(भाग-१ से आगे)
मूलर के पिता विलहेम मूलर स्वयं एक बड़े कवि थे। चार वर्ष की अल्पायु में ही मूलर के पिता, विलहेम मूलर , की मृत्यु हो गयी थी। बाद में अध्ययन काल के दौरान मूलर ने ग्रीक, लैटिन, संस्कृत आदि भाषाओं में महारत हासिल कर ली। १८४६ में मूलर इंग्लैंड पहुँच गए थे और उन्होंने ऋग्वेद का अनुवाद भी शुरू कर दिया था। १८४८ में आक्स्फोर्ड प्रेस ने इसका मुद्रण भी प्रारम्भ कर दिया था। १८५० में ही वह आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में यूरोपीय भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए थे। उनकी इच्छा तो संस्कृत विभाग के आचार्य बनने की थी, किंतु विदेशी होने के कारण उनका चयन नहीं हो पाया था। इस बात का उन्हें गहरा मलाल भी था। हालाँकि, बाद में उनकी नियुक्ति हो गयी थी। उनकी आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। हम मूलर और मेकौले की भेंट तथा मूलर के व्यक्तित्व से जुड़े कुछ पहलुओं की जानकारी के लिए ‘विकिपीडिया’ में इस प्रकरण के उद्धृतांश से थोड़ा परिचित हो लेते हैं : -
“इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर १८५५ में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया। इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत और उसके प्रभाव को स्वयं मेक्समूलर ने १८९८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लैंग सायने’ में स्पष्ट किया है ! एक प्रकार से मैकॉले ने मैक्समूलर को अपमानजनक ढंग से आदेश देकर रुखसत किया ! अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने इस बदनाम साक्षात्कार का वर्णन किया है ! उसने दुखित मन से लिखाः
“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent……I went back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.” (LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).
इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई । निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्पटु व्यक्ति है। मैं और अधिक दुःखी होकर ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर”
(जी.प.खं. १, पृ. १६२)
मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि ‘इस भेंट के बाद उसने मध्यम मार्ग अपनाया’, (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्देश्यों की भी पूर्ति होती रहे और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा ? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया ! मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया ! उसके ये मनोभाव एवं उद्देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता ! अपनी पत्नी को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्देश्य को पहली बार दिल खोलकर उजागर किया ! वह लिखता हैः
“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अर्थात् ”मुझे आशा है कि मैं इस काम को (सम्पादन-भाष्य आदि) पूरा कर दूंगा और मुझे निश्चय है कि यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा ! यह (वेद) उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है !”
हाँ, तो प्रोफ़ेसर विल्सन की सिफ़ारिश पर मैक्समूलर को भारतीय ग्रंथों के अनुवाद और उनके अर्थ की अपेक्षित व्याख्या हेतु किराए पर नियोजित किया गया। किराया था – प्रति पेज अनुवाद ४ पाउंड। अब बातों को और विस्तार देने के बजाय हम यह बता दें कि १८५३ में आक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय में प्रति वर्ष की तनख़्वाह पुरुष प्रोफ़ेसरों की ९० पाउंड और महिला प्रोफ़ेसरों की ६० पाउंड हुआ करती थी। उस ज़माने में मूलर को एक अत्यंत महँगे पैकेज पर इस कार्य के लिए लिया गया था। मूलर ने दो कारणों से इस कार्य में अपनी पूरी जान लगा दी। एक तो अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का इतना बढ़िया मौक़ा वह गँवा नहीं सकता था और दूसरे, यह कार्य पूरी तरह से उसकी रुचि, प्रतिभा (संस्कृत और भारतीय ग्रंथों का ज्ञान) और मनोविज्ञान (हिंदू धर्म को समूल नष्ट कर ईसाइयत की भारत में स्थापना) के साँचें में फ़िट बैठता था। मैक्समूलर ने अपने को सौंपे गए इस अति महत्वपूर्ण दायित्व के साथ भरपूर न्याय किया।
