(भाग - ११ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (झ )
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
अंतिम शाखाएँ
भारोपीय भाषाओं की दस अन्य शाखाओं से अलग हो जाने के बाद भी भारतीय-आर्य और ईरानी भाषाओं के आपस में गहरे संबंध के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं।
इस बात को सही ठहराने के लिए भाषा-शास्त्रियों ने कल्पित मूलभूमि दक्षिण रूस में अन्य शाखाओं से भारतीय-ईरानी शाखा के एक साथ अलग होने की परिकल्पना विकसित की है।इसी आधार पर उन्होंने मध्य एशिया में प्राक-वैदिक काल में एक साझी भारतीय- ईरानी संस्कृति के विकसित होने की अवधारणा गढ़ ली है। ग़ौरतलब है कि मध्य एशिया दक्षिण रूस से इन दोनों शाखाओं, भारतीय-आर्य और ईरानी, की अपनी ऐतिहासिक बसावट वाली भूमि के रास्ते में पड़ता है।
फिर भी, जैसा कि हमने पहले देखा है कि ऋग्वेद और अवेस्ता के जो भी साझे सांस्कृतिक तत्व हैं, उनके बीज हमें नए मंडलों के रचना-काल में हरियाणा और अफ़ग़ानिस्तान के बीच के भूभाग में मिलते हैं। भारतीय और ईरानी इतिहास के इन साझे सांस्कृतिक तत्वों के प्रचुर साक्ष्य की चर्चा तलगेरी की पुस्तक (तलगेरी २०००:१६३-२३१; २००८:२५८-२७७ आदि) में विस्तार से उपलब्ध हैं। पुरु और अणु अर्थात वैदिक और ईरानी तत्वों के संघर्ष और उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता के किस्से पुराण और अवेस्ता में देवासुर संग्राम या देव-अहुर संग्राम के रूप में तथा अंगिरा और भृगु या अथर्व या फिर अंगिरा और अथर्वों की पारम्परिक प्रतिद्वंद्विता में संजोये हुए हैं।
भारोपीय शाखा के अप्रवासन या विस्तार की दो घटनाएँ तो ऋग्वेद की रचना के काल से भी काफ़ी पहले हो चुकी थीं –
क – प्रारंभिक शाखाओं के अपने मूल स्थान से अलग हटकर मध्य एशिया में घुसने और वहाँ बस जाने की घटना, और
ख – यूरोपीय शाखाओं के अपने मूल स्थान से हटकर अफगानिस्तान में घुसने और वहाँ बस जाने की घटना। छठे, तीसरे और सातवें – इन पुराने मंडलों के रचना-काल में ऋग्वेद की भूमि में अंतिम शाखाओं का अस्तित्व अब भी क़ायम था। दसराज्ञ-युद्ध और राजा सुदास (मंडल ७) की विस्तारवादी लड़ाइयों ने अंतिम शाखाओं को हटने के लिए बाध्य कर दिया था। फलस्वरूप, अणुओं ने अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश किया और वहाँ से उन्होंने दृहयु जनजाति (यूरोपीय शाखा) को उत्तर की ओर खिसकने के लिये बाध्य कर दिया। फिर, दृहयु अफ़ग़ानिस्तान से चलकर मध्य एशिया में आ गए। बाद में अन्य अंतिम शाखाओं का अफ़ग़ानिस्तान से पश्चिम की ओर बढ़ने का क्रम जारी रहा।
१ – अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियाई, ईरानी और भारतीय-आर्य भाषाओं में बाद में चलकर विकसित होनेवाले भाषिक लक्षणों के आधार पर ऐसा माना जाता है कि अन्य सात शाखाओं के अलग हो जाने के बाद यही वे पाँच शाखाएँ थीं जो अपनी मूल-भूमि में बनी रहीं। दक्षिण रूस की इसी मूलभूमि के रूप में अपनी अवधारणा में ‘दक्षिण रूस मूलभूमि’ के प्रतिपादकों ने परिकल्पना रच ली है।
