अगिन विरह की पवन जो
बोता,
दुबकी दुपहरी सूख
गया सोता।
जले खेत हो, मिट्टी
राखी,
मुरझाये हो मन के
पाखी।
तड़पे वनस् पति और
पक्षी,
प्रेम पाती को तरसी
यक्षी।
दिवस उजास और रातें
काली,
आकुल, व्याकुल, वसुधा
व्याली।
प्यासी नदियाँ, सूखे
कुएँ,
चील चिचियाती, उठते धुएँ।
धनके सनके, सूरज
पागल,
अब भी भला, न बरसे बादल!
सूरज तपता, धरती जलती
कण-कण माटी का रोया।
बादल मैं! आंसू से
मैंने
धरती का आँचल धोया।
रिस-रिस कर मैं रसा रसातल
रेश-रेश रस भर जाता हूँ।
यौवन जल छलकाकर के,
सरित सुहागन कर जाता हूँ।
उच्छ्वास मैं घनश्याम का,
चेतन की धारा अविरल ।
प्राण पीयूष पा आप्लावन,
चित पुलकित प्रकृति पल -पल।
प्राणतत्व मै, मनस
तत्व मै
जीव संजीवन धारा
हूँ,
विकल वात, वारिद बादल
बस !
बरसाती आवारा हूँ !
बहुत बहुत सरस सुन्दर व सुगठित रचना |
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteप्राणतत्व मै, मनस तत्व मै
ReplyDeleteजीव संजीवन धारा हूँ,
विकल वात, वारिद बादल बस !
बरसाती आवारा हूँ !
अहा, पूरा जीवन दर्शन निहित है, इन पंक्तियों में।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteप्यासी नदियाँ, सूखे कुएँ,/चील चिचियाती, उठते धुएँ।//
ReplyDeleteधनके सनके, सूरज पागल,/अब भी भला, न बरसे बादल!//
जी विश्वमोहन जी, सृष्टि के प्राण तत्व बादल के नाम आपका ये सृजन अत्यंत सराहनीय और अविस्मरणीय है। बादल के बिना जीवन की कल्पना ही निरर्थक है। तपते समय में सरस रसधार सरीखी रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई आपको। अनुप्रास अलंकार का प्रयोग विशेष आकर्षक है। सादर 🙏🙏
जी, अत्यंत आभार आपकी सरस टिप्पणी का।
Deleteबरसाती आवारा बादल के नाम ----
ReplyDeleteजो ये श्वेत,आवारा , बादल
रंग -श्याम रंग ना आता ,
कौन सृष्टि के पीत वसन को
रंग के हरा कर पाता ?
ना सौंपती इसे जल- संपदा
कहाँ सुख से नदिया सोती ?
इसी जल को अमृत घट सा भर
नभ से कौन छलकाता ?
किसके रंग- रंगते कृष्ण सलोने
घनश्याम कहाने खातिर ?
इस सुधा रस बिन कैसे
चातक अपनी प्यास बुझाता ?
पी छक, तृप्त धरा ना होती
सजती कैसे नव सृजन की बेला ?
कौन करता जग को पोषित
अन्न धन कहाँ से आता ?
किसकी छवि पे मुग्ध मयूरा
सुध -बुध खो नर्तन करता ?
कोकिल सु -स्वर दिग्दिगंत में
आनंद कैसे भर पाता ?
टप-टप गिरती बूँदों बिन
कैसे आँगन में उत्सव सजता ?
दमक -दामिनी संग व्याकुल हो
मेघ जो राग मल्हार ना गाता !
कहाँ से खिलते पुष्प सजीले,
कैसे इन्द्रधनुष सजता ?
विकल अम्बर का ले संदेशा
कौन धरा तक आता !
??
सादर 🙏🙏
वाह! नहले पे दहला! आपकी इस सरस काव्यात्मक टिप्पणी का सादर आभार!!!
DeleteVery nice reply and दहला!!👏🏿👏🏿👏🏿
Deleteआपकी कविता (या गीत कहें इसे) ने तो दिल जीत लिया विश्वमोहन जी। प्रशंसा के लिए शब्द ही न्यून प्रतीत हो रहे हैं।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteप्यासी नदियाँ, सूखे कुएँ,
ReplyDeleteचील चिचियाती, उठते धुएँ।
धनके सनके, सूरज पागल,
अब भी भला, न बरसे बादल!
इन बरसाती बादलों को आवारगी से फुर्सत मिले तब न...बस उमड़-घुमड़ करते हैं बरसना तो भूल ही चुके...
प्राणतत्व मै, मनस तत्व मै
जीव संजीवन धारा हूँ,
विकल वात, वारिद बादल बस !
बरसाती आवारा हूँ !
वाह!!!
लाजवाब सृजन।
धैर्य धरिये। अब बरसेंगे भी।😀🙏
Deleteजी, अत्यंत आभार।
बादलों के ऊपर बहुत सी रचनाएं पढ़ीं,बहुत सुंदर मन मोहती श्रेष्ठ रचना है ये आपकी,बहुत शुभकामनाएं आपको ।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार!!!
Deleteप्राणतत्व मै, मनस तत्व मै
ReplyDeleteजीव संजीवन धारा हूँ,
विकल वात, वारिद बादल बस !
बरसाती आवारा हूँ !
बहुत सुन्दर रचना
जी, बहुत आभार आपके आशीष का।
Deleteग्रीष्म ऋतु का जीवंत वर्णन और बादलों की कृपा का सजीव चित्रण!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteप्राणतत्व मै, मनस तत्व मै
ReplyDeleteजीव संजीवन धारा हूँ,
विकल वात, वारिद बादल बस !
बरसाती आवारा हूँ !
सही कहा आपने ये "आवार बादल" समझते ही नहीं कहाँ बरसना है कहाँ अब बस करना है। कही डुबोये जा रहे है कही बून्द को मन तरस रहे, आवारा है न आवारगी से फुर्सत कहाँ जो समझेंगे। वैसे अदभुत सृजन है प्रशंसा के शब्द काम पड़ रहे हैं। सादर नमन आपको
आपका आशीष हमेशा मेरे लिए विशेष रहा है।
Deleteकाव्य पिपासा का सुन्दरतम शमन ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार🌹
Deleteबहुत ही सुंदर ❣️
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteरिस-रिस कर मैं रसा रसातल
ReplyDeleteरेश-रेश रस भर जाता हूँ।
यौवन जल छलकाकर के,
सरित सुहागन कर जाता हूँ।!///
साहित्य जगत का अनमोल सृजन!! अच्छा लगा एक बार फिर से पढ़कर।बधाई और शुभकामनाएं 🙏
जी, बहुत आभार, हृदय तल से।
Deleteसुंदर रचना, रेणु जी का प्रत्युत्तर भी उतना ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत आभार अनाम जी आपका और रेणु जी दोनों का।
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