Tuesday, 7 April 2020

भक्त और भगवान का समाहार!

रामचरितमानस के बालकांड के छठे विश्राम में महाकवि तुलसी ने राम अवतार की पृष्ट-भूमि को गढ़ा  है। भगवान शिव माँ पार्वती को राम कथा सुना रहे हैं। पृथ्वी पर घोर अनाचार फैला है। कुकर्मों की महामारी फैली है। धरती माता इन पाप कर्मों के बोझ  से पीड़ित हैं। वह मन ही मन विलाप कर रही हैं। समुद्र और पहाड़ों का बोझ भी इस पाप की गठरी के समक्ष कुछ नहीं है। समाज का आचरण कलूषता की समस्त सीमाओं को लाँघ गया है। जब मनुष्य किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्टता के जिन सोपानों के सहारे उसके वैभव की पराकाष्ठा  पर पहुँचकर वांछित चरित्र की मर्यादा को लाँघता है, तो वह फिर उन्ही सोपानों को पद मर्दित करता पतन की गहराईयों  में नीचे उतरना शुरू कर देता है। इस पद मर्दन में वे तमाम मूल्य, वे तमाम आदर्श, वे तमाम प्रतिमान और वे तमाम मर्यादाएँ कुचली जाती हैं जिनके सहारे संस्कृति ने अपना उदात्त स्वरूप गढ़ा था। हाँ, ये ज़रूर है कि पतन की यह प्रक्रिया आदर्शों और मर्यादाओं के महत्व को और रेखांकित करते चली जाती है और ये तमाम तत्व हमारे अनुभवों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित होकर हमारी संस्कृति का अटूट अंग बन जाते  हैं और जीवन के हरेक प्रहर, विशेषकर संकट की घड़ी में, हमारा मार्गदर्शन करने के लिए उभर कर सामने आ जाते हैं। इसीलिए तो संस्कृति हमारे सामाजिक व्यक्तित्व की आंतरिक संरचना है, जबकि सभ्यता उसका बाह्य आवरण!  
सतयुग में सत्व की चरम सीमा के स्पर्श के पश्चात पृथ्वी की यह पीड़ा त्रेता में तत्कालीन समाज के उसी पतनोन्मुखता  की कहानी है, जिसके साक्षी बनकर स्वयं शिव शक्ति-रूपा  पार्वती  को यह कथा सुना रहे हैं। सतयुग में भगवान ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का संहार किया था। नृसिंह आधे मनुष्य और आधे पशु थे। सांकेतिक रूप से उनकी यह अवस्था मानव-सभ्यता के उस काल-खंड को सूचित करती  है जब  जीवों के रहने का आश्रय-स्थल अभी अरण्य ही थे और सभ्यता के  स्तर पर भी मनुष्य ने अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं किया था। अर्थात, उसकी वृत्तियों में मनुष्य और पशु की हिस्सेदारी अभी आधी-आधी ही थी। ऐसी अवस्था में अभी उद्भव के उस चरण का आना शेष था जब कि मनुष्य पूरी तरह से अपने में मानवीय वृत्तियों का आरोपण करे और उसका जीवन मानवीय मूल्यों, सात्विक संस्कृतियों और एक सभ्य मानवोचित  आचरण की मर्यादा में बँध कर एक सम्पूर्ण मानव संस्कृति की बसावट बन सके। आज त्रेता की भूमि सभ्यता के उसी चरण का सूत्रपात करने हेतु  ईश्वर के वांछित अवतार लेने के उचित मुहूर्त की तलाश में थी, जो मर्यादाओं के नए प्रतिमान स्थापित कर सभ्यता के एक नए मानवीय युग का सूत्र पात कर सके।
