Saturday, 3 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (८)

(भाग - ७ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


ऋग्वेद में वर्णित नदियाँ और उनका पूरब से पश्चिम तक का विस्तार 


नदियों के भूगोल रचयिता-ऋषियों के कार्य-क्षेत्र का भी चित्र प्रस्तुत करते हैं। ऋग्वेद में इन नदियों के वर्णन का विवरण इस प्रकार है।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : २४ सूक्त, ४५ मंत्र और ४७ नाम।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ३० सूक्त, ३७ मंत्र और ३९ नाम।



   

फिर हम यहाँ भी यही देखते हैं कि भौगोलिक संदर्भों में पूरब की नदियों के वर्णन का विस्तार भी अन्य भौगोलिक तत्वों की भाँति ऋग्वेद के पुराने मंडलों से लेकर नवीन मंडलों तक सर्वत्र फैला हुआ है। इस बिंदु पर एकमात्र अपवाद मंडल ४ में दिखता है जिसके कुछ ऐतिहासिक कारण है और उनकी पड़ताल भी हम शीघ्र ही करेंगे।

अब थोड़ा पश्चिम की नदियों के ऋग्वेद में वर्णन के विवरण पर भी अपनी आँखें हम डालें।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : चार सूक्त और पाँच मंत्र।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : सत्तावन सूक्त और बहत्तर मंत्र।



  

पाँच में से चार पुराने मंडलों (६, ३, ७ और २) में पश्चिमी नदियों का कोई ज़िक्र नहीं मिलता। अब एक बात फिर यहाँ ध्यान देनेवाली है। पूर्वी नदियों के विवरण सभी मंडलों में है, केवल चौथे को छोड़कर। उसी तरह  पश्चिमी नदियों का ज़िक्र किसी भी पुराने मंडल में नहीं है, बस चौथे को छोड़कर। अर्थात दोनों मामलों में चौथा मंडल अपवाद के रूप में है। चौथे मंडल में पूर्वी नदियों का विवरण नहीं है और पश्चिमी नदियों का विवरण है। इस तरह चौथा मंडल एक विलक्षण चरित्र दर्शाता है कि इसका सांस्कृतिक परिवेश तो अन्य ऋषि-कुल-रचित पुराने मंडलों की तरह पूरबिया है लेकिन इसका कार्य-क्षेत्र पश्चिमी है। इसका प्रमुख कारण आर्यों (पुरु) का पूरब से पश्चिम की ओर ठेला जाना है जिसका वर्णन ऋग्वेद में है और अब हम उसकी चर्चा भी करेंगे। 

ऋग्वेद के पुराने मंडलों का भूगोल पूरी तरह पूरब का भूगोल है। नदियों से इतर पश्चिम के भौगोलिक संदर्भों का पुराने मंडलों (६, ३, ७, ४ और २) में कोई उल्लेख नहीं मिलता। पाँच में से चार पुराने मंडलों (६, ३, ७ और २) के किसी भी सूक्त, चाहे वे पुराने हों या संशोधित, में पश्चिम की नदियों का कोई ज़िक्र नहीं मिलता।

पाँचों  नए मंडलों में अपेक्षाकृत सबसे पुराने पाँचवें  मंडल की स्थिति बीचो-बीच वाली है। नदियों के अलावा   बाक़ी पश्चिमी भौगोलिक तत्वों का उल्लेख इसमें बिल्कुल नहीं आता, लेकिन पश्चिम की नदियों का ज़िक्र आता है। बाक़ी चार नए मंडलों (१, ८, ९ और १०) में, जो ऋषि-कुल रचित नहीं हैं, चाहे नदियों के भौगोलिक संदर्भ हों या नदियों से इतर अन्य भौगोलिक तत्व, पूरब और पश्चिम का समान प्रतिनिधित्व है। ये सारे तथ्य इस बात को बड़ी स्पष्टता से परिलक्षित करते हैं कि पुराने मंडलों से लेकर नए मंडलों के रचे जाने तक ‘आर्यों’ (पुरु) का विस्तार पूरब से पश्चिम की ओर होता रहा और इस ऐतिहासिक विस्तार की आहट  ऋग्वेद के पन्नों में सुरक्षित है। 

