बचपन से ही माँ को देखता रहा,
गूंधती आटा, आँखों से लोर बहा,
अपनी मायके की यादों के।
फिर रोटियाँ सेकती आगी पर
विरह की, नानी से अपने।
'जननी, जन्मभूमि:च
स्वर्गात अपि गरियसी ।'
प्रथम प्रतिश्रुति थी मेरी,
'प्रवास की परिकल्पना' की!
क्योंकि पहली प्रवासी थी
मेरी माँ ! मेरे जीवन की!
आयी थी अपना मूल स्थान त्याज्य
वीरान, अनजान और बंजर भूमि पर
जीवन का नवांकुर बोने।
फिर बहकर आयी पुरवैया हवाएँ ,
ऊपर से झरकर गिरी बरखा रानी।
पहाड़ों से चलकर नदी का पानी।
पछ्छिम से छुपाछिपी खेलता
पंछियों का कारवाँ।
सब प्रवासी ही तो थे!
आज राजधानी के राजपथ पर पत्थर उठाते
नज़रें टिकी पार्लियामेंट पर।
सारे के सारे 'माननीय' प्रवासी निकले।
बमुश्किल एक दो खाँटी होंगे दिल्ली के।
उनके भी परदादे फेंक दिए गए थे किसी 'पाक' भूमि से !
मंत्रालय, सचिवालाय, बाबुओं का विश्रामालय
छोटे बाबू से बड़े बाबू तक! सब प्रवासी निकले।
और तो और, वह भी! गौहाटी का मारवाड़ी!
और दक्षिण अफ़्रीका गया वह कठियाबाड़ी !
मनाता है 'भारतीय प्रवासी दिवस'
जिसके देस लौटने को सारा भारतवासी ।
लेकिन मेरी ही यादों में बसी रही
अहर्निश मेरी रोटी पकाती और घर लीपती
पियरी माटी में लिपटी मेरी माँ।
जिसने ले वामन अवतार आज माप ली है
लम्बाई अहंकार की, 'राष्ट्रीय उच्च पथ' के।
हे बुद्धिविलासिता के ठेकेदार,
बेशर्म, निर्लज्ज, दंभ के दर्प में चूर!
हौसलों को पंख लग जाते हैं मेरे
जब कहते हो मुझे 'प्रवासी' मज़दूर'!!!
गूंधती आटा, आँखों से लोर बहा,
अपनी मायके की यादों के।
फिर रोटियाँ सेकती आगी पर
विरह की, नानी से अपने।
'जननी, जन्मभूमि:च
स्वर्गात अपि गरियसी ।'
प्रथम प्रतिश्रुति थी मेरी,
'प्रवास की परिकल्पना' की!
क्योंकि पहली प्रवासी थी
मेरी माँ ! मेरे जीवन की!
आयी थी अपना मूल स्थान त्याज्य
वीरान, अनजान और बंजर भूमि पर
जीवन का नवांकुर बोने।
फिर बहकर आयी पुरवैया हवाएँ ,
ऊपर से झरकर गिरी बरखा रानी।
पहाड़ों से चलकर नदी का पानी।
पछ्छिम से छुपाछिपी खेलता
पंछियों का कारवाँ।
सब प्रवासी ही तो थे!
आज राजधानी के राजपथ पर पत्थर उठाते
नज़रें टिकी पार्लियामेंट पर।
सारे के सारे 'माननीय' प्रवासी निकले।
बमुश्किल एक दो खाँटी होंगे दिल्ली के।
उनके भी परदादे फेंक दिए गए थे किसी 'पाक' भूमि से !
मंत्रालय, सचिवालाय, बाबुओं का विश्रामालय
छोटे बाबू से बड़े बाबू तक! सब प्रवासी निकले।
और तो और, वह भी! गौहाटी का मारवाड़ी!
और दक्षिण अफ़्रीका गया वह कठियाबाड़ी !
