Friday, 27 September 2024

कैक्टस





 कभी प्लावित थी,

सलिला इस पथ पर!

कर गई परित्यक्ता,

परती को,

प्रविष्ट हो पाताल में।

सूख कर सुर्ख-सी 

भुर-भुराकर बुरादों में 

मृतप्राय मृदिका!

बन गई बालुकूट।


सहेजकर विरासत,

वेदना की विरसता ।

विषन्न अवसन्न 

हत-प्रतिहत।

उग आया मैं !

छाती पर उसकी, अनाहत।

समेटे खुरदुरेपन

विसंगतियों के .

कंटक, नुकीले।

गड़नेवाले।


पानी भी नहीं अब,

मेरी आंखों में!

छेद देता हूं, हर हवा,! 

जो छेड़ती हैं मुझे।

काट देता हूं, हर तंतु,! 

उलझता जो हमसे।

तरन्नुम हूं मैं, 

उदासी की, वसुधा का!

मैं नीरस हूं, बेबस हूं,  अपयश हूं,

और,  न ही, टस से मस हूं।

मैं कैक्टस हूं!