पूरब से पश्चिम की ओर फैलने के क्रम में आर्यों ने, निश्चय ही, सरस्वती और सिंधु नदियों के मध्य के क्षेत्रों को पार किया होगा और यह वहीं काल रहा होगा जब अभी वे ऋग्वेद के पुराने मंडलों की ही रचना कर रहे थे। अब एक नज़र इन पुराने मंडलों में वर्णित इस मध्य क्षेत्र के भौगोलिक तत्वों पर भी फेर लें। इस क्षेत्र के एक भी पहाड़ या सरोवर का कोई नाम नहीं मिलता, और न ही किसी पशु या वन्य-प्राणी का कोई ज़िक्र ऋग्वेद में कहीं आता है। हाँ, इस मध्य क्षेत्र के कुछ नदियों और स्थानों के नाम अवश्य ऋग्वेद में पाए जाते हैं, जिनका विवरण उन विशेष नामों के साथ  इस प्रकार है : 

१ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ :सात सूक्त और नौ मंत्र।

२ – नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : बारह सूक्त और बारह मंत्र।




 इन पाँच पुराने मंडलों का इतिहास क्रम स्पष्ट है :

छठा मंडल सबसे पुराना मंडल है। यह प्राचीन भरत-राजा ‘दिवोदास’ के समय का है। भारद्वाज कुल रचित इस छठे मंडल में मुख्य रूप से भरत कुल और उनके राजा दिवोदास की केंद्रीय भूमिका है। (विजेल १९९५ बी:३३२-३३३)। दिवोदास की चर्चा अनेक बार आती है, [छठे मंडल में १६/(५, १९), २६/५, ३१/(४), ४३/(१), ४७/(२२, २३), ६१/(१)]। सच कहें तो इस पुस्तक का विस्तार पीछे की ओर कई पीढ़ियों तक ऋग्वेद के प्राचीनतम और ऋग्वेद से पहले के भी पुराने राजाओं तक चला जाता है। इसमें दिवोदास के पिता सृंजय का उल्लेख मिलता है [छठे मंडल में २७/(७), ४७/(२५)], जिन्हें छठे मंडल के ही एक अन्य मंत्र [६१/(१)] में एक अत्यंत अपमानजनक शब्द ‘वध्रयस्व’ से सम्बोधित किया गया है। इसका अर्थ नपुंसक होता है। दिवोदास के दादा ‘देवदत्त’ का भी उल्लेख इसी मंडल के मंत्र [२७/(७)] में है और जिनके नाम पर कुल का नाम है उस ‘भरत’ का उल्लेख मात्र एक बार [१६/(४)] में है। इस छठे मंडल के २६वें सूक्त के आठवें मंत्र में दिवोदास के पुत्र ‘प्रतर्दन’ का भी नाम आता है।

कालक्रम में दूसरे और तीसरे सबसे पुराने मंडल तीन और सात हैं। तीसरा मंडल दिवोदास की संतति ‘सुदास’ के समय का है (विजेल १९९५ बी :३१७)। यही हाल सातवें मंडल का भी है क्योंकि इसमें भी सुदास का ज़िक्र बहुत बार आया है। सभी विद्वानों का यह एकमत से मानना है कि  तीसरे मंडल के रचयिता विश्वामित्र पहले सुदास के पुरोहित थे। बहुत आरम्भ में थोड़े दिनों के लिए ही सुदास विश्वामित्र के यजमान रहे थे। बाद में उनके पुरोहित वशिष्ट बन गए जो सातवें मंडल के रचयिता हैं। इन दोनों मंडलों में सुदास की चर्चा बहुत बार हुई  है:

तीसरा मंडल : ५३/(९, ११)

