Saturday 7 December 2019

ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ

बहशी दरिंदों ने उसकी देह के तार-तार कर दिए थे। आत्मग्लानि से  काँपता शरीर निष्पंद हुआ जा रहा था। साँसे सिसकियों में उसके प्राणतत्व को समेटे निकल रही थी। रोम-रोम खसोट लिया था उन जानवरों ने। कपड़े चिथड़े-चिथड़े हो गए थे। माटी खून से सन गयी थी।
एक दरिंदे ने पेट्रोल छिड़कना शुरू किया। दूसरे ने माचिस निकाली। तीसरे ने रोका, 'अब सब कुछ तो ले लिया बेचारी का, जान तो बख्श दो।'
चौथे ने चेताया, 'अरे गंवार, बुद्धिजीवियों की सोहबत में तो तू रहा नहीं। तू क्या जाने 'ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ' और 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर क्राइम'। तीसरा दाँत खिंचोरा, 'ये क्या है गुरु?'
'सुन', चौथे ने बकना शुरू किया, 'अगर इसे छोड़ देगा तो इसके ये फटे कपड़े, इसका यह खून, सब गवाह बनेंगे। लटक जाएगा साले, फाँसी पर। और यदि जला के भसम कर दिया तो कुछ भी नहीं बचेगा।'
 दूसरे ने दाँत निपोरते तीली जलाई।
'और जला के भसम करने से 302 जो चलेगा', चौथे ने सवाल दागा।
'हूँह! 302 चलेगा तो 'ड्यू प्रॉसेस ऑफ लॉ' चलेगा। तब यह बलात्कार का केस नहीं होगा। मडर केस होगा। बरसों तक गवाही होगी। 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर क्राइम' नहीं होगा। बहुत जादे होगा तो 'चौदह बरसा' होगा।
पहले से मर चुकी आत्मा की देह धू-धू कर जल रही थी। 'ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ' के आकाश में 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर क्राइम'  का अट्टहास गूंज रहा था।

23 comments:

  1. विश्वमोहन जी, आप जानते हैं कि मैं इस पुलिस-एनकाउंटर को फ़ेक एनकाउंटर मानता हूँ. इन्हीं पुलिस कमिश्नर साहब के नेतृत्व में सीन रिक्रिएशन प्रोसेस में वारंगल में, 2008 में, तीन आरोपी भागते हुए मारे गए थे. आप कवि हैं, आपकी कल्पना बहुत अच्छी होती है लेकिन इस पुलिस कमिश्नर की कल्पना तो आपकी कल्पनाओं से भी ऊंची है, इसलिए वो मुझको को हज़म नहीं हो पाई.
    दरिंदों को सज़ा तो मिलनी ही चाहिए. लेकिन पुलिस अगर सतर्क होती तो ऐसी घटना होती ही नहीं. यही वह पुलिस थी जिसने कि इस लड़की के लापता होने की रिपोर्ट तक दर्ज करने में घंटों का विलम्ब कर दिया था. तीन पुलिसकर्मी इसी वजह से निलंबित भी किए गए हैं.
    हमारी क़ानून व्यवस्था बहुत शिथिल और भ्रष्ट है लेकिन हमारी पुलिस-व्यवस्था उस से भी अधिक शिथिल और भ्रष्ट है.

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    1. कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का यह काला अध्याय है। लेकिन सबसे बड़ा सच यह है कि समाज का अस्तित्व उसकी संस्थाओं के justification से ज्यादा महत्व पूर्ण है। संस्थाएं और व्यवस्था समाज के लिए है न कि समाज इनके लिए। उद्भव और विकास के चरणों मे, चाहे वह जैविक हो, वैचारिक हो या भौतिक, अनुपयोगी अंग स्वतः नष्ट हो जाते हैं और उसका स्थान वे उपयोगी अंग ले लेते हैं जो उसके अस्तित्व के पोषण में फंक्शनल होते हैं। यहीं जीव विज्ञान में लामार्क से लेकर डार्विन और समाजशास्त्र में पारसंस (थ्योरी ऑफ फुंक्शनलिज़्म) तक ने साबित किया है। इसलिए यदि 'हैदराबाद' भी आज की व्यवस्था के तहत 'ड्यू प्रोसेस ऑफ लॉ' में जाता तो वह 'उन्नाव' बनकर आता। 'कलेक्टिव काँसेन्स' आज इसी बात को रेखांकित कर रहा है। इसलिए यदि बुद्धिजीवियों ने व्यवस्था में माकूल और प्रभावी परिवर्तन का कोई ठोस समाधान नहीं दिया तो वे अपनी प्रासंगिकता खो बैठेंगे और जनता अब स्वयं अपने न्याय की तलाश का रास्ता ढूढने लगेगी।🙏🙏🙏