भवानी भी बड़े मनोयोग से इस कहानी को सुन रही हैं और उनके मन में भी (दुर्गासप्तशती में) उनके ही कहे शब्द प्रतिध्वनित-से हो रहे हैं :-
“इत्थम  यदा यदा दानवोत्था भविष्यति।  
तदा तदा अवतीर्यो अहम करिष्यामि अरिसंक्षयम।।“
इससे पहले चौथे विश्राम में भी काकभूसूँडी द्वारा गरुड़ जी को सुनायी जाने वाली राम कथा की शुरुआत करते समय  शिव भवानी के समक्ष  अवतार के कारणों पर प्रकाश डाल चुके हैं :-
“जब-जब होइ धरम कै हानि। बाढ़हि असुर  अधम अभिमानी।।
करहि अनिति जाइ नहीं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु, सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।“
तो, आज वह विकट समय उपस्थित हो गया है जब धरनी(पृथ्वी) धेनु(गाय) का रूप धरकर  अन्य पीड़ितों, सुर(देवताओं) और विप्र(मुनियों), के पास गयी जो स्वयं इस प्रकोप-काल में छिपे बैठे थे। पृथ्वी ने रो-रोकर अपना दुखड़ा इनको सुनाया किंतु उनमें से किसी से भी  कुछ करते नहीं बना। विवशता की इस विकट परिस्थिति में वे सभी इस सृष्टि के सर्जक ब्रह्मा के समक्ष उपस्थित होते हैं। ब्रह्मा धेनु-धड़-धारिणी धरती की दयनीय दशा देखते ही स्वतः सब कुछ समझ जाते हैं किंतु साथ ही उन्हें अपनी असहाय स्थिति का भी पूर्ण बोध है कि  दुःख की इस घड़ी में उनसे भी कुछ बनने वाला नहीं है। वह समस्त दुखी समुदाय को भगवान श्री हरि  के चरणों की वंदना की युक्ति सुझाते हैं। अब सबसे कठिन प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ये हरि मिलेंगे कहाँ!
भोले अपने भोलेपन में यह भी भवानी को बता देते हैं कि उस भीड़ में वह भी उपस्थित थे और उन्होंने ही चिरंतन ईश्वर के सर्व्वयापकता के रहस्य से उस समाज को परिचित कराया। परमात्मा के इस कण-कण में सब जगह पूरी तरह से व्याप्त होने के गूढ़ रहस्य को बड़ी भोली-भाली बोली में भगवान भोले इतने भोलेपन  से बताते हैं कि  तुलसी ने तुरंत उस वचनामृत का पान कर अपने मानस में उतार दिया है :-
“हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।
अग जगमय सब रहित बिरागी।
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जीमी आगी।।
भगवान शिव ने यहाँ भक्ति में प्रेम की महिमा का बखान किया है। इस त्रिभुवन के स्वामी तो बस प्रेम की सरलता में बसते हैं। यह समस्त चर-अचर, जड़-चेतन, सूक्ष्म-स्थूल उनसे व्याप्त है। वह सब में रह कर  भी सब से निर्लिप्त हैं, विरक्त हैं और निर्दोष हैं। वह हमारे अंदर ही व्याप्त है और हम प्रेम के अभाव में उसकी सत्ता से अनभिज्ञ हैं। ‘कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूँढे  बन मांहि/ ऐसे घटि-घटि राम हैं दुनिया देखै नाहीं।‘