सातवाँ मंडल : १८/(५, ९, १५, १७, २२, २३, २५), १९/(३, ६), २०/(२), २५/(३), ३२/(१०), ३३/(३), ५३/(३), ६०/(८, ९), ६४/(३), ८३/(१, ४, ६, ७, ८)

उनके पिता ‘पिजावन’ का उल्लेख सातवें मंडल के मंत्र १८/(२२, २३, २५) में है।

चौथा मंडल राजा सुदास के वंशज सहदेव और सहदेव के पुत्र सोमक के काल का है। इनकी चर्चा क्रमशः इस मंडल के १५/(७, ८, ९, १०) और १५/(९) मंत्रों में मिलती है। ये चारों मंडल वैदिक इतिहास के एक विशेष कालखंड का निर्माण करते हैं। दिवोदास के दादा देवदत्त का विवरण भी केवल इन्ही मंडलों में मिलता है।

छठा मंडल : २७/(७)

तीसरा मंडल : २३/(२)

सातवाँ मंडल : १८/(२२)

चौथा मंडल : १५/(४)

शुरू के भरत-कुल के राजाओं का भी विवरण इन मंडलों में मिलता है। तीसरे मंडल के तेइसवें सूक्त में  देवश्रवा नामक एक राजा को अपने पूर्वज देवदत्त के द्वारा निर्मित यज्ञ-वेदी में अग्नि को आहुति देते हुए दिखाया गया है। यह राजा या तो सुदास के समकालीन था या हो सकता है वह राजा स्वयं सुदास ही हो।  सुदास और इन भारत राजाओं को कहीं-कहीं [सातवें मंडल में ३३/(१४)] ‘प्रतर्दन’ की संतति ‘प्रतर्द’ के रूप में भी सम्बोधित किया गया है और उसी मंडल के १८/(७, १३, १५, १९), ३३/(४, ५, ६) और ८३/(४, ६, ८) में ‘तृत्सु’ के रूप में दिखाया गया है। [प्रसंगवश, भरत-राजाओं  का काल ऋग्वेद का प्रारम्भिक काल है। इनकी चर्चा पुराने ऋषि-कुल रचित मंडलों २, ३, ४, ६ और ७ में ही है। बस केवल पहले मंडल में एक जगह ९६/(३) में इनका नाम आता है। पहले मंडल के ‘कुत्स’ उपमंडल (सूक्त-संख्या ९४ से ११५) के ये सूक्त चौथे मंडल में मिले लगते हैं क्योंकि यहाँ भी १००/(१७) में सहदेव का वर्णन मिलता है।

पुराने मंडलों में दूसरा मंडल सबसे अंतिम रचना है। छठे, तीसरे और सातवें मंडलों से तो निश्चय ही बाद की यह रचना है किंतु नए मंडलों ५, १, ८, ९ और १० से यह काफ़ी पुरानी रचना है। ऐसा  हमने ऋग्वेद के मिती  और अवेस्ता से साझे तत्वों के या सामान भौगोलिक संदर्भों के विवरण  में देखा है। हर मामले में दूसरा मंडल अन्य पुराने मंडलों के समकक्ष बैठता है। केवल चौथे मंडल से इसकी तुलना करने पर थोड़े संदेह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे ढेर सारे शब्द, नाम या अन्य तत्व दूसरे मंडल में मिलते हैं जो चौथे मंडल में  तो मिलते हैं, किंतु अन्य तीनों पुराने मंडलों में वे नहीं पाए जाते। इससे कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न होता है कि दूसरा मंडल या तो चौथे मंडल के समकालीन है या फिर उसके थोड़े बाद की रचना है। बस एक ही विशेषता दूसरे मंडल को अन्य मंडलों से थोड़ा ख़ास बनाती है। वह बात है की दूसरे मंडल में सरस्वती के अलावा  किसी अन्य नदी का कोई ज़िक्र नहीं है।


पश्चिम की ओर चरणबद्ध विस्तार की घटना ऋग्वेद के पुराने मंडलों में न केवल नदियों के विवरण-क्रम में, बल्कि ऐतिहासिक वृतांतों में भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होती है।  

