Thursday, 16 September 2021

हठी लिप्सा

शब्दों से कंगाल हुआ मैं, 

और भाषा भी रूठ गयी।

काल-कवलित भई भाव-लतिका, 

वाणी मेरी टूट गयी।


टूट-टूट कर छूटे तारे,

चाँद हठीला रूठ गया।

शस्य-श्यामला सूखी-सिमटी,

विश्व-विटप ये ठूँठ भया।


अंतर्मन के आसमान में,

आराजक-सा शोर हुआ।

विघटन में विचारों के,

अंतर्द्वंद्व घनघोर हुआ।


घुट-घुट कर मेरा ‘मैं’ ही,

मैं से मेरे दूर हुआ।

‘अहंकार में चूर’ मेरा ‘मैं’, 

क्षत-विक्षत ‘चकनाचूर’ हुआ।


घटाटोप घनघोर अंधेरा,

विरसता की छाया है।

अब जाके इस जड़ ‘विश्व’ का,

खेल समझ में आया है।


नहीं रुकना है यहाँ किसी को,

जो आया, उसे जाना है।

ठहरने की हठी यह लिप्सा,

मन को बस भरमाना है।


32 comments:

  1. मन का यही भरम ही तो
    जीवन से मोह का कारण है
    लिप्सा की "मैं" का कोलाहल
    अंतर्मन के मौन का कारण है।
    -----
    अध्यात्मिक भाव लिए अत्यंत प्रभावशाली जीवन दर्शन।
    शब्द शिल्प अत्यंत सुंदर है।

    प्रणाम
    सादर।

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    1. वाह! बहुत मोहक काव्यात्मक प्रतिक्रिया! अत्यंत आभार।

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  2. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (17-09-2021) को "लीक पर वे चलें" (चर्चा अंक- 4190) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

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  3. न जाने कैसी लिप्सा है जो ये न समझ पाए कि हर एक को एक दिन जाना है । सुंदर संदेश देती रचना

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  4. सत्य जान कर भी हठी हठ ... जैसे लिप्सा ही जीजिविषा हो । अति सुन्दर कृति ।

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ सितंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  6. ठहरने की हठी यह लिप्सा,
    मन को बस भरमाना है।

    –इस भ्रम में जीते-जीते स्वयं से दूर होते चले जाते हैं
    सुन्दर लेखन

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  7. गहरे सच और उनकी परतों को खोलती हुई रचना...। बहुत खूब...।

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  8. दार्शिनिक अंदाज ..
    घुट-घुट कर मेरा ‘मैं’ ही,

    मैं से मेरे दूर हुआ।

    ‘अहंकार में चूर’ मेरा ‘मैं’
    बहुत सुंदर शब्द रूप।
    शुभकामनाएँ

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  9. अहंकार,आसक्ति...किसके लिए,कब तक...यक्ष प्रश्न!!
    विचार करने को बाध्य करती सुंदर रचना.👌👌

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  10. वाह!बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन।
    सादर

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  11. बहुत बहुत श्लाघनीय , मन मोहक रचना |ह्रदय से शुभ कामनाएं |

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  12. दार्शनिकता से भरी हुई उत्तम मनमोहक रचना।

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  13. सुंदर मनमोहक रचना।

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  14. विचारों का घोर अंतरद्वंद्व जब अहंकार रूपी मैं को चकनाचूर करता है तब समझ आता है जीवन मरण का रहस्य
    नहीं रुकना है यहाँ किसी को,
    जो आया, उसे जाना है।
    ठहरने की हठी यह लिप्सा,
    मन को बस भरमाना है।
    दार्शनिक भाव लिए बहुत ही सार्थक एवं लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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  15. सुन्दर यथार्थ सत्य।

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  16. घुट-घुट कर मेरा ‘मैं’ ही,

    मैं से मेरे दूर हुआ।

    ‘अहंकार में चूर’ मेरा ‘मैं’,

    क्षत-विक्षत ‘चकनाचूर’ हुआ।...जीवन के जाल में उलझा "मैं" का सटीक चित्रण ।

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  17. अंतर्मन के आसमान में,

    आराजक-सा शोर हुआ।

    विघटन में विचारों के,

    अंतर्द्वंद्व घनघोर हुआ।
    बहुत ही उम्दा और सरहानीय रचना आदरणीय सर!

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  18. सुंदर, सार्थक रचना !........
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  19. जीवन में यदा-कदा उपजे नैराश्य भाव के कारण उपजी दार्शनिकता में इन्सान को व्यर्थ ही पनपी हठीली लिप्सा का बोध होता है। इसी दशा में मानव अस्थाई बुद्धत्व की ओर अग्रसर होता है। इसी दशा को बड़ी सुघड़ता से रचना में उकेरा गया है। एक सार्थक रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई🙏🙏

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