भगवान शिव के द्वारा हृदय की सरलता में रहकर प्रेम मार्ग से  भगवत-प्राप्ति की इस युक्ति को पाकर  ब्रह्मा जी भावभिभूत हो गए। समस्त उपस्थित समुदाय ने उनके साथ अश्रुपुरित नेत्रों में भगवान की छवि बसाकर भाव-विहवल चित्त से हाथ जोड़कर स्तुति की। चैतन्य के आलोक से जगमग मन में प्रज्ञा के जागरण से हमारी बुद्धि प्रेम-भाव में भक्ति की धारा बनकर प्रवाहित होने लगती है और यहीं ज्ञान का चरमोत्कर्ष है, जब हमें स्वयं का भान नहीं रह जाता और हमारा सर्वस्व उस प्रियतम से एकाकार हो जाता है। ज्ञान की चरम अवस्था ज्ञानहीनता  का आभास है और ज्ञानी होने का दंभ भाव अज्ञानता  की पीड़ा! ‘यस्यामतम  मतम तस्य, मतम यस्य न वेद सः।‘
प्रार्थना की स्थिति भक्ति भाव में प्रवाहित होने की अवस्था है। तरल जिस पात्र में बहता है, उसी का आकार ग्रहण कर लेता है। ठीक वैसे ही चरम ध्यान और प्रार्थना की स्थिति में आँखों के आगे एक ही छवि अपनी आकृति ग्रहण करती है – अपने आराध्य की, अपने प्रभु की। उनके स्वरूप से भक्त समाकृति की अवस्था को प्राप्त होता है। पहले भक्त अपने प्रेम की अविरल धारा में बहकर अपने स्वामी का स्पर्श करता है, स्वामी उस तरलता में भीगकर घुलने लगते हैं, फिर भक्त की भक्ति-धारा में विलीन होकर  स्वयं अपने भक्त के साथ बहने लगते हैं। तब दोनों एक-दूसरे की स्थिति को प्राप्त कर अपना स्वायत्त आकार गँवा बैठते हैं और पहला दूसरा तथा दूसरा पहला बन गया रहता है। दोनों बेसुध! प्रेम-पीयूष की परम सुधा! सेवक स्वामी  और स्वामी सेवक – स्वयंसेवक!
प्रेम के उसी सागर में गोते लगाते भक्त-जनों के साथ ब्रह्मा जी अपने आराध्य भगवान हरि की छवि को टटोलते हैं और याचना करते हैं:-
‘हे सुर नायक, भक्तों को सुख की सुधा का पान कराने वाले शरणागत-वत्सल! असुरों के विनाशक, सत्व आचरण का पालन करने वाले विप्र और अपने दुग्ध से प्राणियों का पोषण करने वाली धेनु की रक्षा करने वाले सागर-कन्या लक्ष्मी के प्रिय नारायण-स्वामी! आपकी जय हो! समस्त रहस्यों से परे अद्भुत लीलाओं  के कलाधर स्वामी! आप अपनी कृपालुता और दीन दयालुता के सुधा रस से आप्लावित कर हमें अपनी कृपा का दान दें!’
‘आप अविनाशी हैं, अंतर्यामी हैं, सर्वव्यापी हैं, सत चित  और आनंद के परम स्वरूप हैं। हे अज्ञेय, इंद्रियातीत, पुनीत चरित्र वाले, आसक्ति के बंधन से छुड़ाकर मोक्ष प्रदान करने वाले माया रहित मुकुंद! मोह-पाश से मुक्त, ज्ञानी और विरक्त मुनि जन भी अनुरक्त भाव से आपकी भक्ति गंगा में डुबकी लगाकर कृत-कृत्य होते हैं। ऐसे गुणों के समूह, हे सच्चिदानंद! आपकी जय हो! जय हो!’
