Saturday, 1 February 2020

नारी और भक्ति

भावनाओं का प्रवाह सर्वदा उर की अंतस्थली से होता है। इसके प्रवाह की तरलता में सब कुछ घुलता चला जाता है और घुल्य  भी घोल के साथ समरूप होता चला जाता है। घुल्य का स्वरूप घोलक में विलीन हो जाता है और दोनों मिलकर घोल की समरसता में समा जाते हैं। घोलक के कण-कण में घुल्य पसर जाता है । दोनों  अभेद की स्थिति में आ जाते है । ठोस घुल्य अपने घोलक की तरलता को अपना अस्तित्व सौंप देता है। ठीक यहीं स्थिति भक्त और भगवान, प्रेमी और प्रेमिका, माँ और शिशु, गुरु और शिष्य तथा संगीत और साज के मध्य होता है। इनमें से एक दूसरे के प्रति समर्पण की चरम अवस्था में होता है तथा मनोवैज्ञानिक धरातल पर दोनो एकाकार होते हैं। अब प्रश्न उठता है कि  भावनाओं की इस संजीवनी के प्रस्फुटन और पल्लवन का मूल क्या है? कहाँ से इसका उत्स होता है? ममता, करुणा, वात्सल्य, प्रेम, समर्पण ये सभी वे मूल-तत्व हैं जो मानव मन को अपनी कमनीय- कलाओं से सजाकर उसमें एक ऐसी उदात्त भाव-धरा को रचते हैं जहाँ 'स्व' का लोप हो जाता है और 'आत्म' परमात्म को अपनी भाव-धारा में घुला लेता है और दोनों मन, बुद्धि तथा अहंकार के अवयवों से ऊपर उठकर आत्मिक सत्ता की स्थिति में पहुँच  जाते हैं। भावों के इसी पारस्परिक विलयन का ही नाम भक्ति है।  
नारी मनुष्य-योनि की वह सर्वश्रेष्ठ  रचना है जो सृजन की समस्त कोमल भावनाओं का स्त्रोत है। उसके उर से प्रवाहित ममता की धारा और मानवीयता की मंजुल-लहरें उसकी कुक्षी  को सिंचित करती हैं और उसमें अंकुरित होता सृजन का बीज-तत्व उसके समस्त भाव-संस्कारों का वहन करता हुआ मानव-संस्कृति और सभ्यता के तत्वों को उत्तरोत्तर संपुष्ट करता है। काल के भिन्न-भिन्न खंडों में मानव-सभ्यता को अपनी उदात्त  भक्ति-भावनाओं की संस्कृति-धारा से नारी ने सदैव प्रक्षालित किया है, चाहे वह वैदिक काल हो या भारतीय साहित्य के भिन्न-भिन्न कालखंड! पूजा-पद्धति का प्रारम्भिक काल भी नारी-स्वरूपा-प्रकृति को ही समर्पित रहा। गायत्री, अग्नि, सावित्री, भूमि , नदी, उषा, प्रत्यूषा, छाया, संध्या, रिद्धि, सिद्धि, लघिमा, गरिमा, अणिमा, महिमा  जैसी स्त्रैण सत्ताओं को समर्पित ऋचा-मंत्रों में भक्ति की धारा वैदिक और फिर उत्तर-वैदिक कर्मकांडों में भी इन्हीं नारी-स्वरूपा-शक्तियों में फूटी। मानव-मन की स्थिरता का हेतु भक्ति का भाव है। सामाजिक जीवन में समष्टि -भाव की स्थिरता का हेतु नारी है। अतः यायावर आदिम जीवन की भौतिक संस्कृति को एक स्थिर सामाजिक जीवन देने का सूत्र रचने वाली नारी ने मनुष्य के मन में आध्यात्मिकता के एक निष्कलुष  निविड़ का निर्माण कर उससे भक्ति-भाव की निर्मल नीर-धारा निःसृत की, तो यह सभ्यता का स्वाभाविक प्रवाह ही रहा होगा। प्रसव की पीड़ा से प्रसूत सृष्टि की प्रथम शिशु-संतति की किलकारी और मुस्कान के ममत्व की सुधा का पान नारी के ही सौभाग्य का सिंगार बना होगा। तो, फिर यह भी तय है कि सृष्टि के गर्भ की अधिकारिणी ने ही आध्यात्म की अमरायी में अपने मन की बुलबुल की पहली तान छेड़ी और अपने सहयात्री पुरुष को भी जगाया,
“हार बैठे जीवन का दाव 
मरकर जीतते जिसको वीर!”
 रामायण-काल के   ‘उद्भव-स्थिति-संहारकारिणिम क्लेशहारिणिम  सर्व-श्रेयष्करीम सीताम नतो अहम् राम वल्लभाम’  में भी वह पूज्या बनी रही। यह अलग बात है कि वाल्मीकि के काल में  चरण-स्पर्श कर राम जिस अहल्या का आशीष ग्रहण करते हैं वहीं अहल्या तुलसी के मध्य-काल तक आते-आते प्रस्तर-प्रतिमा बन जाती है और उसका उद्धार अब अपने चरणों से राम करने लगते हैं। काल की धारा में नारी की स्थिति का यह प्रवाह समाज के उत्तरोत्तर प्रदूषण की अंतर्गाथा है या यह कह लें कि पुरुष-सतात्मकता की ओर उन्मुख समाज में सर उठाती  सभ्यता के थपेड़े से आहत मूल मानव-संस्कृति की सिसकती दास्तान है। तभी तो रामायण के मर्यादा-स्थापना-काल से लेकर महाभारत के छल-कपट वाली सभ्यता-काल तक भी भगवान स्वयं पहुँचकर शबरी के जूठे बेर खा लेते हैं, अपनी भक्तिन द्रौपदी के अंग वस्त्रों से ढक लेते हैं, उत्तरा के गर्भ के प्रहरी बन जाते हैं, सती अनसूया के समक्ष ब्रह्मा-विष्णु-महेश नग्न बाल रूप में बदल जाते हैं और सावित्री के सामने यमराज घुटने टेक उसकी गोद में पड़े मृत पति सत्यवान को चिरायु के साथ- साथ उसे अखंड सौभाग्यवती और शत पुत्रवती होने का वरदान दे डालते हैं।  
