मनुष्य :
पिता, दान तेरे वचनो का, लेकर आया जीवन में,
संग चलोगे पग-पग मेरे , जीवन के मरु आँगन में।
तेरी अंगुली पकड़ मचला मैं, सुभग-सलोने जीवन में,
हरदम क़दम मिले दो जोड़ी, जैसे माणिक़ कंचन से।
किंतु, यह क्या? हे प्रभु! कैसी है तेरी माया !
घेरी विपदा की जब बदरी, चरण चिह्न न तेरी पाया!
भीषण ताप में दहक रहा था, पथ की मैं मरु-ज्वाला में,
रहा भटकता मैं अनाथ-सा, तप्त बालुकूट माला में।
हे निर्मम ! निर्दयी-से निंद्य! क्यों वचन बता, तूने तोड़ा?
तपते-से सैकत में तुमने, मुझे अकेला क्यों छोड़ा?
देख! देख! मरुस्थल में, तू मेरा जलता जीवन देख!
देख घिसटती संकट में , पाँवों की यह मेरी रेख!
देख, मैं कैसे जलूँ अकेला! मरु के भीषण ज्वालों से,
सोंचू! कैसे ढोयी देह यह, छलनी-से पग-छालों से।
अब न पुनर्जन्म, हे स्वामी,! नहीं धरा पर जाऊँगा,
परम पिता, तेरी प्रवंचना! नहीं छला अब जाऊँगा।
ईश्वर:
छल की बात सुन, भगवन के नयनों में करुणा छलक गई।
छौने की निश्छल पृच्छा पर, पलकों से पीड़ा ढलक गई।
छोड़ूँ साथ तुम्हारा मैं ! किंचित न सोचना सपने में!
हे वत्स! मरु में पद-चिह्न वे, नहीं तुम्हारे अपने थे।
डसे चले, जब दुर्भाग्य के, कुटिल करील-से डंकों ने,
पुत्र ! सोए तुम रहे सुरक्षित, मेरी भुजा के अंकों में।
चला जा रहा, मैं ही अकेला! तुम्हें उठाए बाँहों में,
पद तल वे मेरे ही, बेटे! मरु थल की धिपती राहों में!
पिता, दान तेरे वचनो का, लेकर आया जीवन में,
संग चलोगे पग-पग मेरे , जीवन के मरु आँगन में।
तेरी अंगुली पकड़ मचला मैं, सुभग-सलोने जीवन में,
हरदम क़दम मिले दो जोड़ी, जैसे माणिक़ कंचन से।
किंतु, यह क्या? हे प्रभु! कैसी है तेरी माया !
घेरी विपदा की जब बदरी, चरण चिह्न न तेरी पाया!
भीषण ताप में दहक रहा था, पथ की मैं मरु-ज्वाला में,
रहा भटकता मैं अनाथ-सा, तप्त बालुकूट माला में।
हे निर्मम ! निर्दयी-से निंद्य! क्यों वचन बता, तूने तोड़ा?
तपते-से सैकत में तुमने, मुझे अकेला क्यों छोड़ा?
देख! देख! मरुस्थल में, तू मेरा जलता जीवन देख!
देख घिसटती संकट में , पाँवों की यह मेरी रेख!
देख, मैं कैसे जलूँ अकेला! मरु के भीषण ज्वालों से,
सोंचू! कैसे ढोयी देह यह, छलनी-से पग-छालों से।
अब न पुनर्जन्म, हे स्वामी,! नहीं धरा पर जाऊँगा,
परम पिता, तेरी प्रवंचना! नहीं छला अब जाऊँगा।
ईश्वर:
छल की बात सुन, भगवन के नयनों में करुणा छलक गई।
छौने की निश्छल पृच्छा पर, पलकों से पीड़ा ढलक गई।
छोड़ूँ साथ तुम्हारा मैं ! किंचित न सोचना सपने में!
हे वत्स! मरु में पद-चिह्न वे, नहीं तुम्हारे अपने थे।
डसे चले, जब दुर्भाग्य के, कुटिल करील-से डंकों ने,
पुत्र ! सोए तुम रहे सुरक्षित, मेरी भुजा के अंकों में।
चला जा रहा, मैं ही अकेला! तुम्हें उठाए बाँहों में,
पद तल वे मेरे ही, बेटे! मरु थल की धिपती राहों में!