Wednesday 26 May 2021

हँसा के पिया अब रुला न देना.

तथागत यशोधरा के द्वार पधारते हैं और उन्हें बोधिसत्व की ज्ञान आभा से ज्योतित कर अपनी करुणा से सराबोर करते हैं:-
   प्रीता प्राणों के पण में,
       राजे चंदा का संजीवन/
       बोधिसत्व पावन सुरभि, 
       महके तेरा तन-मन हर क्षण/

       तू चहके प्रति पल चिरंतन,
        भर बाँहे जीवन आलिंगन/
        मै मूक पथिक नम नयनो से. 
       कर लूँगा महाभिनिष्क्रमण !

यशोधरा अपने सन्यासी पिया के चिन्मय ज्ञान का पान कर फूले नहीं समाती. भवसागर से मुक्ति की यात्रा में उनकी सहगामिनी बनने को तत्पर होती है और मन ही मन अपनी भावनाओं से तरल हो रही है:-
    यह कैसा चिर स्पंदन!
    देखो, जागे ये निर्मल मन.

    उर पवित्र मंद मचले कम्पन,
    उतरे परिव्राजक मन दर्पण.

    बोधिसत्व कपिलायिनी भद्रा बन,
    तरल अंतस पसरे छन छन.

    उपवासी अन्तेवासी हूँ,
    प्रेम पींग की झुला न देना .

    मैं जागी अब सुला न देना ,
    हँसा के पिया अब रुला न देना.   


29 comments:

  1. बहुत सुन्दर !
    विवाह के समय लिए-दिए गए वचनों को तोड़कर यशोधरा के साथ इतना बड़ा विश्वासघात? उसको इतनी अधिक पीड़ा? परित्यक्ता का आजीवन कलंक? एक अबोध शिशु को पिता के संरक्षण से सदा के लिए वंचित करना? क्या यही अहिंसा है? क्या यही करुणा है? क्या यही धम्म है?
    भगवान बुद्ध ! इन प्रश्नों के उत्तर तो आपको देने ही पड़ेंगे?

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    1. वाकई, इन यक्ष प्रश्नों से उपजे भ्रम का निराकरण किये बिना गौतम बोद्धिसत्व का आलिंगन नही कर सकते। आखिर जिस पीड़ा से मुक्ति का मार्ग उन्होंने ढूंढा है उसमें यशोधरा की पीड़ा के लिए कोई स्थान है!

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  2. बहुत सुंदर यशोधरा का आत्म बोध ।

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  3. लाज़बाब... ...बेहतरीन लेखनी है आदरणीय आप की हर भाव में डूब जाती है
    सादर

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  4. उपवासी अन्तेवासी हूँ,
    प्रेम पींग की झुला न देना .
    मैं जागी अब सुला न देना ,
    हँसा के पिया अब रुला न देना.
    सिद्धार्थ - यशोधरा के जीवन के सुनहरे और प्रेम रस में डूबे पलों को दर्शाता अत्यंत भावपूर्ण वार्तालाप आदरणीय विश्वमोहन जी | ये पंक्तियाँ एक आकंठ अनुरागरत नारी के उस डर को दर्शाती हैं जो प्रेम की अतिशयता से उपजता और मन में असुरक्षा का बोध जगाता है | पर कैसी विडम्बना थी -यशोधरा के जीवन में वो डर उसी रूप में साक्षात् प्रकट हो गया जब वह पति उसे सोते छोड़ बिना बताये ज्ञान की तलाश में निकल पड़े थे | पर सिद्धार्थ से बुद्ध बनने के बाद भी वे यशोधरा के उच्च समर्पण और स्वाभिमानी रूप के आगे सदियों से फीके नजर आते हैं और एक मानिनी पत्नी के प्रश्नों के उत्तर के आगे उनका करुणा से भरा ज्ञान मौन हो निरुत्तर है जिसे वे पति-त्याज्या के रूप में कुंठित और व्याकुलता भरा जीवन सौप कर ज्ञान पथ की ओर अग्रसर हो गये थे जबकि यशोधरा विरह और समर्पण में तप कर कुंदन सी दमकती हर नारी का आदर्श है | सार्थक विषय के साथ मर्मस्पर्शी रचना के लिए साधुवाद | बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें | सादर -

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना 22 मई 2019 के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. बेहद प्यारी... हृदयस्पर्शी रचना ,सादर नमस्कार

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  7. बेहतरीन प्रस्तुति

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  8. वाह!!विश्वमोहन जी ,बहुत खूबसूरत रचना ।
    सुप्तावस्था में यशोधरा को छोड कर जाना क्या ये पलायन नहीं था ?

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    1. जब अज्ञानी थे तब पलायन कर गए थे। तभी तो ज्ञान मिलने पर वापस आये हैं इस कविता में। और अब यशोधरा कह रही हैं कि फिर से अज्ञानी मत बन जाना।

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  9. बहुत सुंदर रचना आदरणीय

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    1. बहुत आभार अनुराधा जी।

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  10. बहुत बहुत सुन्दर बहुत बहुत सराहनीय ।

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  11. भगवान बुद्ध से लेकर आज तक जिस-जिस ने अपनी पत्नी का परित्याग किया है, उसे इत्तिहास कभी क्षमा नहीं करेगा.

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    1. किन्तु, इस मामले में इतिहास भी बड़ा अहिंसक नहीं रह पाया है।

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  12. The title of the poem is a plea and apprehension stamped deep into every woman`s psyche .When one is a "life partner", the least she expects is to be made party to his decisions. Who knows the goals might still be achieved without the accompanying grief, trauma and desolation !!

    Reminds me of Maithilisharan Gupt`s classic "Yashodhara" .

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  13. तुम अपने क्रोध को बुद्ध कर दो,
    और मैं अपनी सहिष्णुता को
    यशोधरा हो जाने देती हूं इतने कोलाहल में
    अकेला मन बुद्ध हो चला

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  14. उपवासी अन्तेवासी हूँ,
    प्रेम पींग की झुला न देना .
    मैं जागी अब सुला न देना ,
    हँसा के पिया अब रुला न देना.
    पुरानी रचना को एक बार फिर से पढ़कर बहुत अच्छा लगा। बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🙏🙏💐💐

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