‘इस त्रिगुणी सृष्टि के रचयिता, पापनाशक, इस बंधन युक्त संसार में जन्म-मरण और आने जाने के बंधन से मुक्त कराने वाले, मृत्य के भय के संहारक, विपत्तियों को समूल नष्ट करने वाले और मन को नियंत्रित कर आपकी अर्चना में तल्लीन रहने वाले मुनियों के मन को प्रसन्नता की चिर शान्ति प्रदान करने वाले परमपिता परमेश्वर ! हम सब देव गण आज अत्यंत निश्छल  मन से मनसा-वचसा-कर्मणा अपने को आपकी शरण में समर्पित करने आए हैं।‘
‘आप ज्ञान की देवी सरस्वती, सभी ज्ञानों की खान वेद, इस पृथ्वी को धारण करने वाले शेष नाग और सम्पूर्ण साधनाओं के अन्वेषक ऋषियों के आभास मात्र से परे हैं। वेदों में घोषित हे  दीन दयाल! हमें अपनी करुणा  से आर्द्र  करें। इस भव सागर को मंथने वाले हे मंदराचल पर्वत रूप, सभी सौंदर्यों के स्वामी, गुणों के धाम और सुखों की राशि हे नाथ! वर्तमान स्थिति में व्याप्त विभीषिका के भय से आकुल-व्याकुल हम समस्त मुनि , सिद्ध और सारे देवता आपके चरण कमल की बंदना करते हैं।‘
      पार्वती श्रद्धा की प्रतीक हैं और शिव विश्वास के। जब विश्वास में श्रद्धा का निवास हो तो अज्ञात भी ज्ञात हो जाता है, रहस्य भी प्रत्यक्ष हो जाता है और अनागत भी आगत हो जाता है। उस शक्तिनिवासिनी अर्द्धनारीश्वर  भगवान शिव की उपस्थिति में उन भयातुर देवताओं और पृथ्वी के मुख से करुणा से आर्द्र  स्नेहयुक्त याचना की वाणी सुनकर शोक, संताप और हर तरह के संदेहों को दूर करने वाली गम्भीर आकाश वाणी हुई : -
‘जनहिं डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहिं लागि धरिहउँ नर बेसा।।‘
इस आकाशवाणी में भगवान ने अपने अवतार की उद्घोषणा की और यह त्रेता में इस आर्यावर्त पर भगवान राम के अवतार की भूमिका बनी।
 देवताओं और ऋषियों द्वारा की गयी अर्चना में सारत: दो ही पक्ष उभरे हैं। एक उस परम पिता परमेश्वर का विराट रूप जो मूर्त में भी अमूर्त और अमूर्त में भी मूर्त है। उसकी छवि भक्तों में मूर्त रूप से विराजमान है लेकिन उस मूर्त छवि का निर्माण भगवान के अमूर्त गुणों से होता है जिसके वे परम धाम हैं और उन शाश्वत सुखों से होता है जिसकी अमोघ राशि हैं! उस अज्ञेय इंद्रियातीत छवि के चरण-कमल भक्तों के नयनों में निवास करते हैं, जिस पर उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित किया है। और दूसरा पक्ष याचक का है जिसने मन, वचन और कर्म से अपना सब कुछ त्यागकर निर्विकार और निश्छल रूप में अपने सम्पूर्ण को अपने आराध्य के चरण कमलों पर उनकी कृपा की सुधा के पान हेतु  न्योछावर कर दिया  है। न किसी के अहित की याचना न किसी भौतिक वस्तु हेतु आग्रह। मात्र अपने परम आराध्य की  जय-जयकार और उनके कृपा-सिंधु में डुबकी लगाने की गुहार। यहीं है भक्त और भगवान का समाहार!  
   