मूलर ने ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया। उसके सामने बाइबल की यह पंक्ति थी कि ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण ईसा से ४००० वर्ष पूर्व किया था। इसलिए किसी क़ीमत में वह ऋग्वेद को ४००० वर्ष ईसा पूर्व या उससे पहले की रचना मान नहीं सकता था। उसने सूत्र-ग्रंथों के काल को बुद्ध के काल के क़रीब ६०० ईसापूर्व का माना क्योंकि बुद्ध से सम्बंधित आलेखों के प्रमाण तब मौजूद थे। पीछे की ओर बढ़ते हुए उसने अरण्यक, ब्राह्मण-ग्रंथों और ऋग्वेद की रचना के काल की गणना के लिए दो-दो सौ वर्षों के अंतराल का अन्दाज़ लेते हुए वेद का रचना काल १२०० ईपु (ईसा पूर्व) से १००० ईपु माना। ऋग्वेद की पंक्ति ‘कृणवतोविश्वमार्यम’ अर्थात “सम्पूर्ण विश्व को ‘आर्य’ बनाओ” में ‘आर्य’ का अर्थ उसने ‘एक सात्विक और सद्गुणी मनुष्य’’ के बजाय एक ‘रेस’ अर्थात प्रजाति के रूप में प्रतिपादित किया और आर्यों का मूल स्थान यूरोप बताया। विलियम जोंस के ‘प्रोटो-लैंग्वेज थ्योरी’ के साथ साम्य बिठाते हुए उसने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि दक्षिण रूस में अपनी मातृभूमि में रहने वाले पतली, खड़ी और नुकीली नाक वाले ‘आर्य’ रेस के गोरे युरोपीय लोग पश्चिम एशिया के रास्ते पश्चिमोत्तर भारत में घोड़ों और रथ पर सवार होकर १५०० ईपु घुसे। उन्होंने वहाँ के मूल निवासी चपटी नाक वाले ‘द्रविड़’ रेस के काले लोगों को युद्ध में हराकर खदेड़ दिया। द्रविड़ रेस के काले ‘दास’ या ‘दस्यु’ मूल भारतीयों ने भागकर विंध्य के पार दक्षिण भारत में पनाह ले ली और गोरी-चिट्टी खड़ी नाक वाली विजेता आर्य प्रजाति धीरे-धीरे समूचे उत्तर भारत में पसरकर राज करने लगी। यही आर्य जाति अपने साथ यूरोप से घोड़े और रथ के साथ-साथ संस्कृत भाषा लेकर आयी थी और उसी भाषा में उन्होंने ऋग्वेद और अन्य वेदों तथा पौराणिक ग्रंथों की रचना की। इस सिद्धांत द्वारा वह यह साबित करना चाहता था कि भारत में शासन करना यूरोपियों (अंग्रेज़ों) का नैसर्गिक अधिकार है। उसने यह काम इतनी सफ़ाई से किया कि भारतीय लोग इस तथ्य से भी अपनी आँखें मूँदे पाए गए कि जिस वेद की महिमा का खंडन करने के लिए उसे किराए पर लिया गया था उसे उसने स्वयं अपनी ही रेस ‘आर्य’ की रचना साबित कर दिया और समूचे भारत की पाठ्यपुस्तकें अपनी पीढ़ियों को यहीं पढ़ा-पढ़ाकर उन्हें इतिहासबोध कराती रही कि उत्तर भारतीय बाहर से आए लुटेरे आर्यों की संतान हैं और दक्षिण भारतीय पराजित और खदेड़े गए द्रविड़ रेस की संतान हैं। मूलर अपना काम कर १९०० ईसवी में इस संसार से विदा हो गए।
मूलर की मृत्यु के बाद आनेवाले बीस-बीस वर्षों के अंतर पर विज्ञान में दो महत्वपूर्ण प्रगतियाँ हुई। पहली प्रगति पुरातात्विक विज्ञान के क्षेत्र में हुई कि बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक अर्थात १९२० से भारत में पुरातात्विक उत्खनन के कार्य का प्रारम्भ हुआ। और दूसरी प्रगति हुई अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में चौथे दशक अर्थात १९४० के बाद, जब विलर्ड लिबी ने कार्बन के एक समस्थानिक परमाणु ‘कार्बन-१४’ की विद्यमान मात्रा के आधार पर किसी जैव वस्तु की आयु निर्धारित करने की तकनीक ‘कार्बन-डेटिंग’ की खोज की जिसके लिए उन्हें १९६० में रसायन शास्त्र का नोबल पुरस्कार भी दिया गया। कहने का अर्थ है कि उत्खनन पर आधारित पुरातत्व विज्ञान के विश्लेषणों और कार्बन डेटिंग की तकनीक के बिना ही आर्यों के आक्रमण और ऋग्वेद की रचना का काल निकाल लिया गया जो आज तक पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जा रहा है। और, यहीं पर एक बात और जोड़ दें कि इन सामंती विचारकों पर विज्ञान का एक और घातक प्रहार हुआ। विज्ञान ने ‘रेस’ जैसी अवधारणा को सिरे से ख़ारिज कर दिया जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने संकल्प में शामिल कर लिया। ऐसे आगे चलकर हम इस प्रसंग पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे।
........................क्रमशः ....
