सुर सरोवर में
मानस के,
जीव हंस-सा
हँसता है।
माया-मत्सर
पंकिल जग के,
मोह-पाश में
फँसता है।
लहकी लहरी
ललित लिप्सा-सी,
मन भरमन
भरमाया है।
लाल चमकता
गुदड़ी अंदर,
ऊपर से
भ्रम छाया है।
कंचन काया
काम की छाया
प्रेम सुधा
लहराती।
अभिसार की
मादक गंध
मकरंद मिलिंद
संग लाती।
किंतु बनती
जननी ज्योंही,
मनोयोग नारी
निष्काम-सा।
पर लोभी नर,
निरे चाम का,
नहीं जीव में
रमे राम का!
रत्ना रंजित
प्रीत की सीढ़ी
शरण सियावर
राम की।
बजरंगी
बलशाली बाँहें ,
तीरथ
तुलसी धाम की।
बड़े जतन से
मानुस तन-मन,
इस जीवन
जन पाया है।
चल मानुष तू
राम अटारी,
यह जग तो
बस माया है।