Thursday, 16 September 2021

हठी लिप्सा

शब्दों से कंगाल हुआ मैं, 

और भाषा भी रूठ गयी।

काल-कवलित भई भाव-लतिका, 

वाणी मेरी टूट गयी।


टूट-टूट कर छूटे तारे,

चाँद हठीला रूठ गया।

शस्य-श्यामला सूखी-सिमटी,

विश्व-विटप ये ठूँठ भया।


अंतर्मन के आसमान में,

आराजक-सा शोर हुआ।

विघटन में विचारों के,

अंतर्द्वंद्व घनघोर हुआ।


घुट-घुट कर मेरा ‘मैं’ ही,

मैं से मेरे दूर हुआ।

‘अहंकार में चूर’ मेरा ‘मैं’, 

क्षत-विक्षत ‘चकनाचूर’ हुआ।


घटाटोप घनघोर अंधेरा,

विरसता की छाया है।

अब जाके इस जड़ ‘विश्व’ का,

खेल समझ में आया है।


नहीं रुकना है यहाँ किसी को,

जो आया, उसे जाना है।

ठहरने की हठी यह लिप्सा,

मन को बस भरमाना है।


Sunday, 5 September 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२६

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२६
(भाग – २५ से आगे)

श्री तलगेरी जी के शोध प्रबंध से हमें ऋग्वेद के भिन्न-भिन साहित्यिक एवं भाषिक पहलुओं के साथ इससे जुड़े अन्य अनेक महत्वपूर्ण आयामों का विस्तृत परिचय मिलता है और इससे हमें  अपनी एक स्वतंत्र राय विकसित  करने की दिशा में भी पर्याप्त खुराक मिल जाती है। हमने प्रारम्भ में सरस्वती की चर्चा भी की थी। हमने मूलर  के इस विचार को भी पढ़ा कि सरस्वती आज के अफ़ग़ानिस्तान में बहने वाली हेलमंड नदी है। हमने यह संकेत भी दिया था कि इस लेख के क्रमिक विकास  में हम सरस्वती पर विस्तार से चर्चा  करेंगे। किंतु, सरस्वती के प्रसंग का श्री गणेश करने के पूर्व हम थोड़ा-सा विराम लेकर पहले वैदिक वांगमय के स्वरूप का परिचय ले लेते हैं। अर्थात, वैदिक वांगमय या वैदिक साहित्य कहने से हमारा क्या अभिप्राय है और इस साहित्य का आकार एवं विस्तार कहाँ तक है। वैदिक साहित्य का अर्थ क्या केवल ऋग्वेद ही है या इससे इतर भी कुछ और रचनाएँ हैं। वे अन्य रचनाएँ कौन सी हैं जो वैदिक वांगमय की आकाशगंगा को अपनी ज्योति से आलोकित करती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऋग्वेद इसमें से सबसे प्राचीन और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सच कहें तो वैदिक साहित्य का विस्तार ऋग्वेद के काल से लेकर बौद्ध-साहित्य रचे जाने के पहले के थोड़े समय के शून्यता-काल के पहले तक   का था। या यूँ कह लें कि भाषा के स्तर पर यह वैदिक संस्कृत से प्रारम्भ होकर उस रचनात्मक शून्यता वाले  मध्यांतर की अवधि  के प्रारम्भ तक चली आती है जिसके  बाँये सिरे पर लौकिक संस्कृत और दाहिने सिरे पर पाली भाषा है। रचनाओं में लौकिक संस्कृत के क्षीण होने से लेकर पाली भाषा के उदय होने तक के मध्यांतर में आश्चर्यजनक  रूप से साहित्य-सृजन  के क्षेत्र में एक अप्रत्याशित सूखा-सा  दिखाई देता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि भाषा के  लोकोन्मुखी होने के इंतज़ार में रचनात्मक भावों ने विश्राम ले लिया हो  और सृजन की धारा थम-सी गयी। या,  फिर जन-मानस उपनिषद के गूढ़ दर्शन को समझते-समझते ऊब-सा गया था और पुराणों के तथाकथित प्रपंच के प्रबल ताप में तपता वह  अब आध्यात्मिक  जटिलता से निकलकर जीवन के दुःख से मुक्ति पाने की  किसी सरलतर युक्ति की आस लगाए बैठा था। उसकी यह प्यास आम बोली की भाषा पाली में बौद्ध साहित्य ने बुझायी होगी । यह परंपरा प्राकृत में जैन साहित्य में अनवरत बनी रही। लेकिन एक बात तो तय है कि आगे के काल में यहाँ तक कि आज तक भी जो साहित्य रचे गए या रचे जा रहे हैं, उनकी भाषा, शैली, शिल्प या अन्य बाहरी आवरण जो भी हो, उनमें से अधिकांश का बीज  कहीं न कहीं वैदिक साहित्य में पड़ा हुआ है। चाहे आधुनिक काल में  दिनकर की ज्ञानपीठ अलंकृत कृति ‘उर्वशी’ हो या स्वर्ण-काल के कालिदास का नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम’, इनकी प्रेरणा  का गोमुख तो ऋग्वेद के दशम मंडल का ‘पुरुरवा -उर्वशी-संवाद’ ही है। और तो और, परवर्ती कालों में भी आज तक हम  इस वैदिक साहित्य से बड़ी  कोई रेखा नहीं खींच  पाए। न ही, इन साहित्य में गुँजित छंदों से आगे बढ़ पाए, न कोई नया वैज्ञानिक व्याकरण गढ़ पाए, न किसी नए वेदांत-दर्शन की रचना कर पाए और न  अपनी और अपनी नयी पीढ़ी के  हारे एवं थकित मन को गीता के अध्यात्म से बड़ी कोई मनोवैज्ञानिक कुंजी  ही  सौंप पाए। सच कहें,  तो  अपने पूरे वैदिक साहित्य को समझने की बात तो दूर,  उसे अभी तक हम भली-भाँति निरख भी नहीं  पाए हैं। जितनी बार देखते हैं उतने ही नवीन रूप में वह हमारे  सामने खड़ा हो जाता  है। जितना समझते हैं, उतना ही उसकी अनुभूति मात्र हमारे ज्ञान को लजा देती है, हम उसकी बातों में विश्वास करने के बजाय उसे जानने और अनुभव करने लगते  हैं। 