........................क्रमशः ....
एक लाजवाब सार्थक पोस्ट। काफी मेहनत की है। साधुवाद्।
ReplyDeleteजी, बहुत आभार। त्रुटियों को भी तलाशते रहेंगे ताकि सार्थकता बानी रहे।
Deleteमेरे लिये नया विषय है। ज्ञानवर्धक आलेख समझने की कोशिश भर है।
Deleteआपके समर्थन का आभार!
Deleteबेहद शानदार ...
ReplyDeleteबहुत आभार, ऋषभ जी।
Deleteसारगर्भित और जानकारीपरक पोस्ट।
ReplyDeleteमुझे ऐसा लगता है कि मानव का ज्ञान तभी सार्थक होता है जब दायित्वबोध सजग होता है।
ReplyDeleteआपके इस लेख के लिए आभार कहना तुच्छ प्रतीत हो रहा है।
आदरणीय विश्वमोहन जी,
बेहद ज्ञानवर्धक, शोधपरक और रोचक लेख के लिए अत्यंत आभार।
इतिहास की सही जानकारी और भ्रांतियों के परतों में छुपे वैदिक साहित्य का साक्षात्कार अनसुलझे सवालों के प्रति जिज्ञासा का समाधान आपके लेख में सहज हो जायेगा ऐसा प्रतीत हो रहा।
अगली कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी।
साक्षा करने के लिए शुक्रिया🙏🙏
जी, आभार!!!
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 7 अगस्त 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! ,
जी, आभार!!!
Deleteबेहद ज्ञानवर्धक, शोधपरक और रोचक लेख के लिए आपको कोटि-कोटि नमन। आज इस विषय पर अमूल्य जानकारियों की बहुत दरकर है। इतिहास को कुछ तो इतिहासकारों ने उल्ट-पुलट दिया और कुछ टी.वी मिडिया और फिल्मकारों ने। सत्य जानने का अधिकार है भावी पीढ़ी को लेकिन उन में सब्र से वेदों का अध्ययन करने का समर्थ नहीं इसलिए इन लेखो को उन तक पहुंचना भी बहुत जरुरी हैं। मैं अपनी बेटी को भी आपका लेख पढ़ा रही हूँ ,सत सत नमन आपको
ReplyDeleteजी, बिलकुल सही। जिन पीढ़ियों का गौरवमय इतिहास नहीं होता, उनका भाग्य छोटा होता है, किंतु जो अपने गौरवमय इतिहास को नहीं जानतीं, जानने की कोशिश नहीं करती या उसे विस्मृत कर देती हैं, नितांत आभागी होती हैं। अपनी बेटी में इतिहास-बोध की परम्परा का बीज बोकर आप न केवल अपने अभिभावक धर्म का पालन कर रही हैं अपितु अपने संस्कारों के भविष्य को सुरक्षित भी कर रही हैं। अत्यंत आभार!!!