    
    

    

13 comments:

  1. सुन्दर। विराट रूप आज उपलब्ध है।
    "उसकी छवि भक्तों में मूर्त रूप से विराजमान है लेकिन उस मूर्त छवि का निर्माण भगवान के अमूर्त गुणों से होता है जिसके वे परम धाम हैं और उन शाश्वत सुखों से होता है जिसकी अमोघ राशि हैं! उस अज्ञेय इंद्रियातीत छवि के चरण-कमल भक्तों के नयनों में निवास करते हैं, जिस पर उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित किया है।"

    भक्त सम्मोहित हैं।
    बाकि अब समझदानी लबालब होने से सब बह जाता है।

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    1. जी, आपके आशीष हमारे लिए अनमोल हैं। हृदय से आभार।

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  2. आभार, हृदयतल से।

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  3. 'जब विश्वास में श्रद्धा का निवास हो तो अज्ञात भी ज्ञात हो जाता है, रहस्य भी प्रत्यक्ष हो जाता है और अनागत भी आगत हो जाता है।' भक्तिभाव में डूबा हुआ सुंदर ललित आलेख !

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  4. भक्त का समर्पण अराध्य के प्रति निश्छल श्रद्धा भाव से उसे हर परिस्थिति में साथ देता है ... यही भाव उसे अवतारित करता है पृथ्वी है पुनः पुनः ...
    आनंदित करता आलेख ... शब्दों से परे भावों को उद्वेलित करता ...

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  5. "पहले भक्त अपने प्रेम की अविरल धारा में बहकर अपने स्वामी का स्पर्श करता है, स्वामी उस तरलता में भीगकर घुलने लगते हैं, फिर भक्त की भक्ति-धारा में विलीन होकर स्वयं अपने भक्त के साथ बहने लगते हैं। तब दोनों एक-दूसरे की स्थिति को प्राप्त कर अपना स्वायत्त आकार गँवा बैठते हैं और पहला दूसरा तथा दूसरा पहला बन गया रहता है।"
    आहा!वाह!
    आदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
    कितना सुखमय,कितना आनंदित करता भक्त और भगवान के मध्य अनंत,अपार भक्ति का,अनूठे प्रेम का यह वृतांत।
    भक्त और भगवान का यह सुंदर समाहार एक ओर मन को तृप्त कर रहा तो दूसरी ओर प्रभु के भक्त हुए स्वरूप को साक्षात देखने को व्याकुल हो उठा। इतना सुंदर,इतना भक्तिमय यह आलेख...आहा...सत्य है कि ईश्वर से बड़े तो उनके भक्त और उनकी भक्ति होती है जो स्वयं नारायण अपने भक्त के अनुसार ढलने को आतुर रहते हैं।
    इससे उत्तम समाहार और क्या होगा की जब भक्त समर्पण करें तो नारायण स्वयं समर्पित हो जाए। भक्त एक चावल के दाने आगे नारायण सर्वस्व लुटा दे। भक्त का नेह देख नारायण जूठन भी ग्रहण कर ले। एक ओर भगवान प्रेम के भूखे और दूसरी ओर भक्त दरस को व्याकुल...कौन कितना बड़ा याचक कहना असंभव है।
    इस मंत्रमुग्ध आलेख को साझा करने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर। नारायण और उनके भक्तों को कोटिशः नमन।
    आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाओं संग सादर प्रणाम 🙏

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    1. आदरणीय आँचल जी, इस लेख को अत्यंत सार्थक विस्तार देने के लिये मेरा विनम्र आभार। ईश्वर आपकी बुद्धि के सत्व तत्व को और अधिक विस्तार दे।

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  6. आदरणीय विश्वमोहन जी , रामचरितमानस के बालकाण्ड के अत्यंत महत्वपूर्ण अंश को आपने अपनी लेखनी के माध्यम से , जिस तरह हृदयस्पर्शी और सारगर्भित अभियक्ति दी है, उसे देख पढ़कर निशब्द हूँ! | माना तो यही गया है ---

