी प्रणाम विश्वमोहन जी
    सादर।

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    1. जी, इतनी सुंदर काव्यात्मक टिप्पणी का आभार।

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  2. अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को

    उतारता-पहनता वक़्त,

    अंदर से कितना नंगा होगा

    हमारे अकेलेपन की तरह!

    वाह !! बहुत खूब.... कवि की कल्पनाओं की हद नहीं.... ,सादर नमन आपको

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  3. समय के शाश्वत चरित्र का बखूबी आकलन करती सार्थक पँक्तियाँ आदरणीय विश्वमोहन जी। इंसान और समय में अंतर केवल इतना है कि इंसान का एकाकीपन जाहिर हो जाता है पर समय का आवरणहीन होना कोई कहाँ देख पाता है !!सादर 🙏🙏

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    1. बहुत सुंदर। जी, अत्यंत आभार।

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  4. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय

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  5. जी, अत्यंत आभार।

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  6. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (12-08-2021 ) को धरती पर पानी ही पानी (चर्चा अंक 4144) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. जी, अत्यंत आभार। एक बार रचना के प्रकाशित हो जाने के बाद वह पाठकों की संपत्ति बन जाती है। रचनाकार को न आपत्ति का कोई अधिकार रहता और न ही उस आपत्ति का कोई अर्थ।

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  7. बहुत सुंदर और यथार्थपूर्ण चित्रण, आपके गहन अवलोकन को हार्दिक नमन।

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  8. अद्भुत सृजन आ0

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  9. Starkness, be it of nature, time or emotions is potent, incisive and hard hitting. It needs to be garbed and swathed to become more palatable.
    Well expressed ,Mr Vishwamohan.

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  10. जिंदगी की सच्चाई व्यक्त करती सुंदर रचना।

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  11. हमारे अकेलेपन की नंगई और उजाले अंधेरे की लिबास संग वक्त....क्षितिज के आनन पर उषा का सिन्दूर... समय के मुँह पर संझा की काजल.....
    वाह!!!
    अद्भुत एवं मनमोहक लाजवाब सृजन।

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    1. जी, अत्यंत आभार आपके सुंदर शब्दों का।

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  12. काल क्या से क्या दिखा देता हैं, सब कुछ उतार देता है।

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  13. मेरे ब्लॉग पर मेरी एक पुरानी कविता है -
    अकेलेपन की
    दीवारों को टटोलती,
    तुम्हे खोजती हूँ ....
    मुझे लगता है कि अकेलापन जरूरी है। यही अकेलापन कवियों की कविताओं का स्त्रोत है और यही अकेलापन कभी स्वयं की,कभी किसी प्रेमीजन की, कभी ईश्वर की खोज को बाध्य करता है।
    सीमित शब्दों में एक सारगर्भित, भावपूर्ण रचना का सृजन हुआ है।
    अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को
    उतारता-पहनता वक़्त..... सचमुच वक्त बेहद अकेला और अंतर्मुखी होता होगा, तभी तो लोग अपनी हर मुसीबत, हर तकलीफ का इल्जाम वक्त पर मढ़ते रहते हैं और वक्त है कि करवटें बदलता रहता है....

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    1. सघन अनुभूतियों से परिपूर्ण इस आत्मीय आकलन का अत्यंत आभार

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  14. बेहद खूबसूरत रचना।

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  15. वक़्त हमेशा ही अकेला रेः है और रहता है ... उसे देखना भी शायद सम्भव नहीं होता ... देखने वाला मगन हो जाता है काल के सामने ... गहरा सत्य ...

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  16. उत्कृष्ट बिंबो से अलंकृत व्यवहारिक कविता।
    सादर।

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  17. इसी अकेलेपन में तो सारा अस्तित्व खो जाना चाहता है ...आयास साध्य सा....

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  18. बहुत ही उम्दा रचना आदरणीय सर!

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