तथापि, ऋग्वेद में वर्णित दसराज्ञ-युद्ध और राजा सुदास की विस्तारवादी लड़ाइयों (सातवाँ मंडल) के विवरण यही दर्शाते हैं कि इन सभी गतिविधियों की कर्मभूमि पंजाब का ही क्षेत्र था। जैसा कि साफ़ है कि ये वैदिक (भारतीय-आर्य या पुरु) राजा दस जनजातियों (नौ अणु की और एक पहले से उस क्षेत्र में बचे दृहयु की) से युद्ध लड़ने पंजाब के क्षेत्र में पूरब की ओर से ही घुसते हैं। बाद में ये जनजातियाँ पश्चिम की ओर खिसकने लगती हैं। युद्ध विषयक ऋचाओं में अणु जनजाति के लिए प्रयोग किए गए विशेष नाम इस प्रकार हैं :
सातवें मंडल के अठारहवें सूक्त में – ऋचा ५ – सिम्यु, ऋचा६ - भृगु, ऋचा७ – पक्थ, भलान, अलिन, शिव, विसाणिन।
सातवें मंडल के तिरासीवें सूक्त में – ऋचा – १ – परसु/पार्सव, पृथु/पार्थव, दास। (आगे की पौराणिक परम्परा में अणुओं के लिए एक और विशेषण ‘मद्र’ का उल्लेख हुआ है।)
क – दास :
वैसे तो किसी भी अ-पुरु अर्थात अवैदिक आर्य के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है, लेकिन ख़ास तौर पर इसे हम ईरानियों के साथ ही जोड़ते हैं। ५४ सूक्तों के ६३ मंत्रों में यह शब्द प्रकट होता है और उनमें से अधिकांश में इसका अभिप्राय अरियों या शत्रुओं के संदर्भ में ही हुआ है। फिर भी, आठवें मंडल में तीन मंत्र ऐसे ज़रूर मिल जाते हैं जहाँ बात उलट जाती है अर्थात वहाँ पर इनका उल्लेख मित्रतापूर्ण संदर्भों में होता है और ‘दास’ की छवि दोस्त के रूप में उभरकर आती है।
अ – ५/३१, अश्विन को दास के अर्पण को ग्रहण करते दिखाया गया है।
ब – ४६/३२, संरक्षकों के संदर्भ में दास को दिखाया गया है।
स – ५१/९, यहाँ दिखाया गया है इंद्र समान रूप से आर्यों के भी हैं और दासों के भी।
ये तीनों सूक्त ‘दानस्तुति’ के हैं। यहाँ यह भी साफ़ हो जाता है कि मित्र के रूप में उनका उल्लेख किए जाने का संबंध उनकी पहचान एक संरक्षक के रूप में किए जाने से है। इनमें से दो सूक्त, ५ और ४६ तो ऊँट दान करने वाले संरक्षकों की चर्चा करते हैं (और तीसरे सूक्त के साथ भी बहुत कुछ ऐसा ही लगता है, हालाँकि इस सूक्त में स्पष्ट रूप से दान में दी गयी वस्तु-विशेष की चर्चा तो नहीं है, लेकिन इंद्र से उन दानों को स्वीकार किए जाने की स्तुति है)। अन्यत्र, उसी आठवें मंडल में एक जगह और (६/४८) ऊँट दान करने वाले दानकर्ता संरक्षक की दानस्तुति है।
ऋग्वेद के अन्य सूक्तों से हटकर आठवें मंडल के ये चारों सूक्त (५, ६, ४६ और ५१) एक अलग ही विशिष्ट श्रेणी का स्थान रखते हैं :
अ - उनमें से तीन (५, ६ और ४६) ऊँट दान करने वाले संरक्षकों के संदर्भ में हैं,
आ – तीन (५, ४६ और ५१) दास का भली-भाँति विवरण देते हैं और
