सरकारी नौकरी लगते ही बड़े-बड़े घरों की बेटियों के रिश्ते आने लगे। और, एक दिन एक बड़े घर की
बेटी इस सरकारी बाबू की बहू बनकर आ भी गयी। आते ही बहू ने अपनी सतरंगी आभा का
विस्तार किया। नौकर, चाकर, मुवक्किल, मुलाजिम, ठेकेदार, देनदार, अमले, फैले, भूमि,
जनसंख्या, सरकार, सब साहब के। लेकिन, संप्रभुता बहू की! और, सबकी आज्ञाकारिता का भाव
बहू के प्रति समर्पित। अरमान और फरमान दोनों बहू के। साहब तो इस व्यवस्था के 'श्री
कंठ' मात्र थे जिससे मेमसाहब के स्वर निःसृत होते थे। सारा कंट्रोल बड़े घर की इस बेटी
के हाथ में ही था। दिन पर दिन घर की इकॉनमी और मेम साहब का शारीरिक शौष्ठव शेयर
मार्किट की तरह उछाल पर आने लगा था।
दुर्भाग्य
ने अचानक साहब के शरीर में सेंध लगा दी। उनके किडनी ख़राब हो गए। बदलने की नौबत आ
गयी। सत्रह लाख रुपयों की दरकार थी। साहब ने चारों तरफ नज़रें घुमा ली। एड़ी चोटी एक
कर दी। हाथ पाँव मार लिए। सबसे चिरौरी कर ली। कहीं दाल न गली। हाथ पाँव फूलने लगे। कहाँ से जुगाड़े इतनी रकम! सात लाख तक ही जुटा पाए थे। भाई लाल बिहारी ने दिलासा
दी। उसने खेत बेचे। मंगेतर के गहने गिरवी रखे और किसी तरह भीड़ा ली जुगत अतिरिक्त दस लाख रुपयों की। ऑपरेशन सफल रहा। साहब की जान बच गयी।
सरकार ने
अचानक बिजली गिरा दी। नोटबंदी की घोषणा हो गयी। अफरा-तफरी मच गयी जमाखोरों में। मेमसाहब
ने भी सत्रह लाख रुपये मजबूरी में साहब के हाथों में धर दिए। साहब ने पथराई आँखों
से कागज़ के उन टुकड़ों को बिखेर दिया।
आज कचहरी
की दहलीज़ से हाथों में तलाक़ का अदालती फरमान लिए साहब सामने घंटा घर की बंद घड़ी की सुइयों को निहार रहे थे और उन सुइयों पर प्रेमचन्द की 'बड़े घर की बेटी' लटकी हुई
थी!
माँ शारदे काव्य मंच द्वारा पुरस्कृत इस रचना को पुनः पढ़ने की इच्छा हुई। सच,बड़े घर की बेटियाँ अब बड़ी नहीं रहीं !
ReplyDeleteआपको इस सम्मान के लिए बधाई।💐
जी, आभार।
Deletehttps://m.facebook.com/groups/3420759228169570/permalink/3599551120290379/?mibextid=Nif5oz
ReplyDeleteमेमसाहब ने भी सत्रह लाख रुपये मजबूरी में साहब के हाथों में धर दिए।
ReplyDeleteदो हजार के सुंदर गुलाबी नोटों को भला पति की खराब किडनी के लिए हॉस्पिटल में कैसे बर्बाद करती ! ये सरकार भी न !...
वाह!!!
लाजवाब लघुकथा सामयिक भी।
🙏🙏
जी, आभार।
Deleteसोचने को विवश करती अच्छी लघुकथा।
ReplyDeleteआखिरी प्रसंग तो झकझोर गया।
पुरस्कृत होने के लिए बहुत बधाई।
जी, बहुत आभार।
Deleteअक्सर संस्कारी और सर्वगुण संपन्न बेटियाँ, इन ये कथित बड़े घर की बेटियों से मात खा जाती हैं क्योंकि पिता की संपन्नता से सरकारी नौकरी वाले वर इन्हें सहज उपलब्ध हो जाते हैं।पर असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा से बड़े घर का बडप्पन पता चल जाता है। एक बहुत ही मार्मिक कथा के जरिये पता चलता है कि जिसकी निष्ठा और प्रेम से बड़ा निजी स्वार्थ और लालच है उसे कौन बड़े घर की बेटी कहे।ये तो भला हो सरकार का जिसके प्रयास से मुखौटे उतर गये और किसी अपने की काया से ज्यादा माया का मोह उजागर हो गया। कथा के पुरस्कृत होने पर हार्दिक बधाई आदरनीय विश्वमोहन जी।🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteक्या लिखूं, आपने निःशब्द कर दिया। सोंच से परे है कि इंसान के जीवन से ज्यादा कीमती नोटों की गड्डियां हो सकती। बड़े घर के बेटियों के दिल के चारों तरफ शायद नोटों की दीवाल होती, जिससे कि वो उसके आगे सोच नहीं सकती।
ReplyDeleteविश्वमोहन जी आपने अंदर तक झकझोर दिया।
जी, बहुत आभार आपके आशीष का।
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