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    2. आदरणीय बहुत अच्छा लिखा है आपने. कानून व्यवस्था समाज की रक्षा के लिए है यदि समाज ही उससे संतुष्ट न हो पाए तो जन आक्रोश लाज़मी है. हो सकता है पुलिस ने गलत रास्ता अपनाया हो परंतु मानना तो पड़ेगा कि न्याय हुआ है. न्याय व्यवस्था की कमियों को देखते हुए आज हर अपराधी बेख़ौफ़ घूमता है उसके भीतर न कोई डर है न कोई संवेदना. न्याय की देवी की आँख में पट्टी बाँध कर उसे भी मनचाहे तरीके से नचाया जा रहा है. आखिर जनता कब तक सहेगी.. .

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    3. सत्य वचन। इसीलिए अब आज की जनता विशेषकर नई पीढ़ी उन थोथी आदर्शवादी दलीलों को बिल्कुल नहीं पचा पाएगी जिसका कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं। जनता को न्याय चाहिए, बस न्याय।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 07 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. चंद शब्दों में ही अपराधियों की मानसिकता का सटीक विश्लेषण ,सादर नमन आपको

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  4. बेहद हृदयस्पर्शी और सटीक प्रस्तुति

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  5. जब न्याय हुआ हो तब न...कहा नहीं जा सकता..चन्द रोकड़े के लिए अपना जमीर ही बेच देना यहाँ की पुरानी आदत है फिर पुलिसकर्मियों के खरीददारों की कमी थोड़े ही है
    बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।

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    1. बिल्कुल सही। बहुत आभारआपका।

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  6. चिन्तनपरक सृजन ।

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  7. आज के समय में हम एक ऐसे विशियास सर्कल में बंधे हैं की कई प्रश्न एक साथ उठने लगते हैं ... क्यों इस स्थिथि में आये ये कोई नहीं जानना चाहता ... बस दुहाई देने लगते हैं क़ानून की ... पर क़ानून क्यों ऐसा है, कोई ठोस सुझाव वाद-विवाद से परे सोच, सामाजिक बदलाव, तंत्र में बदलाव ... संभव है क्या ... शायद नहीं ... ये सब कोई नहीं जानने में विश्वास करता ... करोड़ों मुकद्दमें क्यों हैं जज नहीं हैं ... क्यों नहीं हैं ... इसपे चर्चा नहीं होगी ... दलीलें दलीलें, वकीलों का कोकस ... शायद किसी को कोई चिंता नहीं है ...
    पुलिस के ऐसे कृत्य डेटरेंट होगें इसमें मुझे विश्वास है ...

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    1. मौलिक सत्य। बहुत आभार इस हकीकत बयानी का।

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  8. बहुत शानदार लेखन ...पतन की ओर जा रहे समाज का सटीक चित्रण। मरती हुई संवेदना बखूबी कागज पर उतारी है आप ने ...नमन आपकी लेखनी को ...बहुत ही मार्मिक लेखन 🙏🙏🙏

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    1. इतने संवेदनशील विषय को पढ़कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रया देने का बहुत आभार.

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  9. आज के हालात का सटिक विश्लेषण।

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    1. जी, अत्यंत आभार। नये वर्ष की शुभकामनाएं।

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  10. 3आदरणीय विश्वमोहन जी . - लघुकथा में . किसी अभागी लडकी के जीवन का ये कडवा सच जरुर होगा , जब नरपिशाचों के चंगुल में आत्मग्लानि से भरी निरीह , बेबस वह यूँ ही छटपटाई होगी और हवस में आकंठ डूबे और दरिंदगी की हदपार करते नराधमों ने यूँ ही अट्ठहास किया होगा| अगर किसी निर्भया या दामिनी की बचने की कोई उम्मीद होती होगी , तो कानून के दांवपेंच उसके शत्रु बन जाते हैं -- जब इन दरिंदों को -रेयरेस्ट ऑफ रेयर क्राइम से ''ड्यू प्रोसेस ऑफ़ लॉ'' ज्यादा सरल और हितकारी नजर आता है | कुत्सित मानसिकता वाले इन वहशियों के लिए किसी भी सजा का प्रावधान कम है क्योंकि उनकी ये हैवानियत , कुछ पल में ही एक अपार संभावनाओं से भरी निर्दोष अनमोल देह को मिटा देती है |कहीं कठुवा , कहीं रांची , कहीं दिल्ली तो अब हैदराबाद | कहाँ सुरक्षित है बेटियां ? मर्मान्तक सत्य को उद्घाटित करती मार्मिक लघुकथा के लिए साधुवाद। 🙏🙏🙏




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    1. अत्यंत आभार आपकी भावपूर्ण समीक्षा।

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