Tuesday, 6 June 2023

शंकर सागर और यादों के दरीचे



१९८४ का साल। आई आई टी रूड़की तब का विख्यात रूड़की विश्वविद्यालय। अखिल भारतीय युवा महोत्सव ‘थोम्सो-८४’ का आयोजन। समूचे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों की युवा कला-प्रतिभाओं का विशाल जमघट। संस्कृति कर्मियों का अद्भुत समागम। नाटक, शास्त्रीय गायन, ग़ज़ल, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के अद्भुत कलाकारों की विलक्षण प्रस्तुति। युवा दर्शकों से खचाखच हॉल। शोरगुल से सराबोर फ़िज़ा। कोई मनचला सीटी बजा रहा है, कोई काग़ज़ का हवाई जहाज़ उड़ा रहा है। अचानक मंच से आवाज़ गूँजती है – ‘हम पटना विश्वविद्यालय से शंकर प्रसाद बोल रहे हैं।‘ माइक में घुसती नियंत्रित साँसों के हल्के झीने स्वर परिधान में लिपटी एक मीठी आवाज़ पूरे हॉल को अपनी चाशनी में ऐसे भिगो देती है कि पूरे प्रेक्षागृह में मानों वक़्त एकबारगी समूचे दर्शकों के साथ चकित-विस्मित-सा ठहर जाता है। सारा वातावरण स्तंभित! सन्नाटा! जो जहाँ जिस स्थिति में, उसी स्थिति में हतशून्य-सा! आवाज़ों के जादूगर से यह पहला परिचय था हमारा। तब मैं युवा महोत्सव की इस आयोजन समिति का संयोजक सदस्य था। पटना सायन्स कॉलेज से इंटर पास कर मैं  रूड़की में सिविल  इंजीनियरी का छात्र था। हम बिहारियों की आदत होती है कि  हर जगह विशेषकर बिहार के बाहर किसी भी मंच पर हम अपने को हमेशा अगुआ के रूप में देखना चाहते हैं। हमने विशेष प्रयास कर इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय को आमंत्रण भेजवाया था। शंकर प्रसाद के नेतृत्व में इस आयोजन में पटना विश्वविद्यालय की टीम ने जो जलवा बिखेरा वह अब एक स्वर्णिम इतिहास है। उनके शानदार प्रदर्शन ने हमारे अंदर के बिहारीपन के भाव को पूरी तरह संपुष्ट किया। आगे कई दिनों तक रूड़की का प्रांगण शंकर प्रसाद और उनकी टीम की गाथाओं से गुंजित होते रहा और हम आपने भाग्य को अनथक सराहते रहे।

शंकर सर से मुलाक़ात फिर कई दशकों के बाद  दूरदर्शन की साठवीं जयंती पर एक पैनल चर्चा में हुई। पीछे का पूराना दृश्य अचानक चलचित्र की तरह घूम गया। बिलकुल नहीं बदले थे शंकर सर! अदाओं की वहीं लटक, आवाज़ में वहीं खनक और व्यक्तित्व में वहीं मिठास! तबतक डुमराँव से पटना के बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका था। ज़िंदगी के अनेक दुरूह ऊबड़-खाबड़ को समतल बनाती  उपलब्धियों का विजय-केतन थामे उन्होंने एक ऐसे मुक़ाम को छू लिया था जो न केवल दर्शनीय ही था प्रत्युत बहुत लोगों के लिए ईर्ष्य भी था।

अल्पायु में ही यतीम हो गया एक  बालक अपने अदम्य संघर्ष बल और जीवट जिजीविषा से किस तरह जीवन के झंझावातों  को चीरता हुआ नवोंमेष  और सफलता का एक चमकता सूरज रोप लेता है अपनी अंगनाई में – यह सत्यकथा है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉक्टर शंकर  प्रसाद के जीवन-चरित की। इनके व्यक्तित्व को किस रूप में परिचय कराएँ आपसे – अभिनेता, प्रोफ़ेसर, प्रशासक, लेखक, उद्घोषक, संपादक, पत्रकार, गीतकार, फ़नकार, संगीतकार, नाट्य-कलाकार, ग़ज़लकार!!! इनके जीवन के आँगन में अनुभवों और उपलब्धियों की धूल जमती ही रही। जीवन पथ पर आनेवाले सभी तत्वों को इन्होंने बड़ी संजीदगी से समेटा। हर उपलब्धि इनके व्यक्तित्व में नम्रता का एक नया नगीना जड़ देती और इनका व्यक्तित्व और अधिक दमक उठता। भले ही, इन्होंने अध्यापन में अपना देहांतरण कर लिया हो, इनकी आत्मा कला और रेडियो में ही बसती रही। संगीत और नाटक इनके दिल में अहरनिश धड़कते रहे। लिखने को इनकी कलम कुलबुलाती रही। ग़ज़ल में इनका मन मचलता रहा। आवाज़ की माधुरी इनके होठों से अविरल झरती रही। इनका वैदुष्य पल-पल बिंबित होते रहा। इनकी वाग्मिता बहती रही। और, इनकी हर अदा पर माँ सरस्वती मुस्कुराती रही।

