(मित्र विजय ने अंडमान निकोबार से प्रकृति से अपने सीधे संपर्क की यह तस्वीर भेजी। उसी पर आधारित कविता।)
ऊपर वायु नीचे जल था,
मध्य स्वर्ण-सा विरल तरल था।
सागर स्थिर पारद-तल-सा,
प्रांतर में प्रातः का पल था।
पीत दुकूल बादल का ओढ़े
रवि का थाल चमकता था।
रजत वक्ष पर रश्मिरथी के
पहिये का पथ झलकता था।
द्यौ में दुबका सूरज ढुलका
अंतरिक्ष में अटका था।
वारिद के रग-रग में रक्त-सा
लाल रंग भी टटका था।
बाट जोहती सागर तीर पर,
सद्य:स्नात थी उषा भी।
विस्फारित अलकों में वनिता
प्रणय-पाग पी पूषा की।
प्रतिभास से पूर्ण पुरुष का,
चेतन धरती का अंचल था।
चित्रकला सी सजी प्रकृति,
प्रांतर में प्रातः का पल था।