इ – तीन (५, ६ और ४६) ऊँट दान करने वाले उन संरक्षकों के संदर्भ में हैं जिनकी पहचान आद्य-ईरानी नामों के साथ की गयी हैं। बहुत सारे पश्चिमी विद्वानों ( हौफ़मैन, विल्सन, वेबर, विजेल और ग़मक्रेलिज) ने जिन आद्य ईरानी नामों की पहचान की हैं वे इस प्रकार हैं : - कसु (५), तिरिंदिरा पार्श्व (६) और पृथश्रवा कानित (४६)। ५१ वें सूक्त के संरक्षक ‘रुसाम पविरु’ को विद्वानों ने ईरानी नहीं माना है। तथापि, एम एल भार्गव (भार्गव :१९६४) ने इन्हें सुसोम और अर्जीकिया के भूभाग में रहनेवाली पूरी तरह पश्चिमोत्तर की एक जनजाति माना है। इस तरह से उनका स्थान पूर्णरूपेण ईरान में ही निर्धारित होता है।
अब यदि ‘दास’ शब्द की बात करें तो ऋग्वेद में यह मुख्यतः अ-पुरुओं के लिए ही शत्रुतापूर्ण संदर्भों में आया है। बाद की संस्कृत भाषा में इसका अर्थ नौकर या गुलाम के लिए आया है। मूल रूप में परोपकार के अर्थ में इस शब्द को लिया गया है जो दूसरों की भलाई करे। इसकी उत्पति का मूल धातु ‘दमस’ है ज़िसका अर्थ भी सकारात्मक ही है – चमकना। यह ऊपर के सूक्तों के संरक्षकों के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है। स्पष्ट तौर पर यह अणुओं (ईरानी) के बीच जनजातीय नामों में ज़्यादा प्रयोग में आता था। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि ईरानियों की खोतानी भाषा में ‘दाह’ शब्द का अर्थ होता है – ‘मनुष्य’। शुरू में तो भरत-पुरुओं ने इस शब्द का प्रयोग केवल अणुओं के लिए किया था, लेकिन बाद के दिनों में सामान्य तौर पर किसी भी अ-पुरु जनजाति या लोगों का यह पर्याय बन गया।
ख – सिम्यु
यह शब्द केवल ऋग्वेद में, और वह भी मात्र दो बार, ही आया है। पहली बार राजा सुदास के शत्रुओं के संबंध में सातवें मंडल के अठारहवें सूक्त के पाँचवे मंत्र (८/१८/५) में आया है और दूसरी बार पहले मंडल के सौवें सूक्त के अठारहवें मंत्र में आया है। इस सूक्त में केंद्रीय अफ़ग़ानिस्तान में सरयू के पार हुए वर्षागिरी के युद्ध का वर्णन आया है। सुदास की संतति के शत्रुओं के संदर्भ की इस सूक्त की चर्चा है।
ग – मद्र
हालाँकि अणु जनजाति और राजा सुदास के युद्ध-वर्णन में ऋग्वेद में मद्र का नाम नहीं आता है, फिर भी इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियों में न केवल उनकी गणना होती है बल्कि ऋग्वेद के परवर्त्ती काल तक भी उनकी यह पहचान बनी रही।
घ – विषाणिन
सुनने में, अणुओं (ईरानी) की पहचान में यह सबसे कमज़ोर कड़ी लग सकती है, लेकिन जब हम उन्हें नूरिस्तानी ‘पिशाचिन’ या ‘पिशाच’ से जोड़ कर देखते हैं तो तस्वीर बहुत हद तक साफ़ हो जाती है। यहाँ हम ‘प’ और ‘व’ के आपस में एक-दूसरे की जगह उच्चरित होने के लक्षण को भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं। जैसे- ‘पानी’ के बदले ‘वाणी’। ‘भलाना’ (बोलान) का ‘बलूच’ में बदल जाना भी ध्यातव्य है।