 शंकर की जटा से निकली गंगा की पतली धारा पर्वतीय उपत्यकाओं की बीहड़ता और दुर्गम  चट्टानों से  दो-दो हाथ करती, घाट- घाट को पानी पिलाती, विशाल भूभाग में पसरी परंपराओं, आर्यावर्त के अंगना के लोक मूल्यों, जीवन-संस्कृति, भू-संपदा और सभ्यताओं को अपने में समाहित करती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है। सच कहूँ, तो कुछ ऐसी ही फ़ितरत वाले हैं  संगीत नाटक अकादमी के भूतपूर्व अध्यक्ष और बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्तमान उपाध्यक्ष अपने  ‘शंकर-सागर’ भी!  ‘सजना के अंगना’ वाले शंकर की जटा से स्मृतियों की गंगा हहराती हुई फूटती है। यह जीवन की दुरूह पथरीली घाटियों में लहालोट होती है। चट्टानों और शिला-खंडों से टकराती-रगड़ाती है।  अपने अनुभवों के कांकड-पाथर समेटती है। घाट- घाट का स्पर्श करती है। रास्ते की माटी के कण- कण का स्वाद चखती है। हर मोड़ पर उठने वाली नयी तरंगों से निकले सुर ताल से अपने सरगम की लय साधती है। अंत में, अपने विश्राम की कला को उद्धत होती एक विशाल सागर का रूप ले लेती है।

स्मृतियों के लेखा के इस विशाल सागर में शंकर की लेखनी ने अपनी रोशनाई के अद्भुत वर्ण को बिखेरा है। इस स्मरणीय स्मृतिका को बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने चार खंडों में प्रकाशित किया है। ‘यादों के दरीचे’ पहला खंड है। शंकर के इस सरस सागर का श्री गणेश शंकर सागर की धुन पर ‘सजना के अंगना’ से होता है। इसी फ़िल्म से कला जगत में इस नायक, लेखक और संगीत के फ़नकार की बोहनी होती है। धीरे-धीरे ‘यादों के दरीचें’  में जीवन के इस सौंदर्य-उपासक के  संस्मरणों की सुरीली तान का जादुई वितान जब फैलना शुरू होता है, पाठक बरबस मुग्ध हो उठता है। उसकी तन्मयता का आलम तो यह है कि लेखक की सरल सरस बातचीत की शैली में बहता हुआ पाठक लेखक के बहुआयामी व्यक्तित्व के चित्र में यूँ रंग जाता है कि उसकी आँखें  एक साथ इस जादुई व्यक्तित्व में गायक, संगीतज्ञ, उद्घोषक, पत्रकार संपादक, लेखक, शायर, प्रशासक, अध्यापक, नाटककार, लोककर्मी, लोक संस्कृति का सूत्रधार और न जाने किन किन चमत्कृत आभाओं से चकाचौंध हो जाती हैं। लेखक का बहुआयामी व्यक्तित्व अत्यंत सशक्त रूप में पाठकों के समक्ष उभरकर आता है। समूचा वृतांत इतिवृतात्मक  और बातचीत की शैली में है। लेखक के कहने के ढब में एक कलाकार की कोमलता, एक बालक-सी सरलता, भारतीय आँचलिक जीवन का भोलापन, आत्मीयता का ठेठ गँवईपन, अभिव्यक्ति का टटकापन,  और जीवन समर की तपिश है। किस्सागोई के अद्भुत मीठे प्रवाह की गति में गुदगुदाती कहानियाँ पाठक को कभी हंसाती हैं, कभी रुलाती हैं और फिर अपने बतरस से बरबस ऐसे नहला जाती हैं कि पाठक को यह बतियाना छोड़ने का मन नहीं करता। समूची बातचीत में एक विस्तृत कालखंड का इतिहास बिखरा हुआ है।  लेखक के शब्दों में ही, “जब से होश संभाला यह अनुमान मुझे हो गया था कि मुझे बहुत कुछ मिलेगा इस संसार में। छोटी उम्र में ही वह सब कुछ होने लगा जिसकी उम्मीद वह बेटा तो नहीं कर सकता, जिसका पिता दो वर्ष की उम्र में ही चला गया। इसलिए यह आशा जाग उठी थी कि मुझे कुछ अलग होना ही चाहिए।“