Deletehttps://www.facebook.com/vishwamohan.kumar.75/posts/3720734664607508?comment_id=3722017917812516¬if_id=1596942882401886¬if_t=feedback_reaction_generic&ref=notif
Deleteयह सारा का सारा ही आद्योपान्त अनर्गल प्रलाप है। सारे ऋग्वेद में कोई मनुष्य एक शब्द भी ऐसा दिखा सकता है क्या जिससे यह सिद्ध होता है कि काली चमड़ी वाले आदिवासी थे और आर्य रङ्ग वाले किसी और देश के निवासी थे।प्रथम तो वेद में काली चमड़ी वाले (कृष्णत्वचः) यह शब्द ही कहीं उपलब्ध नहीं और ना ही कहीं गौरवचः ऐसा शब्द है।हाँ, ‘दास वर्णम्' ‘आर्य वर्णम्' यह दो शब्द हैं जिनकी दुगति करके काले-गोरे दो दल कल्पना किये गए है। हलाँकि चारों वेदों में विशेष कर ऋग्वेद में कोई एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि ‘आर्य वर्णम्' इस देश में बाहर से आए, और ‘दास वर्णम्' यहां के मूल निवासी (Aborigines) थे।
ReplyDeleteग़लती तो हम भारतवंशियों की भी है, जो अपने मौलिक चिंतन से दूर हटकर अब धीरे-धीरे पिछलग्गूपन का शिकार होते जा रहे हैं। यह एक सामन्य मानव मनोविज्ञान है कि जिस चीज़ की जानकारी कम होती है या जो समझ से बाहर की होती है उसकी छद्म-बुद्धिजीवी आलोचना में हम अपनी बुद्धिहीनता को छिपाने का छल रचते हैं। भारतीय ग्रंथों के बारे में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। हमने ईमानदारी से उनके शोध या अध्ययन की कोशिश नहीं की। बहुत आभार आपके इस ब्लॉग पर विमर्श में शामिल होने के लिए।
Deletehttps://www.facebook.com/vishwamohan.kumar.75/posts/3720734664607508?comment_id=3722017917812516¬if_id=1596942882401886¬if_t=feedback_reaction_generic&ref=notif
Deleteशोधपरक लेख भारतीयों को दिशाहीन किया गया और आश्चर्य इस बात का हे के पहले के संभ्रांत बुद्धिजीवियों ने भी उस और ध्यान नहीं दिया और वर्तमान में भी इस और ध्यान नहीं दिया जा रहा है
ReplyDeleteजी, सही कहा आपने । कारण यह रहा कि हम सदियों की ग़ुलामी के बाद निष्पक्ष और मौलिक चिंतन की परम्परा से दूर होकर भिन्न-भिन्न वादों और पंथों के पिछलग्गू बन गए। एक ओर कट्टरपंथियों ने हमें अपनी अस्मिता से दूर कर दिया तो दूसरी ओर वामपंथी ज़हर भरने लगे। और इन दोनों के आपसी संघर्ष में भारत की मूल आत्मा खो गयी। आपकी विमर्श मूलक टिप्पणी के लियी आभार!
Deleteबहुत ही ज्ञानवर्धक और शोधपरक लेख लिखा है आपने...
ReplyDeleteसही कहा हमें हमारे इतिहास की सच्ची जानकारी होना बेहद जरूरी है...ये हमारे लिए निंदा का विषय है कि किसी बाहर वाले ने आकर हमें ही गुलाम नहीं बनाया बल्कि हमारी आत्मा (हमारे वेदों)को भी हमसे छीनकर मनमुताबिक तरीके से फेर बदल कर हमारे ही आगे परोस दिया और हम बिना जाँचपरख कर उनकी बातों को मानते चले गये.....।
हमारे इतिहास और वैदिक साहित्य की ये जानकारी जन-जन तक पहुँचनी चाहिए ।। शत शत नमन एवं साधुवाद इतने रोचक एवं ज्ञानवर्धक लेख हेतु।
जी, बिलकुल सही कहा आपने। अपनी मौलिकता के ज्ञान के अभाव में हम सांस्कृतिक ग़ुलाम आज तक बने हुए हैं।
Deleteभारत के गौरवपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों की दुर्लभ जानकारी से जुड़ी
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट ।
जी, आभार!!!
