Monday, 5 July 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२४

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२४

(भाग – २३ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (प)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


२ – हड़प्पा में  अश्वों के जीवाश्म नहीं पाए जाने के आधार पर घोड़ों से अपरिचित होने की दलील में भी कोई ख़ास दम नहीं है। सच तो यह है कि हड़प्पा स्थलों की खुदाई और भारत के अंदरूनी हिस्सों की खुदाई से भी आर्यों के कथित आक्रमण-काल (१५०० ईसापूर्व के बाद) से भी पहले के समय के अश्व-जीवाश्म मिले हैं। ब्रयांट इस बात का उल्लेख करते हैं कि ‘४५०० ईसा पूर्व में भारत में घोड़ों के उपस्थित होने के प्रमाण राजस्थान में अरावली पहाड़ी की गोद में बसे बागोर की खुदाई में मिलते हैं (घोष १९८९a, ४)। बलूचिस्तान के  रन घुंडई में ई जे रौस के द्वारा करायी गयी खुदाई में घोड़े के दाँत मिलने की सूचना है (गुहा और चटर्जी १९४६, ३१५-३१६)। सबसे रोचक बात तो यह है कि इलाहाबाद के पास मगहर की खुदाई घोड़े की हड्डियाँ  मिली हैं जिनके छह नमूनों की कार्बन डेटिंग करने पर उनकी अवस्था २२६५ ईसापूर्व से लेकर १४८० ईसा पूर्व तक की मिलती है (शर्मा, १९८०, २२०-२२१)। उससे भी ख़ास बात तो यह है कि कर्नाटक के हल्लर नामक उत्खनन स्थल से नव पाषाण काल के १५००-१३०० ईसा पूर्व के घोड़ों की अस्थियों के अवशेष प्राप्त हुए  हैं। इसकी पहचान के आर अलूर (१९७१, १२३) नामक प्रसिद्ध पुरा-जंतुविज्ञानी ने करायी। सिंधु घाटी और इसके आस-पास फैले  क्षेत्रों में १९३१ की शुरुआत में सेवल और गुहा ने असली घोड़ों की उपस्थिति के प्रमाण की सूचना दी। ख़ासकर  मोहन-जो-दारो में ही ‘एक़ूस केबेलस (equus caballus)’ प्रजाति के उपलब्ध होने के अवशेष मिले हैं। आगे चलकर १९६३ में हड़प्पा, रोपर और लोथल  के क्षेत्रों से इनके होने के प्रमाण की पुष्टि फिर भोलानाथ ने की।  मौरटाइमर ह्वीलर  तक ने इस क्षेत्र से मिली घोड़ों की आकृतियों की पहचान की है और यह स्वीकारा है कि इस बात के प्रबल संकेत हैं कि सिंधु घाटी और इसके आस-पास के क्षेत्रों में ऊँट, घोड़े और गदहे बहुतायत में पाए जाते थे। इस बात का दूसरा सबूत १९३८ में मैके ने दिया। उन्होंने मोहन-जो-दारो से मिली चिकनी मिट्टी की बनी घोड़े की एक अनुकृति का हवाला दिया। प्रारंभिक डयनेस्टिक काल (यूनान के संदर्भ में ऊपर और नीचे के प्राचीन यूनान के एकीकरण का काल जो ३१५० ईसापूर्व से २६८६ ईसा पूर्व का है और मेसोपोटामिया या सूमर के संदर्भ में २९०० से २३५० ईसा पूर्व का वह काल जब सूमेर एक से अन्य वंशानुगत प्रणाली पर शासित  राज्यों में विभाजित होकर राजाओं के अधिकार क्षेत्र में आ गया) और अक्कडियन काल (२३४० और २२५० ईसापूर्व का वह काल जब अक्कड अर्थात अगेड शहर के शासकों ने फिर से सूमेर का एकीकरण किया) के बीच के समय की एक अश्वाकृति की सूचना  पीगौट (१९५२, १२६,१३०) ने दी है जो सिंधु घाटी के पेरियानो घुंडई नामक स्थल से प्राप्त हुई है।  