Friday, 30 December 2022

काल प्रवाह

साल यूँ  ही जब जाना तुझको,

क्यों हर साल चले आते हो।

साल-दर-साल सरक-सरक कर,

बरस -बरस  बरसा जाते हो।


नया बरस बस कहने का है,

धारा बन जस बहने का है।

आज नया, कल बन पुराना

काल-प्रवाह में दहने का है।


मौसम की फिर वही रीत है,

और जीवन का वही गीत है।

अवनी आलिंगन अंबर के,

सूरज पट और धरती चित है।


गोधूलि  में धूल-धूसरित-सा,

तेजहीन हो रवि विसरित-सा।

औंधे मुँह  सागर में गिरता,

फिर तिमिर से जग यह घिरता।


अर्द्धरात्रि के अंधियारे में,

एक साल काल का डूबता।

क्षण में दूर क्षितिज से उसके,

नये साल का सूरज उगता।


समय अनादि और अनंत है,

यहाँ  तो बस भ्रम की गिनती है।

साल! बनो न नए पुराने,

तुमसे यह ख़ालिस विनती है।



🙏🙏