Deleteअत्यंत रोचक लेख , जो दशकों या कहें ढेढ़ सदी के एक छद्म झूठ का पटाक्षेप करता है | मूलर जैसा विदेशी मूल का व्यक्ति , भले वह संस्कृत या अमुक -अमुक भाषाओं का कितना बड़ा विद्वान क्यों ना हो , को वैदिक संपदा का विश्लेष्ण करने के लिए नियुक्त करना ही बहुत बड़ी ऐतहासिक भूल थी | क्योंकि वह वैदिक संहिताओं का जिज्ञासु होते हुए भी , भारत की सनातन संस्कृति की आत्मा की थाह नहीं पा सका | |लेकिन उन कथित बौद्धिकता के दावेदार समकालीन भारतियों की जड़- मेधा पर भी अफ़सोस होता है , जो अपने गौरवशाली अतीत के प्रति इस छद्म षड्यंत्र से अनभिज्ञ रहे या अपनी बौद्धिकहीनता से ग्रस्त हो , विदेशियों के विशलेषण पर आँखें मूँद कर विश्वास करते और जताते हुए उनके आगे नत रहे |जिसके सम्मान में भारत सरकार ने बड़े -बड़े भवनों का नामकरण उसके नाम पर कर दिया , मात्र एक पत्र उस छद्म व्यक्तित्वधारी मूलर की पोल खोल गया |'' भारत में शासन करना यूरोपियों (अंग्रेज़ों) का नैसर्गिक अधिकार है। '' जैसी कुत्सित सोच के साथ , पूर्वाग्रहों और अपनी जाति- धर्म और नस्ल के प्रति अनावश्यक अन्धं निष्ठा उसके विश्लेष्ण का स्याह पक्ष है | ऐसे पाश्चात्य विद्वानों ने परोक्ष रूप से वेदों की महिमा को खंडित करने का असफल प्रयास किया | पर अंततः यही सच रहा जो मुहम्मद इकबाल ने कहा ---
ReplyDeleteकुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी -- सदियों रहा है दुश्मन दौरेजहाँ हमारा -
ऐतहासिक प्रामाणिक तथ्यों के साथ अपनी संस्कृति और वैदिक संपदा के साथ हुए अन्यायपूर्ण रवैये के बारे में आपकी ये शोध यात्रा वन्दनीय है , आदरणीय विश्वमोहन जी | | आपके इन शोध लेखों का लिंक अपने परिवार के जिज्ञासु बच्चों के साथ शेयर कर रही हूँ | आशा है वे भी इन विश्लेष्णात्मक आलेखों से लाभान्वित होंगे | आभार और शुभकामनाओं के साथ अगले लेख की प्रतीक्षा में --
जी, बहुत आभार आपकी इस विस्तृत टिप्पणी का। फ़ेसबुक पर भी आपकी टिप्पणी पढ़ी और इस विषय में आपके द्वारा दिखायी गयी रुचि के प्रति मैं साधुवाद व्यक्त करता हूँ। वहाँ पर निश्चय ही विचार-विमर्श और स्वस्थ आलोचना-प्रत्यालोचना की बौद्धिक परम्परा ज़्यादा समृद्ध है। ऐसे विमर्शों का एक अलग ही आनंद है। आशा है आगे के धारावाहिकों में भी आपके आशीष की छाया मिलती रहेगी।
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसबसे पहले तो नेपाल के एक वरिष्ठ साहित्यकार के द्वारा मेरे ब्लॉग को पवित्र किए जाने के लिये हृदयतल से आभार और इसे मैं भविष्य में भी आपसे ऐसे ही आशीष पाने के अपने हक़ को जतलाने के अवसर के रूप में लेता हूँ। आशा है इस विशुद्द बौद्धिक लेख यात्रा को आपका सान्निध्य मिलता रहेगा।
Deleteसारगर्भित आलेख.. दुर्लभ जानकारी।
ReplyDeleteशुभकामनाएँँ।
प्रणाम, अभी तक हम जो गलतियां करते आए , अब तो उनपर सोचने की बारी है, अत्यंत सारगर्भित लेख और संकलन करने योग्य है ..सो मैं इसे बुकमार्क करके धीमे धीमे पढ़ूंगी, अगर आप आज्ञा दें तो आगे शेयर करना चाहूंगी, धन्यवाद विश्वमोहन जी
ReplyDeleteजी, प्रणाम और आभार। अब तो ये आपका ही लेख है। अवश्य साझा करें ताकि हमारे हिंदी पाठकों के एक बड़े वर्ग को अपने अतीत का इतिहास बोध हो और इस लेख में कोई तथ्यात्मक त्रुटि नज़र आए तो प्रकाश में आए और इस लेख पर विमर्श भी हो।
Deleteबहुत ही ज्ञान वर्धक जानकारी,आदरणीय प्रणाम ।
ReplyDeleteबहुत आभार!!!
Deleteगहन अध्यन के बाद किये शोध पर एक विचार ...
ReplyDeleteचर्चा इतिहास पर होती रहती है ... पक्ष विपक्ष भी होता है जो जरूरी है बहुत ही ...
जी,आभार!!!
Deleteशानदार रचना । मेरे ब्लॉग पर आप का स्वागत है ।
ReplyDeleteजी, आभार। बढ़िया ब्लॉग है, आपका। यूँ ही लिखते रहिए।
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