ऋग्वेद के सातवें मंडल के १८वें और ८३वें सूक्त में मुख्य रूप से इन जनजातीय नामों की चर्चा आती है। इनका संदर्भ ‘अणु’ जनजाति से है जिनकी लड़ाई ‘दसराज्ञ-युद्ध’ या ‘दस राजाओं की लड़ाई’ में राजा सुदास के साथ होती है। अब ज़रा थोड़ी बारीकी से इस बात पर ग़ौर करें कि ७/५/३ और ७/६/३ में वर्णित अपने पश्चिम-प्रयाण के पश्चात इतिहास में बाद के काल-खंडों में ये नाम कहाँ-कहाँ आते हैं। ये बात हमें अचरज में डाल देती है कि दसराज्ञ-समर-भूमि पंजाब से लेकर पश्चिम की तरफ़ दक्षिणी और पूरबी यूरोप तक की पूरी भौगोलिक पट्टी में ये नाम बिखरे पड़े हैं।
अफ़ग़ानिस्तान : (अवेस्ता) आद्य-ईरानी – सैरिमा (सिम्यु), दही (दास)
पूर्वोत्तर अफ़ग़ानिस्तान : आद्य-ईरानी : नूरिस्तानी – पिशाचिन, विषाणिन
पख़्तून (पश्चिमोत्तर पाकिस्तान), दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान : ईरानी : पख़्तून/ पश्तो (पख़्त
बलूचिस्तान (दक्षिणी-पश्चिमी पाकिस्तान), दक्षिणी-पूर्वी ईरान : ईरानी : बोलान/ बलूच (भलान)
पूर्वोत्तर ईरान: ईरानी : पर्थियन/पर्थव (पृथु/पार्थव)
दक्षिणी-पश्चिमी ईरान : ईरानी : पर्सुआ/ पर्सियन(परसु/पर्सव)
पश्चिमोत्तर ईरान :ईरानी : मड़ई/ मेड़े(मद्र)
उज़्बेकिस्तान : ईरानी : खिव/ खवारेज़मियन (शिव)
यूक्रेन, दक्षिण रूस : ईरानी: अलान (अलिना), सरमातियन (सिम्यु)
टर्की : थ्रैको-फाईरिजियन/ अर्मेनियायी : फ़्राइज़/ फ़्राइजियन (भृगु)
रोमानिया, बुल्गारिया : थ्रैको-फ़्राइजियन/ अर्मेनियायी : डेसियन (दास)
यूनान (ग्रीस) : यूनानी या ग्रीक : हेलेना (अलिना)
अल्बानिया : अल्बानी : सिर्मीयो(सिम्यु)
ऊपर दिए गए जो भी नाम हैं वे तक़रीबन इतिहास की सभी प्रमुख जनजातियों के पुरखों से लेकर आधुनिक जनजातीय समुदायों के नामों को अपने में समेटे हुए है। इसमें उदाहरण के तौर पर हम इन्हें देख सकते हैं – सिथियन (शक), औसेटी और कुर्द। यहाँ तक कि पहले ईरानी भाषा किंतु आज के दिन में स्लावी भाषा बोलने वाले सर्ब, क्रोट और अन्य भाषी नाम भी इनमें शामिल हैं।
इतिहास की एक और महत्वपूर्ण बात यहाँ पर दिखायी देती है। वैसी जनजातियाँ जो सुदूर परदेस में बस गयी हैं उन्होंने अपनी भाषायी पहचान को बनाए रखा है। किंतु, जो जनजातियाँ नज़दीक में ही बस गयीं या पीछे रास्ते में ही रह गयी वो अपने चतुर्दिक भाषा-संसार में समाहित हो गयीं।
अ - ‘सिम्यु’ जनजाति में जो लोग सुदूर जाकर बसे उनकी सिर्मीयो भाषा और अल्बानी पहचान बची रही लेकिन जो रास्ते में ही रह गए वे ईरानी भाषा (अवेस्ता की सैरिमा और बाद में सरमाटियन) में घुल गए ।
आ – अलिना जो बहुत दूर जाकर बसे, उन्होंने अपना ग्रीक नाम (एल्लेन/ हेल्लेन) और भाषा बचा कर रख लिया जबकि जो रास्ते में ही रह गए वे ईरानी भाषा (अलन) में समाहित हो गए।
इ – भृगु जनजाति में जो लोग सुदूर जाकर बसे उन्होंने अपने थ्रैको-फाईरिजियन/अर्मेनियायी नाम और भाषा (फ़्राइज़/फ़्राइजियन) को संरक्षित रखा। जो लोग रास्ते में ठहर गए, वे ईरानी भाषा (उनका पुजारी वर्ग ‘अथ्रौन’) में खो गए तथा जो पीछे ही छूट गए और आस-पास ही बस गए वे भारतीय-आर्य भाषा उनका पुजारी वर्ग ‘भृगु’ में घुल गए।(कौकेसस क्षेत्र में अर्मेनियायी लोगों ने अपने नाम का स्वरूप तो त्याग दिया, किंतु ईरानी भाषा से प्रभावित ही सही, अपनी भाषा को बचाये रखा।)
