Friday, 27 September 2024

कैक्टस





 कभी प्लावित थी,

सलिला इस पथ पर!

कर गई परित्यक्ता,

परती को,

प्रविष्ट हो पाताल में।

सूख कर सुर्ख-सी 

भुर-भुराकर बुरादों में 

मृतप्राय मृदिका!

बन गई बालुकूट।


सहेजकर विरासत,

वेदना की विरसता ।

विषन्न अवसन्न 

हत-प्रतिहत।

उग आया मैं !

छाती पर उसकी, अनाहत।

समेटे खुरदुरेपन

विसंगतियों के .

कंटक, नुकीले।

गड़नेवाले।


पानी भी नहीं अब,

मेरी आंखों में!

छेद देता हूं, हर हवा,! 

जो छेड़ती हैं मुझे।

काट देता हूं, हर तंतु,! 

उलझता जो हमसे।

तरन्नुम हूं मैं, 

उदासी की, वसुधा का!

मैं नीरस हूं, बेबस हूं,  अपयश हूं,

और,  न ही, टस से मस हूं।

मैं कैक्टस हूं!

14 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोमवार 30 सितंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

    ReplyDelete
  2. आहा ... केक्टस को भी बाखूबी लिख दिया आपने ... बेजोड़ ...

    ReplyDelete
  3. कैक्टस के पास भी कहने को बहुत कुछ होता है ! जो चुभता है, पर सत्य है ! अभिनंदन विश्व मोहन जी। नमस्ते।

    ReplyDelete
  4. बेदना की विरासत सहेजकर जो उगा वो है कैक्टस ।
    कैक्टस के कैक्टस होने का कारण !
    वह सलिला नहीं जिसे सूखना पड़े
    मैं नीरस हूं, बेबस हूं, अपयश हूं,
    और, न ही, टस से मस हूं।
    मैं कैक्टस हूं!
    वाह!!!
    🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  5. वाह !! कैक्टस के बहाने सूखती जा रही धरती और शुष्क होते हृदयों की व्यथा

    ReplyDelete