    जब जब होई धरम कै हानी।
    बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥3॥
    करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।
    सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
    तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।
    अर्थात जब- जब धर्म का ह्वास होता है और नीच , अभिमानी , राक्षसों का वर्चस्व और उनकी अकथनीय अनीति बढती है , जिससे ब्रहम , गौ, देवता और धरा पीड़ा पाते हैं , तब तब प्रभु विविध शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा को हरते हैं | हर युग की अपनी विशेषता है | सतयुग की अपनी विशेषताएं थी || तब नृसिंह अवतार से हिरण्यकश्यप का संहार हुआ | पाशविक वृतियों वाली सत्ताओं का जीवनकाल कभी दीर्घ नहीं रहा | इसी तरह त्रेतायुग में मर्यादाओं का उत्कर्ष देखा गया | एक रामराज्य की स्थापना इसी युग में हुई और भगवान् श्री राम युगनायक बने | उन्होंने त्याग और समर्पण से एक आदर्श परिवार और समाज की स्थापना की , और उसके सूत्रधार स्वयं बने | | ऋषि-मुनियों के साथ ब्रह्मा जी से की गयी धरती की मर्मान्तक प्रार्थना रामावतार के अवतरण का आधार बनी |उसी प्रसंग में गोस्वामी जी के भावपूर्ण लेखन में ऋषि मुनियों की आराध्य के प्रति आकंठ अभ्यर्थना में , भक्तजन भी उनके साथ भावों की गंगा में गोते लगाते प्रतीत होते हैं | यही उनकी विशेषता है जिससे वे श्रीराम को जन -जन के प्रिय बनाने में सफल हुए हैं | उनकी रचना यात्रा में , भक्त उनके साथ- साथ चलता हुआ भक्तिभाव में लीन हो अमूर्त में मूर्त के दर्शन करलेता है | श्री राम अदृश्य हैं , अमूर्त हैं पर उनकी छवि को भक्त के भीतर साकार करने में उनके आदर्श गुण अहम् भूमिका अदा करते हैं |आखिर भक्ति का मूल उदेश्य ये ही है कि भक्त अपने आराध्य के साथ एक रूप हो जाये | दोनों का अस्तित्व एकाकार हो जाये | यही है दिव्य मिलाप अथवा समाहार |
    इस अमूर्त समाहार को आपने इतने सुंदर शब्दों में लिखा है कि मन में कोई प्रश्न शेष नहीं बचता | तुलसीदास जी के मंतव्य को आपने भली -भांति अभिव्यक्त कर पाठकों को एक सरस और अनमोल उपहार दिया है इस सांस्कृतिक और धार्मिक प्रयोजन के लेख के माध्यम से | यही कहूंगी --
    जा पर कृपा राम की होई -- तापर कृपा करे सब कोई -
    आपके लेखन की इस अद्भुत व्यंजना शक्ति के अमरत्व की कामना करती हूँ | सादर

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    1. आदरणीय रेणु जी, आपने जितने मनोयोग और विस्तार से इस लेख की आत्मा की विद्वत विवेचना की है, इस लेख के तत्व की तह में उतरकर इसके सर्वांग को भक्ति-भाव के उसी लय में आत्मसात करने का परिचायक है जो ब्रह्माजी के नेतृत्व में सुर, मुनि और पृथ्वी की प्रार्थनाओं में प्रकट हुआ है। आपकी इस अद्भुत समीक्षा के लिए हृदय तल से आभार। आपके जैसे सुधि पाठक ही मेरे नीरस लेखों के लिखने के उद्योग को सार्थक बनाते हैं।

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  7. अति सुंदर! भावपूर्ण प्रस्तुति।

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  8. भक्त और भगवान को " समाहार" बनाने के लिए बस एक भावना काफी हैं " विश्वास के साथ समर्पण "
    आपके इस " अदभुत " सृजन पर मेरा कुछ खास कहना छोटा मुँह बड़ी बात होगी ,बस इतना ही कहना चाहुंगी कि -" आपकी ये लेखनी इतिहास की धरोहर बनेंगी।" सादर नमन आपको

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    1. आपके इस "अद्भुत" आशीष का विनम्र आभार। सच कहूँ तो गंभीर,लंबे और उबाऊ लेखों को पढ़ने वाले पाठक आजके फ़ास्ट फ़ूड वाले जमाने में अब बिरले ही बच गए हैं। उपर से पढ़कर गंभीर समीक्षा या सारगर्भित टीका-टिप्पणी तो सोने में सुहागा! आप जैसे उन बिरले पाठकों से मेरी लेखनी को संजीवनी मिलती है। आपका यह पुनीत आशीष बना रहे। सादर आभार।

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