ई – मद्र जनजाति का वह वर्ग जो बहुत दूर जाकर बस गया, उसने ईरानी नामों को और ईरानी बोली (मद, मेदे, मेदीयन) को धारण कर लिया, जबकि जो लोग आस-पास और पीछे ही रह गए वे भारतीय-आर्य भाषा (मद्र) में समा गए और ‘अणु’ के रूप में अपनी जनजातीय पहचान भी बचाकर रख ली।
कुछ और तथ्य
क - दसराज्ञ-युद्ध में सुदास के विरुद्ध दस राजाओं का गठबंधन लड़ रहा था। इस गठबंधन का नेता पार्थव (६/२७/८) नाम से लोकप्रिय राजा अभ्यवर्ती छायामन {७/२७/(५, ८)} का वंशज कवि छायामन (७/१८/८) था। उनके पुराने पुरोहित कवस (७/१८/१२) थे। ये दोनों नाम ईरानी नाम हैं और इनका ज़िक्र अवेस्ता (कौवी, काओस) में भी मिलता है। अवेस्ता में बड़ी प्रमुखता से वर्णित कौवियान वंश के सबसे पहले राजा का नाम कवि छायामन ही था। बाद के काल में पर्थियन राजाओं ने अपने को इसी वंश के होने का दावा किया।
ख – प्रारम्भ में अणुओं ने ‘उसिनर’ के नेतृत्व में दक्षिण की ओर अपने अभियान का रूख किया था। पंजाब के पूर्वी छोर पर उसिनर की नेतृत्व वाली एक शाखा ने कई राज्यों की स्थापना की। बाद में ऋग्वेद के पुराने मंडलों (६, ३ और ७) के रचे जाने के समय तक उसिनर के पुत्र ‘शिवि औसिनर’ ने अणुओं के इस विजय रथ को और आगे तक बढ़ाया तथा पश्चिमोत्तर कोने को छोड़कर करीब-क़रीब समूचे पंजाब को उसने हथिया लिया था (पार्जिटर १९६२: २६४)। ‘औसिनर’ भी एक ईरानी नाम है जो अवेस्ता में पाया जाता है।
ग - एकदम पीछे की ओर यदि हम चलें तो उत्तर में कश्मीर और इसके पश्चिमी क्षेत्रों में हम अणुओं के मूल निवास को पाते हैं जहाँ से इनकी ‘वहीं शाखा’ निकलकर दक्षिण में पंजाब को जीत लेती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर का यह इलाक़ा आज भी नूरिस्तानी भाषा का मूल स्थान बना हुआ है और इनमें प्राक-ईरानी भाषा के लक्षण (दंतव्य और तालव्य उच्चारण ष, श, ज, ज़ आदि) द्रष्टव्य हैं।
बहुत बाद के काल तक ईरानियों की ‘अणु’ जनजातीय पहचान बनी रही। इतिहास के परवर्ती कालों में ईरान के उत्तरी और दक्षिणी, दोनों छोरों पर अणुओं के बने रहने की चर्चा अवेस्ता में मिलती है :
क – ग्रीक ग्रंथ (उदाहरण के तौर पर इन्सिडोर औफ चरक्स का स्थलमोई पार्थिकोई, १६) दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान के हामुन-इ-हिलमैंड के उत्तरी भाग से सटे क्षेत्रों का उल्लेख ‘अनुओन’ या ‘अनुओइ’ के रूप में करते हैं और
ख – मध्य एशिया ( तुर्कमेनिस्तान) में प्रमुख आद्य-ईरानी या ईरानी पुरातात्विक स्थलों के नाम ‘अनऊ’ हैं।
