जिंदगी की फटी पोटली से झांकती,
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
....... ...... .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
..... ...... .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
....... ...... .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
..... ...... .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!
बेहतरीन रचना आदरणीय, आप का लेखन बहुत प्रभावी है हर शब्द अपना स्वतंत्र अस्तित्व लिए
ReplyDeleteसादर
आशीष की इस ऊष्मा का आभार।
Deleteसजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
ReplyDeleteधान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।....लाज़बाब सृजन आदरणीय
सादर
आभार, आदरणीय।
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteलाजवाब
ReplyDeleteजी, आभार।
Deleteवाह!
ReplyDeleteलाजवाब पंक्तियाँ,सार्थक सृजन।
सादर प्रणाम आदरणीय सर 🙏
जी, आभार।
Deleteलिख लूंगा काल के कपाल पर,
ReplyDeleteअपने श्रम के सुरीले गीत।
वाह! श्रमवीर का अत्यंत साहसिक उद्घोष , जो पूंजीवादी सत्ता को आईना दिखाता है। अपनी मेहनत से समस्त विश्व की अर्थव्यवस्था को अपने कंधो पर ढोने वाले श्रमिक वर्ग की महिमा और सम्मान बढाती इस रचना में उसके स्वाभिमान की अनुगूंज् है। संतोष और आत्माभिमान एक श्रमिक का सहज गुण है।जिसके निष्ठा से किये कर्म को आत्मीय आभार बहुत जरूरी है । सार्थक रचना के लिए साधुवाद । श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें और बधाई।सादर🙏🙏
आपकी मंजुल भावनाओं के लिए साधुवाद और अत्यंत आभार।
Deleteबेहतरीन पंक्तियां।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
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