छठा मंडल ऋग्वेद का प्राचीनतम मंडल है। इसकी कहानियाँ और वृतांत ‘दिवोदास’ और उसके पुत्र ‘प्रतर्दन’ से भी काफ़ी पीछे के उनके पूर्वजों तक जाती हैं। इसका भूगोल पूरब का भूगोल है। इसमें वर्णित नदी एवं नदी के अलावा  अन्य सभी भौगोलिक तत्वों के वृतांत न तो पश्चिमी क्षेत्र और न ही, मध्य क्षेत्र को छूते हैं। नदियों में सरस्वती [४९/(७), ५०/(१२), ५२/(६), ६१/(१ से ७, १०, ११, १३, १४] के अलावा  इसके पूरब बहने वाली गंगा [४५/(३१)] और हरियूपिया/याव्यवती [२७/(५, ६)] का वर्णन है। [हरियूपिया या याव्यवती दृशद्वती नदी के ही पर्यायवाची नाम हैं और इनका संदर्भ ‘कुरुक्षेत्र के तीर्थ-स्थान’ से भी है (टॉमस १८८३)। महाभारत में 'दृशद्वती' को 'रौप्य' कहा गया है। इसे अफगानिस्तान की 'झोबो' नदी भी बताया गया है, हालाँकि इसका कोई पुख़्ता आधार नहीं बताया गया है। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में इस नदी का वर्णन  अन्यत्र कहीं  बस एक पंचविंश ब्राह्मण में आया है, जिसके बारे में प्रसिद्ध पश्चिमी भारतविद विजेल का मत है कि ‘याव्यवती’ नदी का वर्णन ऋग्वेद में मात्र एक बार आया है। इसे पूर्वी अफगानिस्तान का ‘झोब’ नदी भी समझा जाता है। पंचविंश ब्राह्मण के श्लोक २५/७/२ में फिर भी इस नदी के अफगनिस्तान में बहने के कोई संकेत नहीं मिलते हैं। इस नदी से जुड़े लोगों के बारे में मान्यता है कि वे ‘कुरु-पाँचाल-क्षेत्र’ के ‘विभिन्दूक’ नामक देश के निवासी थे जो हरियाणा में सरस्वती से पूरब हट कर है [ विजेल १९८७:१९३]। 

दिवोदास के पूर्वजों की भी सारी गतिविधियाँ इसी पूर्वी क्षेत्र में केंद्रित थीं। छठे मंडल के सत्ताईसवें सूक्त में 'देववात' के पुत्र 'सृंजय' द्वारा हरियूपिया/याव्यवती के तट पर लड़े गए एक युद्ध का वृतांत है। छठे मंडल के इकसठवें सूक्त में दिवोदास के नपुंसक पिता 'वधर्यस्व' का ज़िक्र आता है जिसने सरस्वती के तट पर पूजा-अर्चना कर अपने पुत्र दिवोदास को वरदान के रूप में पाया था। तीसरे मंडल के तेइसवें सूक्त में 'द्रसद्वती' और 'अपया' नदी के तट पर मानस झील के पास देववत के द्वारा बनायी गयी यज्ञ वेदी में 'देवश्रवा' के द्वारा की गयी उपासना का विवरण मिलता है। देवश्रवा या तो राजा सुदास का समकालीन था या सम्भव है कि वह स्वयं इस नाम से सुदास ही था। नदियों के इन आँकड़ों या डाटा को किसी रेखाचित्र या ग्राफ़ पर रखकर देखने से पूरब से पश्चिम की यात्रा बड़ी सफ़ाई से समझ आ जाती है। 

