मैं अयप्पन!
मणिकांता, शास्ता!
शिव का सुत हूँ मैं!
और मोहिनी है मेरी माँ!
चलो हटो!
आने दो
माँ को मेरी.
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
छाया में
ममता से भींगी
मातृ-योनि की अपनी!
अब जबकि
सुलझा दिया
है सब कुछ
माँ ने ही मेरी
बांधे पट्टी
आँखों में और
लिये तुला हाथों में.
लटके रहे जिसके
हर पल!
पकड़कर कस के
तुम एक पलड़े पर!
क्या कहा!
है वय
उसकी
दस से पचास!
माहवारी मालिन्य,
नारीत्व का नाश!
तीन लहरों से धुलती
तीर पर सागर के
निरंतर
'कन्याकुमारी'.
माँ नहीं तुम्हारी!
पूजते हो,
या ढोंगते हो केवल!
कैसा 'धरम' है रे तुम्हारा!
कहता है
अपवित्र
'धरम' को!
मेरी माँ के!
जो है
जैविक, स्वाभाविक और
'मासिक'!
जिसका
'होने के श्री-गणेश'
और
'न होने के पूर्ण विराम'
के मध्य
किसी विराम-बिंदु पर
'न होना'
बीज-वपन है
कुक्षी में.
तुम्हारे
'होने'
का!
कवलित कुसुम हो न,
तुम
'अधरम-काल' के!
दो मुक्ति
अपनी मरियल मान्यताओं से!
बेचारी 'माँ' को.
कर्कश कुविचार कश
में कसी.
या, फिर पोंछ दो
मुंडेरों से मेरी
'तत्त्वमसि'!
है यह गेह मेरा,
पेट भरे थे
माँ शबरी ने
तुम 'पुरुष'-उत्तम के!
जूठे बेर से!
यहाँ!
अब कबतक सहेगा
'बैर' तुम्हारा
मेरी माँ से
यह
'हरिहर-पुत्र'
शबरीमाला का!
छोडो छल!
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
आने दो,
माँ को,
मेरी!
नमन
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteआह , क्या बहुत ही खूब लिखा है विश्वमोहन जी .... दो मुक्ति
ReplyDeleteअपनी मरियल मान्यताओं से!
बेचारी 'माँ' को.
कर्कश कुविचार कश
में कसी.
या, फिर पोंछ दो
मुंडेरों से मेरी
'तत्त्वमसि'!... just say waaaaah
जी, बहुत आभार आपका।
Deleteजी, अत्यंत आभार।
ReplyDeleteदो मुक्ति
ReplyDeleteअपनी मरियल मान्यताओं से!
बेचारी 'माँ' को.
कर्कश कुविचार कश
में कसी.
या, फिर पोंछ दो
मुंडेरों से मेरी
'तत्त्वमसि'!
वाह!!!
अद्भुत, उत्कृष्ट एवं लाजवाब सृजन।
जी, बहुत आभार आपका।
Deleteअपनी तरह की आप और एक असाधारण विषय को इंगित करती रचना आदरणीय विश्वमोहन जी। यदि भगवान अयप्पन को वाणी मिल जाए तो उनके यही उद्गार हों !!आखिर एक पुत्र का देवत्व कैसे संपूर्ण होगा, जब तक वोअपनी मां और अन्य मां सरीखी नारियों के तिरस्कार का प्रतिकार ना कर ले। एक मां को उसकी बात के लिए दोषी माना जाए जिसमें उसकी रत्ती भर भी भागेदारी नहीं और उसका वही गुणधर्म सृष्टि का भी आधार हो तो ये कथित पोंगा पंडितों का छद्म आचरण मात्र एक षड्यंत्र है और कुछ नही। जहाँ नारी की पूजा का दम भरा जाता हो उस जगह पर उसके प्रति ऐसा आचरण क्यों मान्य हो?? शबरी जैसी महात्मा नारी की अनन्य भक्ति के साक्षी उस भूखंड में भगवान अयप्पन का ये उद्बोधन शबरीमाला मंदिर की जड़ व्यवस्था को खंडित करने के लिए काफी है। एक सार्थक सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं। सादर🙏🙏💐💐🙏🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपकी सारगर्भित समीक्षा का!
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