जैसे-जैसे समय आगे बढा, नारी पुरुष की अहंता में स्वाहा होने लगी । लौकिकता-लोलुप-पुरुष ने  पहले नारी की शक्तिरूपा और फिर उसी की भक्ति को आधार बना उसे देवी रूप में इतना ऊँचा चढ़ाकर निरपेक्ष रूप में   उसे पूज्या बना दिया कि उस ‘बेचारी’ को मानव जीवन प्राप्त नहीं हो सका और अपने उस गौरवमय उदात्त दैवीय आसन से इतर वह  निरा दलित और भोग्या बनकर समाज के हाशिए पर छटपटाती रही। उसी छटपटाहट की गूँज मध्यकाल के भक्ति-आंदोलन में सुनायी देती है जहाँ बड़े आश्चर्यजनक  रूप से भक्त-कवयित्रियों की इतनी बड़ी संख्या नज़र आती है जितनी शायद साहित्य के सभी काल-खंडों के समस्त कवयित्रियों को एक साथ जोड़ दिया जाय तब भी बराबरी नहीं कर सकती । पितृसत्तात्मक समाज की बंदिशो को तोड़ते हुए मीरा गाती हैं “मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरों न कोई।” प्रेम  की मुरली पर इन कवयित्रियों ने जो अपनी मधुर तान छेड़ी है उसमें पुरुष का दम्भ दहते नज़र आ रहा है। और तो और, साधक के पथ पर नारी को बाधक मानने वाले अक्खड कबीर भी कह उठते हैं, “हरि मोर पिऊ, मैं राम की बहुरिया।” दो भक्त नारियों, पद्मावती और सुरसरी, को दीक्षित करने वाले रामानन्द को ही कबीर भी अपना गुरु मानते हैं।   
इस काल में सामूहिक रूप से न सही, अलग-अलग ही भक्त कवयित्रियों ने अपनी स्वतंत्र और प्रखर भक्ति-धारा बहायी है जिसने समाज के पोर-पोर को सिंचित किया है। ‘भक्तमाल’  के एक छप्पय में तदयुगिन भक्त-नारी-कवयित्रियों का परिचय मिलता है,
“ सीता, झाली, सुमति, शोभा, प्रभूता, उमा, भटियानी 
गंगा, गौरी, कुँवरी, उनीठा, गोपाली, गणेश दे रानी 
कला, लखा, कृतगढ़ौ, मानमती, शुचि, सतिभामा 
यमुना, कोली, रामा, मृगा, देवा, दे भक्तन विश्रामा 
जुगजेवा, कीकी, कमला, देवकी, हीरा, हरिचेरी पोधे भगत 
कलियुग युवती जन भक्त राज महिमा सब जानै  जगत।”   
 भारतीय दर्शन की बहुरंगी छटाएँ इनकी भक्तिपूर्ण रचनाओं से छिटकती हैं। कश्मीर की ‘लल्लेश्वरी’ की शिव-साधना , तमिलनाडु में अलवार-संत ‘गोदा अंडाल’, राजस्थान में ‘मीरा’ और महाराष्ट्र में ‘संत महदायिसा’  की कृष्ण-भक्ति के सुरीले सुर, आंध्र-प्रदेश की ‘आतुकुरी मोल्ला’ की राम-धुन और ‘संत वेणस्वामी’ की हनुमान -आराधना में भक्ति-भाव के समर्पण की पराकाष्टा दिखती है तो फिर तमिलनाडु की ‘संत करैक्काल अम्मैयार’ ने अपने निर्गुण  निराकार शिव की सार्वभौम सत्ता स्थापित की है। इधर अपने कन्हैया की भक्ति में गोपियाँ ज्ञानी उद्धव को धूल चटाती दिख रही हैं,
“उद्धव मन नाहीं दस बीस,
एक हुतों सों गयो स्याम संग 
कोन  आराधे ईश!”
ऐसा प्रतीत होता है कि  राम की स्थापित मर्यादाओं के आलोक में दम्भी  पुरुष-समाज ने कई बेड़ियाँ डाल दी हैं। सम्भवतः,  इसीलिए नारियों की भक्ति के सबसे बड़े आलम्ब बनकर कृष्ण ही  खड़े दिखायी पड़ते हैं। कारण, कृष्ण कभी पलायन का संदेश या विरागी होने का संदेश नहीं देते। वह इस गृहस्थ-जीवन  की रण-भूमि में संघर्ष करने की चेतना जगाते हैं। आधुनिक काल की नारियाँ भी अपनी भक्ति के चेतन-भाव से अछूती नहीं हैं।  नवयुग में उनका स्वरूप भले ही आधुनिक बिंबों में व्यक्त हो रहा है किंतु सार-तत्व वहीं है। करवा-चौथ और छठ जैसे प्रतीक पर्वों का प्रचार इस बात का साक्षी है कि  गंगा मैया में केले के पात पर अब भी सविता की उपासना में वे अपनी भक्ति के दीप का अर्ध्य प्रवाहित कर रही हैं और छलनी के छिद्रों से छन-छन कर चूने वाली चाँदनी में अपने सत्यवान के चितवन  को निहार कर सावित्री की भक्ति-परम्परा का विस्तार कर रही हैं।           