मध्य-क्षेत्र की पहली दो नदियों का ज़िक्र पहली बार ऋग्वेद के तीसरे मंडल में मिलता है। इस मंडल की रचना दिवोदास के वंशज राजा सुदास के काल में ऋषि विश्वामित्र ने की थी। ये दोनों नदियाँ पंजाब में पूरब में बहनेवाली 'सतुद्री (आज की सतलज)' और 'विपास (आज की व्यास)' नामक नदियाँ हैं। इन दो नामों के अलावा सरस्वती के पश्चिम में स्थित प्रमुख भौगोलिक पहचान वाली किसी और दूसरी चीज़ का कोई ज़िक्र इस मंडल में नहीं आता है। सुदास और उसकी भरत-सेना के इन दोनों नदियों के पार करने के ऐतिहासिक प्रसंग में इनका नाम तीसरे मंडल के ३३वें सूक्त में आता है। इसी सूक्त के ५वें मंत्र के अनुसार उनका यह आगमन पश्चिम के उन क्षेत्रों में जाना था जहाँ सोम की उपलब्धता थी। ठीक वैसे ही जैसे यूरोप के लोग मसाले के आयात के लिए भारत पहुँचने  के लिए समुद्री मार्गों की तलाश में निकलते थे, वैदिक आर्य भी पश्चिम की इस भूमि से सोम का आयात कर ले जाते थे। 

विश्वामित्र  के पौरिहत्य में सुदास की प्रारम्भिक गतिविधियों का क्षेत्र भी पूरब की ही यह भूमि थी। तीसरे मंडल के २९वें सूक्त में वर्णित जिस इलायास्पद के ‘नभ पृथिव्या:’ में विश्वामित्र ने यज्ञ की पवित्र अग्नि प्रज्वलित की है, वह सरस्वती के पूरब में हरियाणा का ही क्षेत्र है। तीसरे मंडल के ५३वें सूक्त में उसी अग्नि में वे आहुति देते हैं, ‘वर-आ-पृथिव्या:’‘कुशिकाओं, आगे आओ! जाग्रत हो!    सम्पत्ति- विजय हेतु सुदास के अश्वों के बंधन खोलो! पूरब, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित अपने शत्रुओं का राजा वध करे और फिर इस पृथ्वी पर अपनी अभिलिषित भूमि पर अपनी पूजा-अर्चना करे! (५३/(११) का ग्रिफ़िथ के द्वारा किया गया अनुवाद)। इसी के बाद सुदास अपने साम्राज्य की विस्तारवादी योजना हेतु सभी दिशाओं में प्रयाण करता है। उसके इस अभियान में सुदूर का ‘किकत’ प्रांत भी शामिल है। पारम्परिक विद्वान इस क्षेत्र को बिहार के मगध की भूमि बताते हैं। लेकिन विजेल उतनी दूर न जाकर इसे हरियाणा से दक्षिण-पूर्व – पूर्वी राजस्थान या पश्चिमी मध्य प्रदेश तक ही सीमित रखते हैं (विजेल १९९५ बी:३३३)। 