हड़प्पा से प्राप्त कथित गधों की हड्डियों की फिर से जाँच की गयी है और इस बात की पुष्टि की गयी है कि ये हड्डियाँ गधों की न होकर घोड़ों की हैं (शर्मा १९९२-९३, ३१)। इसी तरह के और भी सबूत अन्य  सिंधु-घाटी-स्थलों से भी मिले हैं जैसे कालिबंगा (शर्मा १९९२-९३, ३१), लोथल (राव १९७९), सुरकोटदा (शर्मा १९७४), माल्वाँ (शर्मा १९९२-९३, ३२)। बाद में चलकर अन्य स्थलों यथा स्वात घाटी (स्टैकुल १९६९), गुमला (संकालिया १९७४, ३३०), पिरक (जैरिज १९८५), कुंतसि (शर्मा १९९५, २४) और रंगपुर (राव १९७९, २१९) से भी इस बात के प्रचुर सबूत मिले हैं (ब्रयांट २००१:१६९-१७०)। मध्य प्रदेश की चम्बल घाटी के कायथ क्षेत्र से मृणमूर्त्ति या टेराकोटा (एक इतालवी शब्द जिसका अर्थ पकी मिट्टी होता है) की बनी अश्व-आकृतियाँ मिली हैं। यह २४५० से २००० ईसापूर्व के ताम्र युग की मूर्तियाँ हैं। लोथल में शतरंज की विसात पर चलने वाले घोड़े की आकृति मिली है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र के सुरकोटदा से मिली आकृति के बारे में प्रामाणिक अश्व विशेषज्ञों ने भी पुष्टि की है, “जे पी जोशी ने १९७४ में सुरकोटदा से खुदाई कर आकृतियाँ निकाली। उसके तुरंत बाद ए के शर्मा ने इन हड्डियों सहित इस स्थल के भिन्न-भिन्न स्तरों से प्राप्त हड्डियों के बारे में उनके घोड़ों की हड्डी होने की पुष्टि की और इनका काल २१००-१७०० ईसापूर्व निर्धारित किया। ‘एक़ूस एसिनस’ और ‘एक़ूस नेमियोनस’ प्रजाति के घोड़ों की हड्डियों और खुरों के अवशेष के साथ-साथ अंगुलियों और टखनों की हड्डी, उनके सामने के कृंतक दाँत (इन्साइज़र) और दाढ़ों के चवर्ण दाँत के भी अवशेष मिले हैं। साथ-साथ ‘एक़ूस केबेलस लीन’ प्रजाति की हड्डियों के अवशेष भी मिले हैं (शर्मा १९७४, ७६)। बीस वर्षों के बाद भारतीय पुरातत्व परिषद (Indian Archeological  Society) के वार्षिक समारोह के उद्घाटन में मंच पर यह उद्घोषणा की गयी कि हंगरी के रहने वाले दुनिया के एक जाने माने पुरातत्वविज्ञानी जो घोड़ों के विशेषज्ञ थे, श्री सेंडर बोकोंयी, ने दिल्ली के एक अधिवेशन में भाग लेने के बाद घोड़ों की इन अस्थियों के अवशेष का गहन परीक्षण किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ये अस्थियाँ ‘एक़ूस केबेलस’ प्रजाति के पालतू घोड़ों की थीं – “इन प्रजाति के असली घोड़ों की पहचान उनके ऊपरी और निचले जबड़े के दाँतों की आकृति और कृंतक एवं चवर्ण दाँतों की बनावट के आधार पर प्रामाणिक रूप से की गयी है। पृथ्वी की नवीनतम भौगोलिक परतों के निर्माण के बाद से भारत में जंगली घोड़ों के पाए जाने के कोई चिह्न नहीं मिलते हैं। इस आधार पर इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि सुरकोटदा के घोड़े पूरी तरह से पालतू और घरेलू प्रकृति के थे (१९९३बी, १६२; लाल १९९७, २८५)”।

‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के पैरोकार विद्वान या तो इस बात पर पूरी चुप्पी साध लेते हैं या इसे सिरे से नकार देते हैं। हॉक ने मध्य मार्ग का सहारा लिया है और वह स्वीकारते हैं कि “जहाँ तक पुरातात्विक सबूतों के आधार पर पालतू घोड़ों के हड़प्पा की पहचान होने का प्रश्न है, अभी भी सवालों के घेरे में है। इस विषय में चेंगप्पा (१९९८) द्वरा संग्रहित तर्कों के सार को देखा जा सकता है।“ हॉक इस बात को और विस्तार देते हुए कहते हैं कि “सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जहाँ तक मेरे ज्ञान का विस्तार है, हमारे संज्ञान में हड़प्पा के स्थलों से प्राप्त ऐसे किसी भी पुरातात्विक सबूत का वजूद नहीं है जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी। कुल मिलाकर घोड़ों के साक्ष्य की बात आर्यों के भारत में घुसने की ओर ज़्यादा संकेत करता है बनिस्पत इस बात के कि वे भारत से निकलकर बाहर की ओर गए (हॉक १९९९a :१२-१३)।“

लेकिन ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के समर्थकों और यहाँ तक कि ख़ुद हॉक का भी यही कहना है कि आर्य यूक्रेन और दक्षिणी रूस के मैदानी भागों से अपने साथ दो पहिए वाले युद्धक रथ और घोड़े लेकर चले थे। बहुत दिनों तक वे मध्य एशिया के बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र (Bactria Margiana Archaeological Complex/BMAC) में जमे रहे जहाँ उन्होंने भारतीय-ईरानी संस्कृति का विकास किया और  उस क्षेत्र के ढेर सारे स्थानीय शब्दों से अपनी शब्दावली को समृद्ध किया। उसके बाद वहाँ से १५०० ईसापूर्व वे पंजाब में घुसे, १२०० ईसापूर्व में उन्होंने ऋग्वेद रच डाली, पूरब की ओर गंगा के मैदानी भागों में प्रवेश किया, वहाँ यजुर्वेद लिख ली और फिर धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में वे पसर गए। अब यहाँ वे किसी भी पुरातात्विक सबूत को सामने लाने में पूरी तरह असफल हो जाते हैं जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी! 

क - इस बारे में एक ख़ास बात ग़ौर करने लायक़ है कि आर्यों के तथाकथित भ्रमण पथ पर यूक्रेन से लेकर मध्य एशिया और पंजाब होते हुए उत्तरी भारत में भीतर पूरब की ओर बढ़ने तक के रास्ते में अभी तक घोड़ों या रथों को लेकर  किसी भी तरह के ऐसे पुरातात्विक सबूत काल की उस परिधि में उपलब्ध नहीं हो पाए हैं जिसमें ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ का पहिया घूम सके। 

ख - दूसरी बात ब्रायंट (२००१:१७३-१७४) की ध्यान देने वाली है। वे कहते हैं कि “एक दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है जिसे अधिकांश विद्वानों ने भी मान लिया है। सभी इस बात को मानने के लिए तैयार हैं कि बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे,  मूलतः भारतीय-आर्य-संस्कृति का क्षेत्र है। इस संस्कृति में घोड़े क़ब्र में शव के साथ दफ़नाए जाने वाले संकेतों के रूप में सामने आते हैं। फिर भी, भले ही ढेर सारे जानवरों की हड्डियाँ खुदायी में मिली हों लेकिन उनमें घोड़ों की हड्डियाँ कभी नहीं मिली। यह फिर से इस बात को बल देता है कि घोड़ों की हड्डियों का खुदाई में नहीं पाया जाना घोड़ों का ‘नहीं होना’ नहीं है। और हड्डियों के इस नहीं होने के आधार पर क्या हम यह कह सकते हैं कि इस क्षेत्र के वाशिंदे भारतीय-आर्य ही नहीं थे। तो फिर यह तर्क भला कैसे गले उतर सकता है कि खुदाई में घोड़ों की हड्डियों के नहीं होने के बावजूद मध्य एशिया के इस क्षेत्र के वाशिंदों को आप भारतीय-आर्य स्वीकार लें और थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर सिंधु घाटी की वैदिक भूमि में इन्हीं परिस्थितियों को सिरे से नकार दें। तो फिर सबूत तो यही दर्शाते हैं कि मध्य एशिया के इस  ‘बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र’ में घोड़ों के साथ रहने वाले आर्य भारत से निकले ‘अणु’ और ‘दृहयु’ जनजाति के आर्य थे न कि भारत की ओर आने वाले आर्य!

