( विश्व पर्यावरण दिवस पर पुनः प्रस्तुत)
(मैगसेसे पुरस्कार, पद्मश्री और पद्मभुषण अलंकृत, चिपको आंदोलन के प्रणेता, प्रसिद्ध गांधीवादी पर्यावरणविद और अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री चंडी प्रसाद भट्ट को समर्पित उनसे पहली मुलाकात का संस्मरण)
पोथियों में ऋषियों की गाथा पढ़ता आया हूँ। उनके आर्ष अभियानों में आकर्षण का भाव होना स्वाभाविक है। मन करता, किसी ऐसे
पुरोधा से साक्षात्कार हो और यह जन्म कृत्य-कृत्य हो जाय! विगत दिनों एक ऐसे ही मनीषी के दर्शन हुये जिनसे
बातचीत के क्रम में ऐसा आभास हुआ मानों
जेठ की तपती दुपहरी में किसी सघन वृक्ष की छाया में उनकी अमृत वाणी की शीतल बयार का
झोंका मेरे मन प्रांतर को गुदगुदा रहा हो! ये युग पुरुष थे – 'चिपको' आंदोलन के
प्रणेता, श्री चंडी प्रसाद भट्ट जी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद
के पूर्वी क्षेत्र मुख्यालय, पटना केंद्र
के चौदहवें स्थापना दिवस (२२ फरवरी २०१४) पर मेरी मुलाकात रात्री भोज में उनसे हुई। माननीय निदेशक महोदय ने हम दोनों का परिचय करा अपने कक्ष में हमें बड़ी आत्मीयता से
बिठाया।
औपचारिक परिचय के उपरांत थोड़ी ही देर में बातचीत की मिठास में ऐसे घुल गये मानों उनसे हमारा दीर्घ परिचय रहा हो। उत्तराखंड के गोपेश्वर के इस
संत में योगेश्वर की छवि भाषित हो रही थी। पर्यावरण प्रकरण पर उनके प्रकांड
पांडित्य पर मन लट्टु हो रहा था। प्रकृति के प्रत्येक परमाणु मे पल-पल पलनेवाली परिवर्तन की प्रक्रिया, पर्यावास पर उसकी प्रतिक्रिया और इसके प्रतिगामी प्रभाव से उनका संगोपांग परिचय उनके विद्वत-व्यक्तित्व की विराटता बखान रही थी।
बातचीत की शुरुआत ग्लेशियर के उर्ध्व-विस्थापन विषय से
हुई। ग्लेशियर का ऊपर की ओर सिमटना उनसे
निःसृत नदियों के अस्तित्व के विगलन के
खतरे की घंटी है। अगर यह चलन जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी विरासत को ढ़ोने वाली विशालकाय नदियाँ कृशकाय बरसाती
नाले का रुप ग्रहण कर लें। यमुना नदी में होनेवाले ह्रास पर मेरा मन अनायास चला गया
जिसका स्वरूप दिल्ली में कमोवेश नाले की तरह ही है। और तो और, शहर के
गटर के गंदे जल और कारखानों से उत्सर्जित अवशिष्टों को समाहित करने के पश्चात तो
कालिंदी अपने भाई यमराज के साथ ही विचरण
करती प्रतीत होती है।
ग्लेशियर के उपर खिसकने से ऐसे प्रदेश में पनपने और पलने
वाले जंतु भी ऊपर की ओर सिमटते चले जायेंगे। रिक्त स्थान मे वनस्पतियों का उद्भव
होगा जिससे हिमखंडों के उर्ध्व-गमन को और गति मिलेगी और पर्यावासीय पतन को बल मिलेगा। ढ़ेर सारी
प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का संकट गहरा जायेगा। उन्होने उदाहारण के तौर पर
हिम प्रदेश में रहने वाले याक और एक विशेष प्रकार के चूहे का भी उल्लेख किया।
‘ग्लेशियल-शिफ्ट’ तो ऐसे
एक वैश्विक घटना है, किंतु दक्षिण एशिया और मुख्यतः हिंदुस्तान की सभी प्रमुख
नदियों का अस्तित्व अपने उद्गम-स्थल हिमालय की हलचलों से ज्यादा प्रभावित होता है। गंगा और ब्रह्मपुत्र भारत को जलपोषित करने वाली सबसे बड़ी नदियाँ हैं, जिसमें गंगा की भागीदारी २६% और ब्रह्मपुत्र की भागीदारी ३३% है। ग्लेशियर के उपर खिसकने
का प्रभाव साफ-साफ इन नदियो में दिखने लगा है और अब ये बरसाती नदियों की तरह व्यवहार
करने लगी हैं। उत्तराखंड की तुलना में नेपाल
का हिमालय बिहार से नजदीक है जहां से निकलने वाली तमाम नदियाँ बरसात मे बाढ़
