टुकड़े का टकराना टुकड़े से
अपनी ही काया का !
जब भी टकराते दो सहोदर
हो जाती माँ की कोख जर्जर
धरती की धुकधुकी
ऊर्जा का उछाह
भूडोल,विध्वंस
धराशायी आशियाने
बनते कब्रगाह
मंजिल-दर-मंजिल
झड़ते परत-दर-परत
दबती मासूम चीत्कार
शहतीरों की चरमराहट
नर कंकालों की मूक कराह
करीने से काढ़ी गयी
नक्काशियाँ
गढ़े गये प्रस्तर
अब जमीन्दोज़
खंडित
जीर्ण-शीर्ण
बनते मौत के बिस्तर!
लाशों पर कंक्रीट का आवरण
अब भला चील बैठे तो कहाँ
कुत्ते भौंके तो क्यों
गिलहरी रोये तो कैसे
चमगादड़ चिचियाये तो कब
सब कुछ मौन
निस्तब्ध, जड़
सिर्फ काल
चंचल , गतिमान !
बीच बीच में टपकते
सीमेंटी शहतीरों के शोर
‘कंक्रीट-कटर’ मशीनों की घर्र-घर्र
नेपथ्य से चीखती चीत्कार
फिर फाटी माटी
थरथरायी पूरी घाटी
फेंका लावा
धरती की छाती ने
हिला देवालय
इंच भर धंसा हिमालय
जलजला बवंडर
मचा हड़कम्प
भूकम्प! भूकम्प!! भूकम्प!!!
स्खलित चट्टानों
एवम हिम से
दबी वनस्पति,
कुचले जीव
कुचले जीव
मरा मानव
पर, जागी मानवता
दम भर
छलका करुणा का अमृत
थामने को बढ़े आतुर हाथ
पोंछने को आँसू
और बाँटने को
आशा का नया बीजन
समवेत स्वर
सृजन! सृजन!! सृजन!!!