ग – ‘आर्यों’ के द्वारा दक्षिण एशिया और यूक्रेन से लाए गए जिन वैदिक रथों की चर्चा हॉक करते हैं उनमें से कोई एक भी नमूना उस काल गणना में भारत के किसी भी क्षेत्र से पुरातात्विक अवशेष के रूप में नहीं मिला है। रथों को प्रदर्शित करता सबसे प्राचीन पाषाण उत्कीर्णन ३५० ईसापूर्व  के बाद का मौर्य काल का मिला है।

घ – सही बात तो यह है कि १५०० ईसापूर्व से ३५० ईसापूर्व के बीच में पंजाब और हरियाणा के किसी भी क्षेत्र से घोड़ों की हड्डियों के अवशेष मिलने का दृष्टांत नगण्य ही है। एक- दो छिटपुट मामले ज़रूर हैं जैसे हरियाणा के पूर्वोत्तर भाग में भगवानपुर और भागपुर से १००० ईसापूर्व काल की हड्डियाँ मिली हैं। किंतु, इससे यह बात नहीं बन जाती “जो इस बात का प्राचीन भारोपीय या वैदिक परम्पराओं में घोड़ों द्वारा खिंचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों के संदर्भ में इस बात की पुष्टि कर सके कि उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में इन घोड़ों की कोई अहम भूमिका थी।“ और ना इससे १२०० ईसापूर्व के बाद की स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन ही इंगित होता है। यह भी ग़ौरतलब है कि घोड़ों की हड्डियों के जो सबसे प्राचीन अवशेष मिले वे पश्चिमोत्तर भारत के पूरबी इलाक़े (पूर्वोत्तर हरियाणा) और दक्षिणी इलाक़े (कच्छ) से मिले। ‘बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र’ से लेकर वृहत पंजाब तक किसी भी प्रकार के कथित ‘आर्य अश्व अस्थि’ के मिलने की कोई जानकारी नहीं है। इस बारे में ‘ब्रितानिका एंसाइक्लोपीडिया’ के १५ वें संस्करण में खंड ९ के पृष्ट ३४८ पर भारतीय पुरातत्व के विषय में प्रकाशित तथ्य भी ध्यान खिंचने वाला है, “फिर भी, यदि ठीक-ठीक कहें तो सबसे हैरत में डालने वाली बात यह है कि भारत के उन क्षेत्रों में आर्य-भाषा नहीं पहुँच पायी जहाँ लोहे और घोड़ों का प्रचलन था। आज तक ये क्षेत्र द्रविड़ भाषा समूह के ही भू-भाग हैं।“

विजेल भी शुरू में तो दावा करते हैं कि ‘ग्रंथ और भाषाओं के अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय आर्य तत्वों से इतर कुछ बाहरी भाषायी और सांस्कृतिक लक्षण हैं जो घोड़ों और आरेदार पहिए वाले रथों के साथ बैक्ट्रिया-मर्जियाना-पुरातात्विक-क्षेत्र (बीएमएसी) के रास्ते दक्षिणी एशिया के पश्चिमोत्तर प्रांतों में प्रवेश कर गए थे।‘ किंतु, शीघ्र ही अपने दावों को यह कहते हुए ख़ारिज करते दिखते हैं कि “फिर भी, आज के पुरातत्व-ज्ञान का अधिकांश इस धारणा को नकारता है […………] अभी तक इस बात के कोई पुख़्ता पुरातात्विक प्रमाण नहीं पाए गए हैं (विजेल २०००a:$१५)।