 ऋग्वेद जो आज यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल है से प्रारम्भ होकर  यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत,  ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, सूत्र-साहित्य  होती हुई पुराणों में विस्तार पाने वाली वैदिक साहित्य की  अमृत-धारा ने न केवल भारतीय वांगमय अपितु समस्त विश्व-मानस को प्रक्षालित किया है। आगे भी,  इन साहित्यिक रचनाओं पर लिखी गयी टीकाओं को भी उन्ही की परम्परा में यदि डाल लें तो इसका विस्तार काफ़ी आगे तक हो आता है।  यास्क, सायण, गौड़पदाचार्य, शंकराचार्य, स्कंदगुप्त आदि के  द्वारा अपने भाष्यों  में वैदिक साहित्य को समझने हेतु जो अद्भुत रचनात्मक उद्यम किया गया, उसे भला इस उदात्त वैदिक परम्परा से अलग कर के हम कैसे देख सकते हैं। वेदों के बारे में एक और बड़ा सत्य यह है कि अपौरुषेय माने जाने वाले ये ग्रंथ व्यास के द्वारा लिखित नहीं अपितु संकलित हैं। अर्थात मूल रूप से इनकी रचना कब हुई ये तो अनवरत शोध का विषय रहा है और विज्ञान का जैसे-जैसे  विकास होगा वैसे- वैसे शोध की इस गति को और बल तथा सार्थक दिशा मिलेगी। इसके हल की कुंजी अब विज्ञान और इतिहास  तथा साहित्य के मूल्यांकन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के हाथों में ही है, न कि मूलर  और इस धरती के अन्य कथावाचक इतिहासकारों के हाथ में। हाँ, मूलर  के प्रति इस बात के लिये  आभार नहीं प्रकट करना हमारी कृतघ्नता अवश्य होगी कि उन्होंने सारे संसार की दृष्टि और ध्यान इस साहित्य की ओर खींचा। 
हमने वेदों के संकलन की बात इसलिए कही कि यदि मूल रूप में कोई पुस्तक अपने सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध होती है तो उसके पहले शब्द से अंतिम शब्द तक  पढ़ने के बाद हमें  पुस्तक की कथावस्तु के साथ-साथ लेखक का उद्देश्य और उस पुस्तक की रचना से जुड़े तमाम पहलुओं की सीधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन यहाँ समस्या बहुरूपी है। एक तो ये अपौरुषेय-ग्रंथ काल और स्थान के अलग-अलग खंडों में अलग-अलग ऋषियों या ऋषि-कुल द्वारा अनुभव किए गए, सुने गए, वाचे गए और श्रुति परम्परा द्वारा आगे के कुलों या पीढ़ियों में संचारित किए गए। इसलिए उनके जो भाग ईश्वरीय शक्ति की अर्चना-उपासना के प्रति समर्पित थे, उनमें किसी ने कोई जोड़-तोड़ या छेड़-छाड़ नहीं की। परिणामतः, यह हमारा परम सौभाग्य रहा कि ये वैदिक ऋचाएँ अपने शुद्धतम स्वरूप में हमारे समक्ष ज्यों-की-त्यों आज उपस्थित हैं। ये मंत्र ऋषि-मुनियों  के मन से नि:सृत  होकर अपनी वाचिक परम्परा में ही आज हमारी पीढ़ी को हाथ लगे। इसलिए इनके लिखित रूप में लिए जाने तक इन्हें नालंदा विश्वविद्यालय की पुस्तकों  के समान किसी बख़्तियार ख़िलजी से जलाकर नष्ट किये  जाने की त्रासदी से नहीं  गुज़रना पड़ा। अत: उस रूप में  महज़ साहित्य न होकर  ये हमारे मूल्य और हमारी परंपराएँ ज़्यादा हैं या यूँ कहें कि हमारी आध्यात्मिक चेतना  हैं,  जिनके लिए इसी साहित्य की ये पंक्तियाँ सार्थक होती हैं :
“नैनं छिन्दंति शस्त्राणि , नैनं दहती पावक:।
न च एनं क्लेदयंति आप:, न शोषयति मारूत:।।“