11 comments:

  1. वाह क्या बात है लाजवाब।

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  2. करवा-चौथ और छठ जैसे प्रतीक पर्वों का प्रचार इस बात का साक्षी है कि गंगा मैया में केले के पात पर अब भी सविता की उपासना में वे अपनी भक्ति के दीप का अर्ध्य प्रवाहित कर रही हैं और छलनी के छिद्रों से छन-छन कर चूने वाली चाँदनी में अपने सत्यवान के चितवन को निहार कर सावित्री की भक्ति-परम्परा का विस्तार कर रही हैं।

    सुंदर एवं सार्थक, परंतु अब इसे भी ढकोसला बता ऐसी परंपराओं को समाप्त करने पर बल दिया जा रहा है।
    सादर।

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    1. जी सत्य वचन। अत्यंत आभार।

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  3. नारी मनुष्य-योनि की वह सर्वश्रेष्ठ रचना है जो सृजन की समस्त कोमल भावनाओं का स्त्रोत है। उसके उर से प्रवाहित ममता की धारा और मानवीयता की मंजुल-लहरें उसकी कुक्षी को सिंचित करती हैं और उसमें अंकुरित होता सृजन का बीज-तत्व उसके समस्त भाव-संस्कारों का वहन करता हुआ मानव-संस्कृति और सभ्यता के तत्वों को उत्तरोत्तर संपुष्ट करता है।

    नारी के सम्पूर्ण आस्तित्व की सुंदर व्याख्या और ज्ञानवर्धक भी ,सादर नमन आपकी सोच और लेखनी को

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  4. भक्ति और नारी-- एक दूसरे की पूरक और पोषक | एक गंभीर लेख जो विषय की गहनता से पाठकों को नये दर्शन से साक्षात्कार कराता है | हार्दिक आभार और शुभकामनाएं सुंदर , भावपूर्ण लेख के लिए | |

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  5. जी, बहुत आभार आपका साहित्यिक 'फ़ास्ट फूड' रचनाओं के इस जमाने में गंभीर लेखों पर अपनी नज़र इनायत करने के लिए।

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