इसलिए जब तक इसी बात को स्वीकारने की इच्छा-शक्ति न हो कि इस धरा पर ‘वैदिक-आर्य’, ‘वैदिक अश्व’ और ‘वैदिक रथों’ का कोई अस्तित्व था, तब तक हड़प्पा की खुदाई से अश्व-अस्थियों की तथाकथित अनुपस्थिति के इन तमाम तर्कों के जाल की बुनावट न केवल बेमानी है, बल्कि बौद्धिक धोखाघड़ी और बेमतलब की भी है। ‘घोड़ों की हड्डियों के नहीं पाए जाने के बावजूद काल के एक खंड में बीएमएसी और पंजाब में आर्यों की उपस्थिति पर अड़ियल रूख अपनाना और ठीक ऐसी ही परिस्थिति में हड़प्पा में इन हड्डियों के नहीं पाए जाने पर उनकी उपस्थिति को सिरे से नकार देना’ इसे विमर्श की किस कसौटी पर बौद्धिक कहा जाय!

३ – भाषायी सबूत इस बात को पूरी तरह नकारते हैं कि जब तक ‘आर्य’ यूक्रेन के मैदानी भाग से अपने साथ घोड़ों को लेकर नहीं आए थे तब तक भारत के अनार्य-भाषी लोगों को घोड़ों की जानकारी नहीं थी। इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि ये घोड़े जिन्हें चाहे पश्चिमोत्तर की सरहदों के पार के अजूबे जानवर कह लें या घरेलू और पालतू मवेशी, पूरी तरह से भारत के ‘अनार्य’ निवासियों की ज़िंदगी में रचे बसे थे। तलगेरी जी ने अपनी पहली पुस्तक में इस रोचक बात का ख़ुलासा किया है कि “यदि घोड़ों के लिए संस्कृत भाषा में प्रयुक्त कुछ ख़ास नामों की चर्चा करें तो हमें कई नाम मिल जाते हैं जैसे – अश्व, अर्वंत या अर्व्व, हय, वाजिन, सप्ति, तुरंग, किल्वी, प्रचेलक और घोटक। आज तक इन शब्दों से उधार लिए गए घोड़े के किसी भी समानार्थक शब्द का द्रविड़ भाषाओं में लेश मात्र भी नहीं मिलता। ख़ास शब्द कुडिरय, परी, और मा [….]। संथाली और मुंडारी  भाषाओं ने  कोल-मुंडा भाषा के मौलिक शब्द ‘साड़ोम’ को संरक्षित कर लिया है। भाषाविदों द्वारा आज तक द्रविड़ और कोल-मुंडा भाषाओं में घोड़े के लिए किसी ‘आर्य शब्द को उधार लेने के दावे की बात तो दूर रही, उलटे इस बात को मानने पर ज़ोर ज़्यादा रहा कि संस्कृत का ‘घोटक’ शब्द जिससे आधुनिक आर्य भाषाओं में घोड़े के लिए अनेक शब्दों का जन्म हुआ है, स्वयं कोल-मुंडा भाषाओं से उधार लिया गया है (तलगेरी १९९३:१६०)।“ 

ऊपर की बातों की प्रतिध्वनि यहाँ तक कि विजेल के वक्तव्य में भी सुनायी देती है, “पालतू  जानवरों के लिए भारतीय-आर्य और द्रविण  भाषाओं के शब्द एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। जैसे – तमिल (इवली, कुडिरय), तमिल (परी – दौड़नेवाला, मा – जानवर, घोड़ा,हाथी), तेलगु (मावु – घोड़ा), नहली (माव -घोड़ा) आदि। इन शब्दों का भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत के समानार्थी शब्दों अश्व (घोड़ा) या दौड़ने वाला (अर्वंत, वाजिन आदि) से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं दिखायी देता है। स्पष्ट तौर पर घोड़ों के इश्तेमाल का कोई ताल्लुक़ भारतीय-आर्य भाषा बोलने वालों से कतई नहीं है (विजेल (२०००:१५)।“  अतः यह बात साफ़ है कि आर्यों का आक्रमण अनार्यों के द्वारा घोड़ों के इश्तेमाल की वजह कभी नहीं बना। 

