Monday, 27 July 2015

आशा का बीज

टुकड़े का टकराना टुकड़े से
अपनी ही काया का !

जब भी टकराते दो सहोदर
हो जाती माँ की कोख जर्जर

धरती की धुकधुकी
ऊर्जा का उछाह
भूडोल,विध्वंस
धराशायी आशियाने
बनते कब्रगाह

मंजिल-दर-मंजिल
झड़ते  परत-दर-परत
दबती मासूम चीत्कार
शहतीरों की चरमराहट
नर कंकालों की मूक कराह

 करीने से काढ़ी गयी
 नक्काशियाँ
गढ़े गये प्रस्तर
अब जमीन्दोज़
खंडित
जीर्ण-शीर्ण
बनते मौत के बिस्तर!

लाशों पर कंक्रीट का आवरण
अब भला चील बैठे तो कहाँ
कुत्ते भौंके तो क्यों
गिलहरी रोये तो कैसे
चमगादड़ चिचियाये तो कब

सब कुछ मौन
निस्तब्ध, जड़
सिर्फ काल
चंचल , गतिमान !

बीच बीच में टपकते
सीमेंटी शहतीरों के शोर
‘कंक्रीट-कटर’ मशीनों की घर्र-घर्र
नेपथ्य से चीखती चीत्कार

फिर फाटी माटी     
थरथरायी पूरी घाटी
फेंका लावा
धरती की छाती ने
हिला देवालय
इंच भर धंसा हिमालय
जलजला बवंडर
मचा हड़कम्प
भूकम्प! भूकम्प!! भूकम्प!!!

स्खलित चट्टानों
 एवम हिम से
दबी वनस्पति, 
कुचले जीव
मरा मानव

पर, जागी मानवता
दम भर
छलका करुणा का अमृत
थामने को बढ़े आतुर हाथ
पोंछने को आँसू
और बाँटने को
आशा का नया बीजन
समवेत स्वर

सृजन! सृजन!! सृजन!!!  

सृजन

काल प्रवाह में स्वाहा
कतिपय शब्दों के बोल

स्थान-निरपेक्ष , कालातीत
गढ़ लेते हैं गूढ़ अर्थ
शाश्वत , अनमोल
आत्मा को झकझोरते
वे कालजयी वाक्य

छूते हैं मन को

करते

 चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
यहीं है सृजन !
                                  

                                    ’मैं तो ठहर गया
भला तू कब ठहरेगा’

इस वाक्य की चोट
भला लुटेरे का मर्म सहेगा? 
गौतम की वाणी ने मचाया
अंगुलिमाल के भीतर हाहाकार

चौंधियाये चक्षु बौद्ध तेज से
मचला भीतर करुणा का पारावार

पखारे पांव, निकली आह!
बोधिसत्व ने दिया पनाह

 चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
यहीं है सृजन !





संत बाबा भारती की लाचारी
ठगने को उद्धत डाकू छलनाचारी

बोले संत, खड्ग सिंह सुन
घटना यह औरों से न गुन

अभी तो बना सिर्फ मैं बेचारा
पर न बने दीन दुखिया बेसहारा

बाबा की बात का घात
डाकू न सह पाया
घोड़ा छोड़ अस्तबल में आया

 चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
यही है सृजन !


                       
अब लाठी टेकती बुढ़िया लाचार
लगी प्रपंची पंच से करने विचार

हकलायी गिड़गिड़ायी – बोलो
मन की गाँठ खोलोगे?

बेटा! क्या बिगाड़ के डर से
ईमान की बात नहीं बोलोगे

बहे आँखों से आँसू
धुला मैल मन का
हुआ उँचा न्याय का आसन

चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
                                    यहीं है सृजन !

सृजन! सृजन!! सृजन!!! 

भूचाल

सतही दरारों में सरक-सरक भरती है
समय की रेत हर पल
फिर सब कुछ दिखता
सपाट, सीधा और धूसर


पर भीतरी मन की दरारें
होती हैं आर-पार
उस पर नहीं रुकती
वक़्त की धूल


फिसल जाते हैं, ज़िन्दगी के किरदार
रिश्तों के दरख्त नहीं जमाते जड़
बन जाते कोयला माटी में सड़

ज़िन्दगी की खटास से
फटती बढ़ती  भावनाओं की दरारें

निराश-हताश फटे दिल में
 धुकधुकाती ऊर्जा के बेसुरे ताल

इन्ही ‘भू-गर्भीय फौल्टों’ में


डोलता है ज़िन्दगी का भूचाल