कभी प्लावित थी,
सलिला इस पथ पर!
कर गई परित्यक्ता,
परती को,
प्रविष्ट हो पाताल में।
सूख कर सुर्ख-सी
भुर-भुराकर बुरादों में
मृतप्राय मृदिका!
बन गई बालुकूट।
सहेजकर विरासत,
वेदना की विरसता ।
विषन्न अवसन्न
हत-प्रतिहत।
उग आया मैं !
छाती पर उसकी, अनाहत।
समेटे खुरदुरेपन
विसंगतियों के .
कंटक, नुकीले।
गड़नेवाले।
पानी भी नहीं अब,
मेरी आंखों में!
छेद देता हूं, हर हवा,!
जो छेड़ती हैं मुझे।
काट देता हूं, हर तंतु,!
उलझता जो हमसे।
तरन्नुम हूं मैं,
उदासी की, वसुधा का!
मैं नीरस हूं, बेबस हूं, अपयश हूं,
और, न ही, टस से मस हूं।
मैं कैक्टस हूं!
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोमवार 30 सितंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteजी, हार्दिक आभार।
Deleteवाह
ReplyDeleteजी, आभार।
Deleteआहा ... केक्टस को भी बाखूबी लिख दिया आपने ... बेजोड़ ...
ReplyDeleteजी, हार्दिक आभार।
Deleteबहुत बहुत सुन्दर रचना
Deleteजी, हार्दिक आभार।
Deleteकैक्टस के पास भी कहने को बहुत कुछ होता है ! जो चुभता है, पर सत्य है ! अभिनंदन विश्व मोहन जी। नमस्ते।
ReplyDeleteजी, हार्दिक आभार।
Deleteबेदना की विरासत सहेजकर जो उगा वो है कैक्टस ।
ReplyDeleteकैक्टस के कैक्टस होने का कारण !
वह सलिला नहीं जिसे सूखना पड़े
मैं नीरस हूं, बेबस हूं, अपयश हूं,
और, न ही, टस से मस हूं।
मैं कैक्टस हूं!
वाह!!!
🙏🙏🙏
जी, हार्दिक आभार!
Deleteवाह !! कैक्टस के बहाने सूखती जा रही धरती और शुष्क होते हृदयों की व्यथा
ReplyDeleteजी, हार्दिक आभार।
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