२००२ में राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समाचार पत्र में अपने एक लेख में विजेल ने यह दावा किया कि भारत की अनार्य-भाषाओं के शब्द पश्चिम एशिया के भिन्न-भिन्न भागों, यहाँ तक कि चीन से उधार लिए गए हैं। ज़ाहिर है, इस बात पर उन्होंने रहस्यमय चुप्पी साध ली कि इस उधारी की प्रक्रिया के क्या कारण थे और द्रविड़ जीवन में उनके प्रवेश के  वे कौन से तरीक़े, चरण या रास्ते थे जिनके आधार पर उन्होंने वैसे शब्दों को उधारी के शब्द घोषित कर दिया जो द्रविड़ भाषाओं के आम-जीवन के केंद्र में रच-बस गए थे। हालाँकि, इन तमाम बातों के बावजूद यह सत्य बना ही रहा कि अनार्य-भाषी भारतीय घोड़ों के इश्तेमाल से पहले से परिचित थे और इसका कारण जो कुछ भी रहा हो, आर्यों का आक्रमण कदापि नहीं रहा।

४ – ऋग्वेद के साहित्य इस इतिहास-बोध का पूरा सबूत देते हैं कि पुराने मंडलों के काल से ही घोड़े आम जीवन में एक महत्वपूर्ण और आदर के पात्र पालतू जानवर थे। स्वाभाविक तौर पर यह भी लाज़िमी है कि ‘अणु’ और ‘दृहयु’ के इलाक़ों में पाए जाने वाले अनोखे और बेशक़ीमती घोड़ों से वैदिक आर्य भी ३००० ईसापूर्व पूरी तरह वाक़िफ़ अवश्य होंगे। आगे चलकर आरेदार पहिए वाले रथ का अविष्कार होते ही नए मंडलों के रचे जाने तक ये घोड़े आम जीवन के हिस्से बन गए थे:

क – ‘स्पोक’ के लिए ‘अरा’ शब्द का प्रयोग नए मंडलों (५, १, ८, ९ और १०) में ही मिलता है।

पाँचवाँ मंडल – १३/६, ५८/५

पहला मंडल – ३२/१५, १४१/९, १६४/(११, १२, १३, ४८)

आठवाँ मंडल – २०/१४, ७७/३

दसवाँ मंडल - ७८/४


ख – उसी तरह ‘अश्व’ और ‘रथ’ शब्द भी पहली बार नए मंडलों में ही प्रकट होते हैं।

पाँचवाँ मंडल – २७/(४, ५, ६), ३३/९, ३६/६, ५२/१, ६१/(५, १०), ७९/२

पहला मंडल – ३६/१८, १००/(१६, १७), ११२/(१०, १५), ११६/(६, १६), ११७/(१७, १८), १२२/(७, १३)

आठवाँ मंडल – १/(३०, ३२), ९/१०, २३/(१६, २३, २४), २४/(१४, २२, २३, २८, २९), २६/(९, ११), ३५/(१९, २०, २१), ३६/७,                      

                   ३७/७, ३८/८, ४६/(२१, ३३), ६८/(१५, १६)

