चंपारण की पवित्र भूमि मोहनदास करमचंद गांधी की कर्म भूमि साबित हुई।दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह विदेशी धरती पर अपमान की पीड़ा और तात्कालिक परिस्थितियों से स्वत:स्फूर्त लाचार गांधी के व्यक्तित्व की आतंरिक बनावट के प्रतिकार के रूप में पनपा, जहां रूह की ताकत ने अपनी औकात को आँका। लेकिन एक सुनियोजित राष्ट्रीय जागृति के औज़ार के रूप में इसका माकूल इज़ाद चंपारण की जमीन पर ही हुआ। वहां गांधी स्वेच्छा से नहीं गए थे, ले जाये गए थे।
सच कहें तो उस समय तक का गांधी का अधिकांश समय भारत से बाहर बीता था। गांधी जब भारत पहुंचे तो कांग्रेस परिवर्तन के दौर से गुजर रही थी। 1907 में सूरत में नरम गरम अलग हो चुके थे। बिपिन चंद्र पाल और सुरेंद्र नाथ बनर्जी बूढ़े हो चले थे। महर्षि अरबिन्द राजनीति छोड़ आध्यात्म की अमराई में आत्मा का अनुसन्धान कर रहे थे।लाला लाजपत राय अमेरिका चले गए थे। फ़िरोज़ शाह मेहता और गोखले परलोक सिधार चुके थे। तिलक के कांग्रेस में पुनः राजतिलक की तैयारी चल रही थी। 1915 के बंबई अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में अनुकूल संशोधन कर दिया गया था। गरम दल के नेता फिर से छाने लगे थे। व्यावहारिक राजनीति का बोलबाला बढ़ने लगा था। तिलक का विचार था कि राजनीति में सत्य का कोई स्थान नहीं है। यह सांसारिक लोगो की क्रीड़ा है, न कि साधुओं की।
ठीक इसके उलट, गांधी नैतिक बल के प्रखर प्रवक्ता थे। वह हिन्दू धर्म के सांस्कारिक पालने में पले बढ़े थे। बौद्ध दर्शन से आंदोलित थे। और फिर, पश्चिम के विचारक टॉल्सटॉय, थोरो, रस्किन और इमरसन के विचारों से खासे प्रभावित थे। उनके विचारों में राज्य की ताकत उसके नैतिक पक्ष से निकलती है जो सही मायने में जनता की ताकत होती है। गांधी नैतिकता और आध्यात्मिक शक्ति की नींव पर राज्य का निर्माण चाहते थे। इसी कारण वह तब के कांग्रेस नेताओं को रास नहीं आते थे। 1915 के बेलगांव में बॉम्बे कांग्रेस की बैठक में भारी विरोध के बीच उन्हें शरीक होने का निमंत्रण मिला था।
इसलिए ऐसी स्थिति में यदि 1916 में कांग्रेस के नेताओं ने चंपारण की व्यथा बयान करने वाले राजकुमार शुक्ल को गांधी के पास जाने को कह दिया तो इससे कांग्रेस की चंपारण के प्रति गंभीरता का अभाव ही झलकता है। और चंपारण की माटी में 'महात्मा' बनने वाले गांधी ने भी अपने चंपारण यज्ञ को अध्यात्म, सत्य, अहिंसा और नैतिकता की वेदी पर ही संपन्न किया जो कांग्रेस की राजनितिक सहभागिता और दर्शन से कोसों दूर था।
