Monday, 19 November 2018

टहकार!

भींगी रात यादों की। 
सूखा रही अब धूप, विरह की ।  
निगोड़ी रात अलमस्त! 
सुखी! न सूखी।  
उल्टे, भींगती रही धूप। 
खुद ! रात भर। 
ढूंढता रहा आशियाना सूरज।
 धुंध में चांदनी की । 
और अकड़ गया है चांद, एहसासों का। 
आसमान मे, होकर और टहकार


टहकार - गहरा चमकीला रंग।

Friday, 9 November 2018

अकेले ही जले दीए!

अकेले ही जले दीए
मुंडेर पर इस बार।
न लौटे जो कुल के दीए
गांव, अबकी दिवाली पर।
भीड़ गाड़ी की
आरक्षण की मारामारी
सवारी पर गिरती सवारी
भगदड़ में भागदौड़।
और किराए की रकम,
लील जाती जो लछमी को!

उधर उम्मीदों के दीयों को
आंसूओं का तेल पिलाती
 'व्हाट्सअप कॉल '
में खिलखिलाती
पोते- पोती सी आकृति
अपने पल्लुओं से
पोंछती, पोसती
बारबार बाती उकसाती!
पुलकित दीया लीलता रहा
अमावस को।

उबारता गुमनामी से
गांव - गंवई को ,
सनसनाती हवाओं की
शीतल लहरी पर,
तैरता सुदूर बिरहे का स्वर।
उधर गरजता, दहाड़ता
पूरनमासी - सी
सिहुराती रोशनी में,
दम दम दमकता
दंभी शहर!