दूसरी बात यह,  कि संकलन-कर्ता  भी मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति न होकर उसकी परम्परा के अन्य कई किरदार हैं। यह सही है कि कृष्ण-द्वैपायन व्यास ने इसके  संकलन के श्री गणेश का बीड़ा उठाया होगा। किंतु जिस दीर्घ काल तक इसके संकलन का आभास मिलता है, उससे तो यही लगता है कि  आगे का काम उस परम्परा में व्यास की गद्दी सम्भालने वाले अन्य व्यासों ने किया होगा। आज भी बिहार-उत्तर प्रदेश समेत भारत  के बड़े भूभाग में आध्यात्मिक प्रवचन, धार्मिक भजन-कीर्तन और उपासना मंडलियों के मुख्य आचार्य को ‘व्यास’ ही कहा जाता है जो इस परम्परा के जीवित होने के प्रमाण के रुप में देखा जा सकता है। हमें  नहीं लगता कि इस तरह की परम्परा पश्चिमोतर एशिया, दक्षिणी रूस या यूरोप के अन्य भागों में कहीं क्षीण अवशेष रूप में भी विद्यमान  है जहाँ  से इन व्यासों (आर्यों) के आगमन की बात कही जाती है। ऐसी ही बात व्यास के साथ-साथ अन्य आचार्यों यथा- गृत्समद, विश्वामित्र,  वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ, अंगिरा, कण्व, भृगु सरीखे अन्य ऋषियों के साथ भी रही होगी जिनकी एक गुरुकुल या गोत्र परम्परा रही होगी और उस परम्परा का मुख्य आचार्य उस आदि ऋषि के नाम से जाना जाता होगा। प्रत्येक गुरुकुल अपने आचार्य के नेतृत्व में अधिदैहिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक अनुसंधान में रत रहता था  और एक साझे दार्शनिक अनुभवों के माध्यम से जुड़ा रहता था। आचार्य ऋषि अपनी अंतर्दृष्टि से न केवल अपने बाह्य का साक्षात्कार (see)  करता था, बल्कि उसे प्रकट रूप में सूक्ष्मातिसूक्ष्म  स्तर पर अनुभव (realize) भी करता था। ये अनुभूतियाँ  अपौरुषेय ऋचाओं की स्वर लहरियाँ बन उनके कानों में गूँजती थी और वे तन्मय  होकर इसका श्रवण करते थे। ऋचाओं को सुनने के कारण वे ‘ऋषि’ कहलाए। उन्होंने वाचिक परम्परा में इसे अपने शिष्यों को सुनाया और श्रुति (सुनने) के द्वारा शिष्यों ने इसे संरक्षित कर आगे संचरित किया। आध्यात्मिक अनुसंधान (यज्ञ) की यह परम्परा भिन्न-भिन्न ऋषि-कुलों का संस्थागत संस्कार था। इस तरह से अलग-अलग गुरुकुलों ने अलग-अलग मंडलों की रचना की जिसका बाद में संकलन व्यास के गुरुकुल ने किया। समूचा वैदिक साहित्य इस दर्शन का अटूट प्रमाण है कि इस सृष्टि का प्रत्येक तंतु आपस में, अपने पूर्वजों से और अपने सृजन के कारण से  अपने पदार्थीय अस्तित्व, ऊर्जा, आत्मिक स्पंदन और चैतन्य  अनुभूतियों के स्तर पर अविछिन्न रूप से जुड़ा  हुआ है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी कार्ल जंग का ‘सामूहिक अवचेतन सिद्धांत ( collective unconscious theory)’ इसी वैदिक दर्शन का मनुष्यों पर सीमित सिद्धांत है। आधुनिक भौतिकी में भी यह बात अब प्रमाणित होने लगी है कि एक ही स्त्रोत से निकली वस्तुओं में एक घनिष्ट आवृति मूलक तादात्म्य  होता है। 
                                                                                                                        क्रमशः .................

Wednesday, 1 September 2021

बादल बरसे

लहर की प्यास बढ़ी,
वह रेत को पी गयी।
 
देह की ऊष्मा बढ़ी,
सूरज को तपा दिया।
 
मन शीतल हुआ,
बरफ जम गयी।
 
कामनाएं दहकी,
रात पिघलने लगी।
 
साँसे टकराई,
आँधी आ गयी।
 
नशा छाया,
कस्तूरी-सी काया।
 
अंगालिंगन तरसे,
बादल बरसे।