सच कहें तो, राजकुमार शुक्ल से रु ब रु होने से पहले तक गांधी को भारत के मानचित्र पर चंपारण की भौगोलिक स्थिति के ज्ञान की बात तो दूर, उन्होंने चंपारण का नाम तक नहीं सुना था। 1916 में लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में जब शुक्लजी ने चंपारण के किसानों का दुखड़ा रोया तो वह भीड़ में खड़े एक आम याचक से ज्यादा कुछ नहीं दिख पाये।इसे नक्कारखाने में तूती की आवाज के मानिक बिलकुल खारिज़ तो नहीं किया गया किन्तु बड़े नेताओं के कान पर जू की इतनी सुगबुगाहट जरूर हुई कि गांधी से मिलने की सलाह देकर बात आई गयी हो गयी। गांधी तब एक नवागत से ज्यादा कुछ नहीं थे जो परदेश में अपने अहिंसा के अमल की शोहरत लिए घूम रहे थे।
निराश राजकुमार शुक्ल। मरता क्या न करता! चंपारण की तीन कठिया चक्की में पिसते किसानों की दुर्दशा उन्हें दिन रात दूह रही थी।जबरन नील की उगाही। जमीन की कमरतोड़ मालगुज़ारी। दर्जनों टैक्स की मार। किसिम किसिम के नज़राने निलहे साहब की कोठी पर पहुचाने होते। समय पर नहीं चुकाने पर भीषण अत्याचार। पेड़ो से बांध कर पिटाई।खेतो पर कब्ज़ा। कर्ज में झुकी कमर और उस पर डंडे का कहर। मुझे लगता है कि लाचारी औए बेबसी की व्यथा से विगलित दिल का विक्षोभ और विद्रोह संघटित होकर अपने रचनात्मक तेवर में गांधी के अंदर अहिंसा और सत्याग्रह के दर्शन का जो शक्ल ले चुका था, राजकुमार शुक्ल की आत्मा उस आहट से आंदोलित होने को बेचैन हो रही थी।
' कर या मरो' के भाव में वह गांधी के पास पहुँचे। शुरू के क्षणों में तो गांधी से भी उन्हें फीकी प्रतिक्रिया ही मिली। लेकिन चंपारण का यह फ़क़ीर भी कहाँ दम लेने वाला था। ध्रुव की जन्मभूमि चंपारण का यह दीन राजकुमार ध्रुव प्रतिज्ञा ठान के आया था कि चंपारण की चीत्कार वह देश के जन जन को सुना के ही दम लेगा। वह छाया की भांति गांधी का पीछा करने लगा। पहले लखनऊ। फिर गणेश शंकर विद्यार्थी के पास कानपुर। फिर कलकत्ता।और अंत में खींच लाया गांधी को पटना।
पटना में राजकुमार शुक्ल ने गांधी को राजेंद्र बाबु के घर टिकाया। वहाँ गांधी को अपनी आशा के प्रतिकूल आवाभगत जरूर खटकी। एक तो गांधी को राजेंद्र बाबु के तीमारदार जानते नहीं थे , दूसरे राजकुमार शुक्ल की साधारण हैसियत।लेकिन असाधारण घटना तो घट चुकी थी! इतिहास करवट ले चुका था। शुक्लजी के 'महात्माजी' मजहरुल हक़ के रिहायश पर ठहरे। मुजफ्फरपुर आये। फिर तो आगे जो हुआ वह आज़ाद हिंदुस्तान के तवारीख का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव बना।
शुक्लजी के द्वारा संबोधित शब्द 'महात्माजी' ने अपनी महिमा के ऐसे निस्सीम व्योम का भव्य विस्तार किया जिसमें 'मोहनदास करमचंद' लुप्त हो गया और एक ऐसे धूमकेतु का प्रादुर्भाव हुआ जिसकी रोशनी से पूरी दुनिया चकाचौंध हो गयी। यह चमचमाता धूमकेतु था-' महात्मा गांधी'। चंपारण सदृश विशाल पीपल की छाया में पहुंचे बोधिसत्व गांधी सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के एक नए आयाम का ज्ञान दर्शन करा रहे थे और उनके हाथ में जिम्मेदारियों से भरा खीर का थाल थाम रहे थे राजकुमार शुक्ल, सतवरिया के सुरमा!
