शब्दों से कंगाल हुआ मैं,
और भाषा भी रूठ गयी।
काल-कवलित भई भाव-लतिका,
वाणी मेरी टूट गयी।
टूट-टूट कर छूटे तारे,
चाँद हठीला रूठ गया।
शस्य-श्यामला सूखी-सिमटी,
विश्व-विटप ये ठूँठ भया।
अंतर्मन के आसमान में,
आराजक-सा शोर हुआ।
विघटन में विचारों के,
अंतर्द्वंद्व घनघोर हुआ।
घुट-घुट कर मेरा ‘मैं’ ही,
मैं से मेरे दूर हुआ।
‘अहंकार में चूर’ मेरा ‘मैं’,
क्षत-विक्षत ‘चकनाचूर’ हुआ।
घटाटोप घनघोर अंधेरा,
विरसता की छाया है।
अब जाके इस जड़ ‘विश्व’ का,
खेल समझ में आया है।
नहीं रुकना है यहाँ किसी को,
जो आया, उसे जाना है।
ठहरने की हठी यह लिप्सा,
मन को बस भरमाना है।
मन का यही भरम ही तो
ReplyDeleteजीवन से मोह का कारण है
लिप्सा की "मैं" का कोलाहल
अंतर्मन के मौन का कारण है।
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अध्यात्मिक भाव लिए अत्यंत प्रभावशाली जीवन दर्शन।
शब्द शिल्प अत्यंत सुंदर है।
प्रणाम
सादर।
वाह! बहुत मोहक काव्यात्मक प्रतिक्रिया! अत्यंत आभार।
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (17-09-2021) को "लीक पर वे चलें" (चर्चा अंक- 4190) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
न जाने कैसी लिप्सा है जो ये न समझ पाए कि हर एक को एक दिन जाना है । सुंदर संदेश देती रचना
ReplyDeleteवाह👌
ReplyDeleteसत्य जान कर भी हठी हठ ... जैसे लिप्सा ही जीजिविषा हो । अति सुन्दर कृति ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ सितंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
अदभुद
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteठहरने की हठी यह लिप्सा,
ReplyDeleteमन को बस भरमाना है।
–इस भ्रम में जीते-जीते स्वयं से दूर होते चले जाते हैं
सुन्दर लेखन
जी, अत्यंत आभार।
Deleteगहरे सच और उनकी परतों को खोलती हुई रचना...। बहुत खूब...।
ReplyDeleteदार्शिनिक अंदाज ..
ReplyDeleteघुट-घुट कर मेरा ‘मैं’ ही,
मैं से मेरे दूर हुआ।
‘अहंकार में चूर’ मेरा ‘मैं’
बहुत सुंदर शब्द रूप।
शुभकामनाएँ
अहंकार,आसक्ति...किसके लिए,कब तक...यक्ष प्रश्न!!
ReplyDeleteविचार करने को बाध्य करती सुंदर रचना.👌👌
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteवाह!बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन।
ReplyDeleteसादर
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत बहुत श्लाघनीय , मन मोहक रचना |ह्रदय से शुभ कामनाएं |
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteदार्शनिकता से भरी हुई उत्तम मनमोहक रचना।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteसुंदर मनमोहक रचना।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteविचारों का घोर अंतरद्वंद्व जब अहंकार रूपी मैं को चकनाचूर करता है तब समझ आता है जीवन मरण का रहस्य
ReplyDeleteनहीं रुकना है यहाँ किसी को,
जो आया, उसे जाना है।
ठहरने की हठी यह लिप्सा,
मन को बस भरमाना है।
दार्शनिक भाव लिए बहुत ही सार्थक एवं लाजवाब सृजन
वाह!!!
सुन्दर यथार्थ सत्य।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
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ReplyDeleteघुट-घुट कर मेरा ‘मैं’ ही,
मैं से मेरे दूर हुआ।
‘अहंकार में चूर’ मेरा ‘मैं’,
क्षत-विक्षत ‘चकनाचूर’ हुआ।...जीवन के जाल में उलझा "मैं" का सटीक चित्रण ।
अंतर्मन के आसमान में,
ReplyDeleteआराजक-सा शोर हुआ।
विघटन में विचारों के,
अंतर्द्वंद्व घनघोर हुआ।
बहुत ही उम्दा और सरहानीय रचना आदरणीय सर!
सुंदर, सार्थक रचना !........
ReplyDeleteब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जीवन में यदा-कदा उपजे नैराश्य भाव के कारण उपजी दार्शनिकता में इन्सान को व्यर्थ ही पनपी हठीली लिप्सा का बोध होता है। इसी दशा में मानव अस्थाई बुद्धत्व की ओर अग्रसर होता है। इसी दशा को बड़ी सुघड़ता से रचना में उकेरा गया है। एक सार्थक रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई🙏🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
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