लेखक ने अपनी स्मृतियों के लेखे-जोखे को चार सोपानों में बाँटा है- ‘माया नगरी की धूप-छाँह’, ‘डुमराँव की गलियों से लंबी उड़ान’, ‘आकाशवाणी से मंच और पत्रकारिता में चकाचौंध की ज़िंदगी’ तथा ‘सफ़र में डॉक्टर शंकर प्रसाद’। पाठक भी लेखक के साथ उसकी कथा-यात्रा में यूँ आगे बढ़ता चला जाता है, मानों कोई पक्षी किसी सीढ़ी पर फुदक-फुदक कर सोपान-दर-सोपान चढ़ता जा रहा हो और हर सोपान पर आगे ‘और कुछ’ पाने का आकर्षण उसमें फिर से फुदकने की ललक पैदा करते जा रहा हो! फ़िल्म ‘सजना के अंगना’ और इसके निर्देशक अकबर बालन के प्रसंग से कथा का श्री गणेश होता है। इस फ़िल्म के निर्माण में शंकर ‘प्रसाद’ शंकर ‘सागर’ बन जाते हैं और  इस सागर से समकालीन रंगीन दुनिया की तमाम धाराओं का मिलन होता है। उन सभी धाराओं का अपना अलग  राग, अलग ताल, अलग छंद और अलग उछाह है। फ़िल्मी दुनिया के कई नामचीन किरदार और उनकी ज़िंदगी के अनछुए प्रसंग बड़े रोचक ढंग से उभरते चले आते है। प्रसंगों को इतनी मिठास से पिरोया गया है कि पाठक को लगता है कि वह भारत के चित्रपट के इतिहास का चलचित्र ही देख रहा है।

‘’१ अगस्त १९३३ को दादर में मीना जी अली बख़्श के घर पैदा हुई - उनके पिता अली बख़्श पारसी थिएटर में काम करते थे और डान्सर थे।उनकी पत्नी इक़बाल बेगम थीं यानि मीना जी की माँ। बहुत छोटी उम्र में मीना जी ने काम करना शुरू किया- महजबी  नाम था उनका।……….अली बख़्श बहुत नाराज़ हुए क्योंकि कमाल अमरोही  की ऊम्र ५० वर्ष थी और मीना जी की ऊम्र १६ वर्ष ………………….     मोहब्बत ऊम्र नहीं देखती …………………  वह बूढ़े थे और उनको मीना जी पर भरोसा नहीं था ………… एक  दिन कमाल अमरोही  ने गुंडों को भेजकर धर्मेन्द्र जी पर हमला करवा दिया…….. उधर वहीदा जी बढ़ती गयीं और गुरुदत्त बिखरते गए……….यह संस्मरण बहुत ख़तरनाक है ………….सुनील दत्त के लिए ‘मुझे जीने दो’ फ़िल्म शूट कर रही थीं तब शूटिंग स्थल पर गुरुदत्त ने जाकर वहीदा जी को एक थप्पड़ मारा और पलट कर सुनील दत्त ने गुरुदत्त को थप्पड़ मारा…………………….         रेणु जी शादी शुदा थे और उन्हें टीबी की बीमारी थी। मुँह से ख़ून आता था और जिस हॉस्पिटल में भर्ती हुए, वहीं लतिका जी नर्स थीं। प्रेम संबंध बढ़ा। यह अलौकिक प्रेम संबंध है। प्रेमिका जान रही है कि जो बीमारी है, वाह जानलेवा है। प्रेमी जान रहा है कि कभी भी मर सकता है। फिर भी, यह प्रेम हुआ और ख़ूब हुआ। जब  फेरे लग रहे थे तब रेणु जी ख़ून की उल्टियाँ कर रहे थे। यह सब जया जी सुन रही थीं और रो रही थीं………………………उन्होंने बताया कि उनका रिश्ता बिहार से है, दानापूर में रहती थीं। यहीं रेलवे स्टेशन पर उनके पिताजी काम करते थे,इसलिए जब बिहारी उपन्यासकार का नाम आया तब उन्होंने ‘हाँ’ कर दिया।“ 

इस तरह के अनगिन प्रसंगों से यह स्मृतिका लबरेज़ है। मौरिशस यात्रा की कहानी बहुत ही रोचक और मन को मिठास से भर देनेवाली है – “उस समय राष्ट्रपति थे, शिवसागर रामगुलाम।………………..वह भोजपुरी में बात कर रहे थे और वह भी विंध्यवासिनी देवी को मौसी की जगह भौजी कह रहे थे और बोल रहे थे कि, ‘आप ऐसन लागी ले, जय सन हमार भौजी लागत रही। असहीं घूँघटा में रहत रही।“  अपनी आत्मा को रेडियो की दुनिया में छोड़कर अध्यापन के संसार में लेखक की देह के  अंतरण की कथा मन को छू जाती है। लेखक की यह संस्मरण-कथा जीवन के दर्शन का अद्भुत दस्तावेज़ है। सचमुच में,

“यह जो ज़िंदगी की किताब है

यह किताब भी क्या किताब है

कहीं एक हसीन-सा ख़्वाब है

कहीं जानलेवा अजाब है।“