सतवरिया के शुक्लजी की आँखों में अंग्रेजी हुकूमत की वो तमाम बेरहमी और पाश्विकता नाच रही थी।
नील के खेतीहर किसान साठी में विद्रोह कर बैठे थे।ब्रितानी सरकार का दमन अपने पूरे शबाब पर था।साम, दान, दंड , भेद,लाठी, गोली, कोड़ा, जाति, धरम सब कुछ झोंक दिया बर्बर निलहे साहब ने किसानों को कुचलने के लिए।ऊँची जाति के लोगो को डोम और धांगड़ जाति के लोगो से पिटवाया।
लकड़ी से लदी बैलगाड़ी खिंचवाई। पेट में हाथ बांधकर लाल चींटों से कटवाया।19 आंदोलनकारियों को सजा सुनाई। दिसंबर 1908 आते आते 200 से अधिक किसान जेल में ठूंस दिए गये। दमन का दानव डकारे लेता रहा। 1914 में पिपरा में अंग्रेजो ने फिर नील के खेतिहरों पर अपने अत्याचार का कहर बरपाया। जन मानस आजिज़ हो उठा। 10 अप्रैल 1914 को कांग्रेस ने अपनी बिहार प्रांतीय समिति में चर्चा की। लेकिन कांग्रेस की यह चर्चा बेअसर रही। 1916 में पानी सर से ऊपर इतना बहा कि तुरकौलिया के भूमि पुत्र सर पर कफ़न बांध इंक़लाब को कूच कर गए।चंपारण का व्याकुल राजकुमार लखनऊ के मंच पर चंपारण की चीत्कार सुना आया। लेकिन कांग्रेस इस विषय को इतना धारदार नहीं बना पाई जितना साधारण सी वेश भूषा में अपने सहज सीधेपन को लपेटे चंपारण के इस फकीर ने अपनी फौलादी इच्छा शक्ति और अदम्य धैर्य के बल बूते गांधी के पीछे छाया की तरह लगे रहकर राष्ट्रीय वितान पर उभारकर रख दिया।
10 अप्रैल 1917 को गांधी चंपारण पहुँचे। घर घर जाना, किसानों से मिलना, उनका सूरते हाल जानना, विस्तार से सभी समस्यायों का सांगोपांग सर्वेक्षण करना, बदनसीब और बदहाल खेतिहरों के आंसुओं में बहते धुलते सपनो को पढ़ना, उनके बयानों को दर्ज करना--- एक ऐसी क्रांतिकारी पहल आकार लेने लगी कि मानो चंपारण की धरती के डोलने के संकेत मिलने शुरू हो गए हों। झुलसती गर्मी में धनकती धरती पर मृतप्राय लेटी झुरझुराई मरियल वनस्पति बारिश की पहली फुहार पड़ते ही धरती की सोंधी महक के साथ हरिहराकर तन जाती हैं, ठीक वैसे ही चंपारण का जन सैलाब अब तन कर खड़ा हो गया था। एक नयी ऊर्जा हिलोरे ले रही थी। भीम और अर्जुन युधिष्ठिर में समा गए थे।
गांधी के आकर्षण पाश में चंपारण समाता चला जा रहा था।आंदोलन की आत्मा सामाजिक और सांस्कृतिक कलेवरों से सजने लगी। गांवों में सफाई होने लगी। बुनियादी विद्यालय खुलने लगे।अस्पताल की व्यवस्था होने लगी। स्त्रियाँ परदे तोड़कर बाहर आने लगी।छुआछूत का विरोध होने लगा।नशे का बहिष्कार होने लगा। समाज में सर्वांगीण परिवर्तन की लौ धधक उठी। दिग दिगंत ' बापूजी की जय', 'एक चवन्नी चानी की, जय बोल महातमा गान्ही की', जैसे नारों से गूंज उठा। सही मायने में राष्ट्रीय जागरण की सामाजिक पटकथा राजनीतिक फलक पर पहली बार लिखी गयी। अहिंसा और सत्याग्रह के इस सर्वथा अर्वाचीन 'सविनय- अवज्ञा' दर्शन ने अँगरेज़ी आँखों को चकाचौंध कर दिया। चंपारण चमत्कार की चपेट में आने लगा। सरकार की चूलें हिलती लगने लगी।
चंपारण के कलेक्टर ने गांधी को जिला बदर का हुक्म सुनाया। गांधी ने नाफरमानी की घोषणा कर दी। तिरहुत के कमिश्नर ने गिरफ़्तारी का वारंट तामील कर दिया। गांधी ने शंख नाद कर दिया। गांधी ने अदालत में उद्घोष किया " मैं अपने ऊपर जारी किये गए सरकारी आदेश को मानने से इंकार करता हूँ, इसलिए नहीं कि इस वैधानिक सत्ता के प्रति मेरे दिल में सम्मान की कोई कमी है बल्कि इसलिए कि इससे भी ऊँची अंतरात्मा की एक पवित्र सत्ता है जिसका हम अनुपालन करते हैं।" गांधी के कानून तोड़ते ही चंपारण का उत्साह सातवे आसमान में चला गया।जन भावनाएं उछाह लेने लगी। ऐसा लगा मानो सदियो पुरानी गुलामी की बेड़ियाँ टूट गयी हो। लेफ्टिनेंट गवर्नर का आदेश आया कि गांधी को अविलंब रिहा कर दिया जाय। गांधी रिहा हो गए और फिर क्या हुआ, आज हम सब जानते है। चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर गया है। आज इस अवसर पर, हम उनकी बातों को याद करते हैं- " चंपारण के दिन मेरी जिंदगी के कभी नहीं भुलाये जाने वाले दिन है। यह मेरे और चंपारण के किसानों के वे सुनहले दिन हैं जब मुझे उन किसानों में सत्य, अहिंसा और ईश्वर के दर्शन हुए।"