जंगम जलधि जड़वत-सा हो,
स्थावर-सा सो जाता हो।
ललना-सी लहरें जातीं खो,
तब चाँद अकुलाता हैं।
शीत तमस-सा तंद्रिल तन,
रजनीश का मुरझाया मन।
देख चाँद का भोलापन,
फिर सूरज दौड़ा आता है।
धरती को भी होती धुक-धुक,
उठती हिया में लहरों की हुक।
अभिसार से आर्द्र हो कंचुक,
सौरमंडल शरमाता है।
बाजे नभ में प्रेम पखावज,
ढके चाँद को धरती सूरज।
भाटायें ज्वारों-सी सज-धज,
पाणि-ग्रहण हो जाता है।
उछले उर्मि सागर उर पर,
राग पहाड़ी ज्यों संतूर पर।
प्रीत पूनम मद नूर नूर तर,
चाँद धवल हो जाता है।
प्राकृत-भाव भी अक्षर-से,
चेतन-पुरुष को भर-भर के।
सृष्टि-सुर-सप्तक रच-रच के,
कविता का फूल खिलाता है।
स्थावर-सा सो जाता हो।
ललना-सी लहरें जातीं खो,
तब चाँद अकुलाता हैं।
शीत तमस-सा तंद्रिल तन,
रजनीश का मुरझाया मन।
देख चाँद का भोलापन,
फिर सूरज दौड़ा आता है।
धरती को भी होती धुक-धुक,
उठती हिया में लहरों की हुक।
अभिसार से आर्द्र हो कंचुक,
सौरमंडल शरमाता है।
बाजे नभ में प्रेम पखावज,
ढके चाँद को धरती सूरज।
भाटायें ज्वारों-सी सज-धज,
पाणि-ग्रहण हो जाता है।
उछले उर्मि सागर उर पर,
राग पहाड़ी ज्यों संतूर पर।
प्रीत पूनम मद नूर नूर तर,
चाँद धवल हो जाता है।
प्राकृत-भाव भी अक्षर-से,
चेतन-पुरुष को भर-भर के।
सृष्टि-सुर-सप्तक रच-रच के,
कविता का फूल खिलाता है।
सुन्दर शब्द चयन, बढ़िया रचना।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteबहुत सुंदर कविता ... कविता की उत्पत्ति पर ... रचना के उद्ग़म पर ..।
ReplyDeleteशब्द हैं तो कविता है ... भाव हैं तो कविता है ... प्राकृति है .... जीवन है ... समवेदना है ...
आभार आपके आशीर्वचनों का।
Deleteजी, बहुत आभार।
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteधरती को भी होती धुक-धुक,
ReplyDeleteउठती हिया में लहरों की हुक।
अभिसार से आर्द्र हो कंचुक,
सौरमंडल शरमाता है।
धरती आकाश सूरज चाँद और पूरे सौरमण्डल का अभिसार!!!!
वाह!!!
अद्भुत एवं लाजवाब सृजन
,🙏🙏🙏
जी, आपके अनुपम आशीष का हार्दिक आभार।
Deleteहमेशा की तरह लाज़बाब ....,सादर नमन आपको
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपका।
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपका।
Deleteबहुत खूब- आदरणीय विश्वमोहन जी ! समस्त ब्रह्माण्ड में सदैव शाश्वत गतिविधियाँ चलती रहती हैं | सौरमंडल में ग्रह, नक्षत्र गोचर में हैं | जल थल और नभ के सभी घटकों के के बीच स्नेहिल तालमेल और अक्षुण अभिसार कवि मन में कविता का फूल खिलाता है | क्योंकि प्रकृति सबसे बड़ी प्रणेता है सृजन की | और कविता को सभी कलाओं की जननी कहा गया है |आपकी सुपरिचित शैली में ये लाजवाब रचना मन को आहलादित कर देती है | कविता दिवस पर कविता को नयी परिभाषा मिली है -- नये भाव मिले हैं |हार्दिक शुभकामनाएं इस शानदार रचना के लिए | सादर
ReplyDeleteआपकी उत्साहवर्द्धक टिप्पणियाँ सदैव विलक्षण और संजीवनी होती हैं। हृदयतल से आभार।
Deleteबहुत सुंदर रचना,विश्वमोहन जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDelete" प्राकृत-भाव भी अक्षर-से,
ReplyDeleteचेतन-पुरुष को भर-भर के।
सृष्टि-सुर-सप्तक रच-रच के,
कविता का फूल खिलाता है।"
उत्तम 👌
सादर प्रणाम सर🙏
अत्यंत आभार आँचल जी।
Deleteशीत तमस-सा तंद्रिल तन,
ReplyDeleteरजनीश का मुरझाया मन।
देख चाँद का भोलापन,
फिर सूरज दौड़ा आता है।...बहुत ही खूबसूरत रचना विश्वमोहन जी
जी, बहुत आभार।
Deleteसादर धन्यवाद।
ReplyDeleteकविता को अगर किसी और नाम से पुकारा जा सकता है, तो वो एक फूल ही हो सकता है ।
ReplyDeleteअभिनंदन ।
बहुत सुंदर और सटीक टिप्पणी। बहुत आभार।
Deleteप्रभावी अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteआप इसी तरह ब्रह्मांड और प्रकृति से प्रेरणा लेते रहें और चमन में कविता के फूल खिलते रहें !��
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपकी प्रेरक पंक्तियों एवं आपके आशीर्वचनों का!!🙏🙏🙏
Deleteकविता की कवित्व अनमोल।
ReplyDeleteलाजबाब सृजन।
जी, अत्यंत आभार आपके अनमोल बोल के!!!
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteविश्व कविता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 💐
जी, अत्यंत आभार और विश्व कविता दिवस की आपको हार्दिक बधाई!!!
Deleteउछले उर्मि सागर उर पर,
ReplyDeleteराग पहाड़ी ज्यों संतूर पर।
प्रीत पूनम मद नूर नूर तर,
चाँद धवल हो जाता है।👌👌👌👌👌👌
एक बार फिर से ये मनभावन, मनोरम सृजन पढ़कर अच्छा लगा। हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏
आपके आशीष की पुनरावृत्ति का फिर से और दिल से आभार!!!
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