यह बात साफ़ है कि दसराज्ञ-युद्ध या दस राजाओं की लड़ाई के समय में अंतिम शाखाओं (अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी) की भाषाओं के आद्य प्रारूप को बोलने वाले लोग पंजाब में रहते थे। यहीं वह काल है जब ऋग्वेद के पुराने मंडल (६, ३ और ७) रचे जा रहे थे। जैसा कि हमने देखा है कि यह काल ईसा से क़रीब ३००० साल पहले का है और ठीक इसी समय अंतिम शाखा बोलने वालों का अप्रवासन पश्चिम की ओर होना शुरू हुआ था।
२ – अल्बानी और अर्मेनियायी लोगों के अपनी ऐतिहासिक भूमि में बसने से पहले का कोई ठोस इतिहास उपलब्ध तो नहीं है, किंतु अधिकांश भाषाविद अल्बानी, ग्रीक और अर्मेनियायी के बीच बहुत प्रगाढ़ संबंध का होना मानते हैं। ग्रीक भाषा के पश्चिम एशिया के रास्ते खिसकने के कुछ साक्ष्य ग़मक्रेलिज ने बटोरे हैं जिसकी चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक “The Greek migration to mainland Greece from the east, Greek-Kartvelian lexical ties and the myth of the Argonauts” (GAMKRELIDGE 1995:799-804) में की है। फिर भी, उनके सिद्धांत को एक छोटे अंश के रूप में यह लिया जाता है कि भारोपीय भाषाओं की मूलभूमि अनाटोलिया में थी, “ अ-भारोपीय स्त्रोत वाले आद्य ग्रीक शब्दों के मामले में ग्रीक और कार्टवेलियन भाषाओं में ढेर सारी शाब्दिक समानताएँ पायी जाती हैं। इस बात का यह मतलब निकाला जाता है कि ढेर सारे कार्टवेलियन शब्द ग्रीक भाषा में पूरब में कहीं पर तब लिए गए जब ग्रीक लोग अपने आद्य निवास-स्थान से अप्रवासित होकर पश्चिम की तरफ़ अपनी ऐतिहासिक भूमि (जहाँ वे आज बसे हैं) की ओर जा रहे थे…………कुछ ग्रीक शब्द कार्टवेलियन भाषा में भी ग्रीक से लिए गए ………यह यही दर्शाता है कि शब्दों का यह आदान-प्रदान दोतरफ़ा था, न कि एकपक्षीय (गमक्रेलिज १९९५:८०१-८०२)।
वास्तव में ईरानियों के पूरब से आने के ढेर सारे दस्तावेज़ी सबूत हैं।
ईरानियों के ईरान में होने के सबसे पुराने संदर्भ ईसा से १००० वर्ष पूर्व के प्रारम्भ होने तक नहीं मिलते हैं।
“हमें भावी ईरानियों की उपस्थिति के कोई चिह्न ईसा से नौंवी शताब्दी पूर्व से पहले कहीं नहीं मिलते। सबसे पहला संकेत पर्सुआ या पारसी का हमें ८३७ ईसा पूर्व सिरियायी राजा शलमान शेर के विजय-अभियान के क़िस्सों में मिलता है। तब ये पारसी कुर्दिस्तान की पहाड़ियों में और मदाई या मेदिस के समतल में स्थानीय स्तर पर इकट्ठे रहते थे। तक़रीबन एक सौ साल बाद मेदिस लोगों ने पारस (या ईरान) के पठारी भाग पर हमला बोल दिया और वहाँ के उन स्थानीय निवासियों को या तो भगा दिया या फिर अपने में आत्मसात कर लिया जिनका कोई ऐतिहासिक अभिलेख या लिखित दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है (लरौज १९५९:३२१)।
पारस की स्फ़ान लिपि के स्त्रोतों के अनुसार ९वीं सदी ईसापूर्व के मध्य में दो बड़े ईरानी समुदायों की उपस्थिति के सुराग़ मिलते हैं – मेदिस और पारसी। स्फ़ान लिपि के स्त्रोतों से एक बात तो बड़ी सफ़ाई से उजागर होती है कि मेदिस और पारसी समुदाय ( और निस्संदेह अन्य ईरानी समुदाय भी जिनके नामों की पहचान अबतक नहीं हो पायी है) पूरब से पश्चिम दिशा में ईरान की ओर और ईरान के अंदर बढ़ रहे थे (एंसाइक्लोपीडिया ब्रितानिका १९७४, भाग ९, पृष्ठ ८३२)।