नवाँ मंडल – ६५/७

दसवाँ मंडल – ४९/६, ६०/५, ६१/२१


ग – ऋचाओं के रचनाकारों के नाम में भी ये शब्द पाए जाते हैं।

पाँचवाँ मंडल – सूक्त ४७, सूक्त ५२ – ६१, सूक्त ८१ -८२।

पहला मंडल – सूक्त संख्या १००।

दसवाँ मंडल – सूक्त – १०२, सूक्त – १३४।

माना जाता है कि इंद्र को पश्चिमोत्तर के रहस्यों से अवगत कराने वाले भृगु ऋषि, दध्यांच के पास घोड़े का सिर था (पहला मंडल - ११६/१२, ११७/२२, ११९/९)। भृगु (४/१६/२०) और अणु (५/३१/४) को ही इंद्र के लिए रथ बनाने का श्रेय दिया जाता है। यह अपने आप में घोड़ों और रथों से संबंधित अनुसंधान और अविष्कार के प्रवाह की दिशा दर्शाता है। भले ही, ज़ाहिर तौर पर यह वैदिक आर्यों के ख़ुद के भ्रमण की दिशा न दिखलाता हो। 

भले ही, घोड़े भारत की मिट्टी के न हों, प्रोटो-भारोपीय लोगों को उनकी मूल भूमि में ये उनसे भली-भाँति परिचित थे। और साथ ही, इस तथ्य की पटरी भी  ‘भारत-भूमि-अवधारणा’ से बैठ जाती है। 


21 comments:

  1. A well researched article by Vishwamohan.While the great epic poems of ancient India, the Ramayana as well as the Mahabharata, bear testimony to the emergence of the horse from the ocean, another origin myth that has stood the test of time chronicles the descent of horses from the heavens. The legend identifying horses as originally winged celestial creatures is mainly preserved within the Shalihotra or Ashvashastra (the discipline of the horse) genre of Indian literature.

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    1. Thanks Nilank.Mythology occupies the blurred region between fact and fiction.
      You seem to be quite knowledgeable about horses...can understand why you have been horsing around !!😜

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    3. True. Your उवाच makes sure that I am off ground on all the four feet and gallop to make sure that you too imitate and spiff up yourself with wings and horse around!!!🤩

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  2. अनमोल शोध आलेख।

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  3. उपयोगी शोध आलेख।

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 7 जुलाई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. बहुत बहुत उपयोगी लाभप्रद लेख

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  6. सुंदर ज्ञान वर्धक आलेख

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  7. बहुत ही सारगर्भित लेख,बहुत आभार आपका विश्वमोहन जी।

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  8. घोड़ों के ऐतहासिक और सर्वकालिक महत्व को उजागर करता एक और शोध लेख आदरणीय विश्वमोहन जी | सभी शोध यही इंगित करते हैं कि घोड़े भारतीय मिटटी के नहीं बने | जब से भारत भूमि से परिचित हुए यहाँ इनका सामरिक , सामाजिक , व्यापारिक इत्यादि उद्धेश्यों के लिए उपयोग सदा सर्वदा बना रहा |मध्य प्प्र्देश की चंबल घाटी से घोड़े की पकी मिटटी की मूर्ति मिलना कहीं ना कहीं तत्कालीन जीवन का घोड़े से परिचय को इंगित करता है |लोथल और गुजरात के कच्छ क्षेत्र के सुरकोटदा से घोड़े की मूर्तियाँ मिलना भी रोमांचक है | घोड़े ऋग्वेद में सूर्य , इंद्र , मारुत इत्यादि के रथों का श्रृंगार बने और युद्ध भूमि में वफादारी से स्वामी की रक्षा के लिए एक मत्वपूर्ण कवच बने रहे |भारतीय ना होकर भी वैदिक साहित्य और जनजीवन का अभिन्न हिस्सा बनना घोड़ों के प्रति भारतभूमि और भारतवंशियों के असीम आत्मीय भाव को दर्शाता है |रोचक शोध लेख श्रृंखला के महत्वपूर्ण लेख के लिए आपका कोटि आभार | ये श्रम ना जाने कितने जिज्ञासुओं का पथ प्रशस्त करेगा | पुनः आभार |

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    1. आपकी सारगर्भित और विस्तृत टिप्पणी का अत्यंत आभार।

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  9. वाह!बहुत ही अनमोल ओर महत्वपूर्ण आलेख ।

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