विश्वामित्र के बाद वशिष्ठ  राजा सुदास के पुरोहित बन गए थे। इस समय अभी राजा सुदास अपने विजय अभियान की मध्य अवस्था में ही थे। वशिष्ठ  के द्वारा रचित सातवें मंडल में पंजाब के पूर्वी क्षेत्र  की तीसरी और चौथी नदियों का ज़िक्र पहली बार आया है। ये नदियाँ 'परश्नि (आज की रावी)' और 'असिक्नी ( आज की चेनाब)' हैं। 'सतुद्री' और 'विपास' के बाद इनका विवरण आया है। 'परश्नि' और और 'असिक्नी' को छोड़कर सरस्वती के पश्चिम स्थित अन्य किसी भौगोलिक चरित्र का नाम इस मंडल में कहीं नहीं आया है। यह प्रसंग दसराज्ञ-युद्ध या दस राजाओं के युद्ध का है। अणु की दस जनजातियों और दृहयु की बची- खुची जनजातियों को साथ लेकर परश्नि के तट पर सुदास ने यह लड़ाई लड़ी थी। पूरब से पश्चिम की ओर प्रसार के क्रम में यह लड़ाई दूसरी कड़ी थी। इससे पहले पूरब में उनके पूर्वजों द्वारा लड़े  गए युद्ध का विवरण आ चुका है। पूरब में आहुति-कर्म के बाद फिर से अपने विजय अभियान में जुटे सुदास के पंजाब के पूरब में बहती उन दो नदियों को पार करने का वृतांत तीसरे मंडल में आया है। उसके बाद परश्नि के तट पर सुदास का युद्ध होता है ( सातवें मंडल का १८वाँ सूक्त)।  सातवें मंडल के ५/(३) से यह पता चलता है कि उनके शत्रु असिक्नी के किनारे रहने वाले लोग थे। इससे यह साफ़ होता है कि सुदास पूरब से पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे और उनके शत्रु असिक्नी नदी के पश्चिमी तट की ओर से लड़ रहे थे। इस बात का भी स्पष्ट वर्णन है की शत्रु दल अपनी पराजय के बाद अपने सारे माल-असवाब वहीं छोड़कर पश्चिम दिशा [७/६/(३)] में विदेशी भूमि [७/५/(३)] की ओर तितर-बितर हो गए थे। 


14 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-10-2020) को     "एहसास के गुँचे"  (चर्चा अंक - 3844)    पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  2. आदरणीय विश्वमोहन जी , रोचकता के चरम को छूता लेख अपनी सार्थकता के साथ आगे बढ़ रहा है ! नदियाँ सदियों से , सभ्यताओं और संस्कृतियों के पनपने की साक्षी रही हैं | नदियों के इतिहास से सभ्यता , संस्कृति का इतिहास अभिन्न नहीं है | जलधाराओं ने जनजीवन को पोषित किया है और प्रगति के क्रम को आगे बढाया है तो युद्धों के माध्यम से सभ्यताओं के विनाश की साक्षी होने से नहीं बच सकी | इस लेख में नदियों के पुराने नामों ,जैसे सतुद्री [आज की सतलुज ], विपास [ आज की व्यास ] , परश्नि[ आज की रावी ] , ' असिक्नी ( आज की चेनाब] इत्यादि के बारे में जानना रोचक रहा |वैदिक साहित्य की रचना के साथ विकास के क्रम में तत्कालीन भूगोल के अनुसार पूरब से पश्चिम की ओर सरकती सभ्यताएं सशक्त पक्ष हैं ऋग्वेद के बारे में जानने का | तलगेरी जी ने बहुत ही समर्पण के साथ शोध किया है जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं तो हिंदी पाठकों तक पहुँचानें में आपका श्रम भी अविस्मरनीय है | लिखते रहिये मेरी शुभकामनाएं| अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी | सादर

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    1. जी, बहुत आभार आपकी इस विद्वतपूर्ण टिप्पणी का!!!

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  3. सर्वपर्थम देरी से आने के लिए क्षमा चाहती हूँ,कुछ घरेलु व्यस्थता के कारण आजकल पठन-पठान का समय निकलना थोड़ा मुश्किल हो रहा है और आपका लेख तो इतना रोचक है कि इसे एकाग्रचित होकर ही पढ़ने का दिल करता है। इस श्रृंखला के द्वारा नदियों का पुराना नाम जानना बड़ा ही रोचक रहा। परमात्मा आपको इतना सामर्ध्ता प्रदान करतें कि आप इस श्रृंखला का निर्बिघ्न पूरा कर सकें। सादर नमन

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    1. आपकी रुचि और आपके आशीष का अप्रतिम आभार!!!

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  4. तत्वपूर्ण विवेचन,सुग्राह्य भी है-आपका आभार!

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    1. आपके सुंदर शब्द हमारे लिए उत्साहवर्धक और प्रेरक हैं। अत्यंत आभार!!!

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  5. शोधपूर्ण आलेख पर टिप्पणी...🙏
    नदियों के पुराने नामों को जानना बड़ा ही रोचक रहा।


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