पारसियों का उल्लेख सर्वप्रथम ९वीं शताब्दी ईसापूर्व की सिरियायी गाथाओं और गल्पों में मिलता है। एक विरुदावली में कहा जाता है कि पर्सुआ के २७ राजाओं ने आक्रांता शलमान शेर को ८३५ ईसापूर्व में उपहार और नज़राना भेंट किए। तिगलथ पिलेसर – भाग ३ (७४४-७२७ ईसापूर्व) में मेदिस की चर्चा है।
प्राचीन पारसी शिलालेखों (दरियस के बिजोटन शिलालेख, ५२१-५२९ ईसापूर्व, सं – श्मिट) से पूर्व मध्य एशिया में ऐसे कोई साहित्यिक स्त्रोत नहीं मिलते जो वहाँ ईरानियों की उपस्थिति के प्रमाण दे सकें। ये शिलालेख यहीं दर्शाते हैं कि पहली शताब्दी ईसापूर्व के मध्य तक ग्रीक लोगों द्वारा कहे जाने वाले ‘सिथियन’ और पारसी लोगों द्वारा कहे जाने वाले ‘शक’ जनजाति के लोग पश्चिमी किनारों ( काले सागर के उत्तर और उत्तर-पश्चिम) से इसके पूर्वी सीमा की ओर बढ़ाने के क्रम में कमोबेश पूरे मध्य एशिया में पसर गए थे।(SKERVO १९९५-१५६)
इस आधार पर यह बात क़रीब-क़रीब साफ़ हो जाती है कि भारोपीय भाषाओं की मूल-भूमि के उत्तरी भारत में होने और यहाँ से इनकी भिन्न-भिन्न शाखाओं के बाहर की ओर पसरने के पर्याप्त ऐतिहासिक दस्तावेज़ मौजूद हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (01-11-2020) को "पर्यावरण बचाना चुनौती" (चर्चा अंक- 3872) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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लाजवाब और अद्भुद।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!
Deleteभारतीय भाषाओं का मूल स्थान उतरी भारत सिद्ध होना चकित करता है , वो भी ऐतहासिक तथ्यों के साथ | संभवतः यह भूमि प्रकृति के सबसे सौम्य रूप की साक्षी रही है | वैदिक साहित्य की उद्गम स्थली के साथ साथ संसार की विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं से इसका सम्बन्ध भारतवर्ष के लिए गर्व का विषय है | सादर आभार इस असाधारण जानकारी युक्त अद्भुत लेख श्रृंखला के लिए |
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत ही ज्ञानवर्धक अद्भुत लाजवाब लेख हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। आपको एवं आपकी इस ओजस्वी लेखनी को शत शत नमन🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपके इन सुंदर शब्दों का!!
Delete"इस आधार पर यह बात क़रीब-क़रीब साफ़ हो जाती है कि भारोपीय भाषाओं की मूल-भूमि के उत्तरी भारत में होने और यहाँ से इनकी भिन्न-भिन्न शाखाओं के बाहर की ओर पसरने के पर्याप्त ऐतिहासिक दस्तावेज़ मौजूद हैं।"
ReplyDeleteउत्तर भारत के इस ऐतिहासिक महत्व से अनभिज्ञ थे हम,रोचक होता जा रहा है ये आलेख ,सादर नमन आपको
जी, बहुत आभार आपका इस शोध के मूल बिंदुओं को रेखांकित करने के लिए!
Deleteआभार।
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