जमीन से उठती दीवारों
ने भला आसमान कहीं बांटा है!
या अहंकार के राज मिस्त्रियों ने
कभी हवाओं को काटा है!
भेद की भित्तियों के वास्तुकार!
दम्भ के शोर-गुल में तुम्हारे
सिमटा जा रहा समय का सन्नाटा है।
तू-तू, मैं-मैं की तुम्हारी
तुरही की तान ने
हमेशा जीवन के संगीत
व लय को काटा है।
ज्वार में अहंकार की
धंसती फुफकारती भंवर-सी
तुम्हारी क्षुद्रता की भाटा है।
उठो, झाड़ो धूल अपने अहं की,
गिरा दो दीवार और महसूसो,
अपनी धरती की एकता को।
एक ही आसमान के नीचे।
वाह।👌
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है आपने।
जमीन से उठती दीवारों
ReplyDeleteने भला आसमान कहीं बांटा है!
लाजवाब।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी, बहुत आभार आपका।
Deleteबिलकुल सही। अहंकार की दिवार कभी भी एकता रूपी आसमान को नहीं बाँट सकता। ये कुछ भ्रम ही होते हैं जो इसे सत्य मान लेते हैं।
ReplyDeleteतो आपने इन अंतिम पंक्तियाँ से सटीक मार्गदर्शन किया है-
"...
गिरा दो दीवार और महसूसो,
अपनी धरती की एकता को।
एक ही आसमान के नीचे।..."
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteजी, बहुत आभार। आपकी बहुरंगी रचनाएं प्रेरणा का प्रखर पुंज हैं।
Deleteसद्भावना भरे उच्च विचार को साझा करती रचना । आज के दौर में धरती की एकता के विराट विचार को अपनाने की आवश्यकता है। और कवि का परम कर्तव्य इस दिशा में प्रेरणा जगाना है। सार्थक और चिंतनपरक रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं 🙏🙏
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपके आशीष का।
Deleteउठो, झाड़ो धूल अपने अहं की,
ReplyDeleteगिरा दो दीवार और महसूसो,
अपनी धरती की एकता को।
एक ही आसमान के नीचे।
अहं को त्याग दे तो अपना ही नहीं औरों का जीवन भी सुधर दे,प्रेरणा देती सुंदर रचना,सादर नमन आपको
जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!!!
Deleteतू-तू, मैं-मैं की तुम्हारी
ReplyDeleteतुरही की तान ने
हमेशा जीवन के संगीत
व लय को काटा है।
अहंकार को त्याग, विनम्रता को अपनाकर ही जीवन के संगीत का रस लिया जा सकता है। परंतु भेद की भित्तियों के वास्तुकार तो अहंकार की विषबेल को पोसने का काम करते रहते हैं ताकि उनका काम कभी बंद ना हो। प्रेरक सुंदर रचना। सादर।
जमीन से उठती दीवारों
ReplyDeleteने भला आसमान कहीं बांटा है!
या अहंकार के राज मिस्त्रियों ने
कभी हवाओं को काटा है!
भेद की भित्तियों के वास्तुकार!
दम्भ के शोर-गुल में तुम्हारे
सिमटा जा रहा समय का सन्नाटा है।..जीवन के उच्च मानदंडों को शब्द देती उत्कृष्ट रचना, बहुत बहुत शुभकामनाएं आपको विश्वमोहन जी ।
जी, अत्यंत आभार आपके आशीष का!!!
Deleteअगर यही समझ लें तो फिर लड़ाई ही किस बात की । बाकी कुछ नहीं बंटा सिवाय धरती के , क्यों कि यहाँ आदम जात है ।
ReplyDeleteजी, बिल्कुल सही कहा आपने। अत्यंत आभार!
Deleteकाश सही समय पर इंसान ये समझ जाए ... सह अस्तित्व ही जीवन का सार है ...
ReplyDeleteइंसान से इंसान का अस्तित्व हो सके ...
अच्छे शब्दों में सत्य बाँधने का प्रयास ...
जी,अत्यंत आभार आपकी सारगर्भित टिप्पणी का।
DeleteWell said, Mr Vishwamohan.
ReplyDeleteAm reminded of a few lines from Tagore`s Gitanjali.
"Where the world has not been broken up into fragments,
By narrow domestic walls,
Where the clear stream of reason has not lost his way,
Into the dreary desert sand of dead habit,
....Into that heaven of freedom, let my country awake"
Thanks a lot for your thought provoking observations!
Deleteअहंकार का मिटना यानि तू मैं हो जाना!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteतू-तू, मैं-मैं की तुम्हारी
ReplyDeleteतुरही की तान ने
हमेशा जीवन के संगीत
व लय को काटा है।
धरती की एकता में यही अंहकार ही बाधक है
बहुत ही सुन्दर चिन्तनपरक लाजवाब सृजन।
जी, बहुत आभार आपका!!
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