मनाता है 'भारतीय प्रवासी दिवस'
जिसके देस लौटने को सारा भारतवासी ।
लेकिन मेरी ही यादों में बसी रही
अहर्निश मेरी रोटी पकाती और घर लीपती
पियरी माटी में लिपटी मेरी माँ।
जिसने ले वामन अवतार आज माप ली है
लम्बाई अहंकार की, 'राष्ट्रीय उच्च पथ' के।
हे बुद्धिविलासिता के ठेकेदार,
बेशर्म, निर्लज्ज, दंभ के दर्प में चूर!
हौसलों को पंख लग जाते हैं मेरे
जब कहते हो मुझे 'प्रवासी' मज़दूर'!!!
हे बुद्धिविलासिता के ठेकेदार,
ReplyDeleteबेशर्म, निर्लज्ज, दंभ के दर्प में चूर!
ये सबसे बड़ा सच है।
जी, अत्यंत आभार!
Deleteअद्भुत सृजन!!
ReplyDeleteप्रवासी के मायने समझा दिए आपने ,गजब!! भावों का अतिरेक रचना में
संवेदनाओं का एक और पहलू उजागर करता।
बहुत सुंदर।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteमजदूरों के दर्द को उजागर करती भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteमन को छूती
जी, अत्यंत आभार!
Deleteभावपूर्ण सृजन आदरणीय विश्वमोहन जी। अपनी माटी से जुड़ी पर नये घर में अपने संपूर्ण समर्पणऔर निष्ठा के बावज़ूद पराई बेटी पुकारी जाती है माँ! ठीक वैसे ही मजदूर को भी उसकी निष्ठा के बाद भी प्रवासी कहने में गुरेज़ नहीं किया जाता। दोनों का प्रवासी होने का दर्द समान है। सादर🙏🙏
ReplyDelete,
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी कल से आपकी रचना हम पाँच बार पढ़ चुके हैं किंतु प्रतिक्रिया के लिए सही शब्द नही जुटा पाये।
ReplyDeleteआपकी रचना की आत्मा 'प्रवासी' पर सुगढ़ता से किया गया साहित्यिक विश्लेषण विलक्षण है।
कोमल,सुंदर शब्द-विन्यास से गूँथी बेहद सराहनीय सृजन।
सादर।
मूक आवाक हूँ.. लिखना पड़ा क्यों कि चेहरा यहाँ दिखलाई नहीं पड़ता..
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!!
Deleteहे बुद्धिविलासिता के ठेकेदार,
ReplyDeleteबेशर्म, निर्लज्ज, दंभ के दर्प में चूर!
हौसलों को पंख लग जाते हैं मेरे
जब कहते हो मुझे 'प्रवासी' मज़दूर'!!!
सही कहा प्रवासी सर्वप्रथम अपनी माँ है और सही अर्थों में देखे तो असली मालिक हैं ये श्रमवीर!!!
अभियंता जो हैं हर अट्टालिकाओं के ....
बहुत ही लाजवाब चिन्तनपरक विचारोत्तेजक सृजन
वाह!!!
जी, अत्यंत आभार!!!!
Deleteवर्तमान को समेटे सार्थक रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteलेकिन मेरी ही यादों में बसी रही
ReplyDeleteअहर्निश मेरी रोटी पकाती और घर लीपती
पियरी माटी में लिपटी मेरी माँ।.... कुछ कुछ ऐसी है जैसी कि निराला की '' वह तोड़ती पत्थर''... बहुत सुंदर
इतना बड़ा सम्मान! बहुत बहुत आभार आपका!!!
Deleteअहर्निश मेरी रोटी पकाती और घर लीपती
ReplyDeleteपियरी माटी में लिपटी मेरी माँ।
अंतस को स्पर्श करने वाली रचना के प्रति आभार। सादर
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteहे बुद्धिविलासिता के ठेकेदार,
ReplyDeleteबेशर्म, निर्लज्ज, दंभ के दर्प में चूर!
हौसलों को पंख लग जाते हैं मेरे
जब कहते हो मुझे 'प्रवासी' मज़दूर'!!!
" प्रवासी " शब्द के सही मायने समझा दिया आपने ,माँ से लेकर मजदूर तक जो सृजन कर्ता हैं असली कर्मवीर हैं वही प्रवासी कहलाया ,अद्भुत सृजन सादर नमन आपकी लेखनी को
बहुत आभार, आपके सुंदर शब्दों का।
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