दिन के कोने में दुबकी संझा
पोत देती है काजल
मुंह पर समय के,
और ओढ़ लेता है वह,
चादर काली रात की।
उधर उस ओर उषा भी
मल देती है सिंदूर
क्षितिज के आनन पर।
............ ..........
फिर चढ़ जाता है
आवरण आलोक का।
भला देख पाता कोई?
कि रात- दिन,
अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को
उतारता-पहनता वक़्त,
अंदर से कितना नंगा होगा
हमारे अकेलेपन की तरह!
सुंदर बिंबों से सजी गहन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteज़िंदगी का सच यही है।
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ज़िंदगी नीम तो कभी है स्वाद में करेला
समय की चाल में हर घड़ी नया झमेला
दुनिया की भीड़ में अपनों का हाथ थामे
चला जा रहा बेआवाज़,आदमी अकेला।
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जी प्रणाम विश्वमोहन जी
सादर।
जी, इतनी सुंदर काव्यात्मक टिप्पणी का आभार।
Deleteअंधेरे-उजाले के वस्त्रों को
ReplyDeleteउतारता-पहनता वक़्त,
अंदर से कितना नंगा होगा
हमारे अकेलेपन की तरह!
वाह !! बहुत खूब.... कवि की कल्पनाओं की हद नहीं.... ,सादर नमन आपको
आभार आपके आशीष का।
Deleteसमय के शाश्वत चरित्र का बखूबी आकलन करती सार्थक पँक्तियाँ आदरणीय विश्वमोहन जी। इंसान और समय में अंतर केवल इतना है कि इंसान का एकाकीपन जाहिर हो जाता है पर समय का आवरणहीन होना कोई कहाँ देख पाता है !!सादर 🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर। जी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (12-08-2021 ) को धरती पर पानी ही पानी (चर्चा अंक 4144) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
जी, अत्यंत आभार। एक बार रचना के प्रकाशित हो जाने के बाद वह पाठकों की संपत्ति बन जाती है। रचनाकार को न आपत्ति का कोई अधिकार रहता और न ही उस आपत्ति का कोई अर्थ।
Deleteबहुत सुंदर और यथार्थपूर्ण चित्रण, आपके गहन अवलोकन को हार्दिक नमन।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteअद्भुत सृजन आ0
ReplyDeleteजी, हार्दिक आभार।
DeleteStarkness, be it of nature, time or emotions is potent, incisive and hard hitting. It needs to be garbed and swathed to become more palatable.
ReplyDeleteWell expressed ,Mr Vishwamohan.
जी, हार्दिक आभार।
Deleteजिंदगी की सच्चाई व्यक्त करती सुंदर रचना।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteहमारे अकेलेपन की नंगई और उजाले अंधेरे की लिबास संग वक्त....क्षितिज के आनन पर उषा का सिन्दूर... समय के मुँह पर संझा की काजल.....
ReplyDeleteवाह!!!
अद्भुत एवं मनमोहक लाजवाब सृजन।
जी, अत्यंत आभार आपके सुंदर शब्दों का।
Deleteकाल क्या से क्या दिखा देता हैं, सब कुछ उतार देता है।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteमेरे ब्लॉग पर मेरी एक पुरानी कविता है -
ReplyDeleteअकेलेपन की
दीवारों को टटोलती,
तुम्हे खोजती हूँ ....
मुझे लगता है कि अकेलापन जरूरी है। यही अकेलापन कवियों की कविताओं का स्त्रोत है और यही अकेलापन कभी स्वयं की,कभी किसी प्रेमीजन की, कभी ईश्वर की खोज को बाध्य करता है।
सीमित शब्दों में एक सारगर्भित, भावपूर्ण रचना का सृजन हुआ है।
अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को
उतारता-पहनता वक़्त..... सचमुच वक्त बेहद अकेला और अंतर्मुखी होता होगा, तभी तो लोग अपनी हर मुसीबत, हर तकलीफ का इल्जाम वक्त पर मढ़ते रहते हैं और वक्त है कि करवटें बदलता रहता है....
सघन अनुभूतियों से परिपूर्ण इस आत्मीय आकलन का अत्यंत आभार
Deleteबेहद खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteवक़्त हमेशा ही अकेला रेः है और रहता है ... उसे देखना भी शायद सम्भव नहीं होता ... देखने वाला मगन हो जाता है काल के सामने ... गहरा सत्य ...
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteउत्कृष्ट बिंबो से अलंकृत व्यवहारिक कविता।
ReplyDeleteसादर।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteइसी अकेलेपन में तो सारा अस्तित्व खो जाना चाहता है ...आयास साध्य सा....
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteबहुत ही उम्दा रचना आदरणीय सर!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
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