का कहर ढा रही हैं। कोशी की प्रलय-लीला इस प्राकृतिक विपर्ययता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। माउंट एवरेस्ट के उत्तर में कोशी की उद्गम-स्थली है। नेपाल मे वनों की कटाई का
दुष्प्रभाव सीधे-सीधे वहाँ के ग्लेशियरों पर पड़ता है। और, सच तो यह है कि प्रकृति
हमारे दंश से ज्यादा अभिशप्त है जिसे समय-समय पर अपने प्रकोपों के रुप में हमें
चुकता कर
रही है। इस बात को भली-भाँति समझने का माकूल मौका आ गया है। क्षेत्रों को
सदाबहार बनाये रखने में ग्लेशियर की अहम भूमिका है। इस हकीकत से अब और मुंह मोड़ना मारक साबित हो
सकता है। इसलिये इस तथ्य पर और अध्ययन एवम संधान की आवश्यकता है। यदि सही
वक्त पर समुचित कदम उठा लिये जायें तो केदारनाथ जैसी घटनाओं को रोक न सही , कम-से-कम उनकी मारक क्षमता पर तो अंकुश लगाया ही
जा सकता है। नदियों के सिकुड़ने का धरती की जल-धारण-क्षमता पर काफी प्रतिकूल प्रभाव
पड़ता है।
बात बढ़ते-बढ़ते नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना
पर आ गयी। इस योजना पर उन्होनें सतर्कता बरतने की सलाह दी। बरसात में तो बात बन
जायेगी, परंतु असली समस्या तो गर्मियों की है जब पीने के पानी के भी लाले पड़ जाते
हैं। उन्होने कर्नाटक और तमिलनाडु के जल विवाद की ओर ध्यान खींचा। मैंने उनका
ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया कि एक ही मौसम में जब बिहार की नदियाँ उफनती
रहती हैं, बिहार के ही कुछ
भाग और झारखंड की धरती सूखे से दरकती रहती है। तो, क्यो नहीं नदियों मे बहने वाली
जलराशि का एक समेकित क्षेत्रीय नक्शा तैयार किया जाय और एक क्षेत्र की अतिरिक्त
जलराशि को जलहीन क्षेत्रों में ले जाया जाय? उनका
मंतव्य था कि जब नदियों को जोड़ने के लिये भूमि के सतह पर या भूमिगत जलमार्ग बनाये
जायेंगे तो उस मार्ग से जल का प्रवाह होगा जो कभी सूखे थे। ऐसी स्थिति में उस
क्षेत्र के पर्यावरण एवम पर्यावास पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखना होगा। साथ ही, विस्थापन की सामाजिक त्रासदी से निपटने की ठोस रुपरेखा तय करनी होगी। फिर, अतिरिक्त जलराशि को परिभाषित करते समय जल बहुल क्षेत्र के पीने के पानी और सिंचाई
की स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखना होगा।
स्थानीय जल प्रबंधन की आवश्यकता के संदर्भ में उन्होनें
बिहार का विशेष उल्लेख करते हुए इसके
कुप्रबंधन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जल के समुचित प्रबंधन के आलोक में समझाया। १८५७ में गंगा नहर के निर्माण के
उपरांत सिंचाई की समुचित व्यवस्था से वहां की भूमि हरी-भरी हो गयी और मेरठ ,
मुज़फ्फरनगर एवम पड़ोसी क्षेत्रों के किसान करोड़पति! ठीक इसके उलट बिहार में प्रचुर
उर्वरा शक्ति की माटी और जल का अकूत भंडार होने के बावजूद यहां के किसानों के पास
सिर्फ बदहाली और गरीब मज़दूरों का पलायन! गंगा नहर में गंगा के पानी को स्थानीय
उपयोग में ले लिये जाने के बाद तो इस नदी की हालत कानपुर से लेकर इलाहाबाद और कमोवेश वाराणसी तक तो पतली ही रहती है। बिहार में आने तक ढेर सारी नदियों का समागम गंगा के हिस्से आ जाता है और वह
गर्भवती ललना के लावण्य से लबरेज़ हो जाती है। यहां आते-आते उसे घाघरा से २०%, यमुना
से १६% और गंडक से ११% की अतिरिक्त जलराशि प्राप्त हो
चुकी रहती है। इसके अलावे पुनपुन, सोन एवम
अन्य जलधाराओं का भी
सान्निध्य इसे प्राप्त होता है। कुल मिलाकर ५०% अतिरिक्त जलराशि का कोष
होता है बिहार में गंगा की गोद में। फिर, देश की समूची बेसीन का कोशी का बेसीन १%
है जबकि कोशी की जलराशि १३%। अब जल के इस अक्षय कोष के बावजूद जल कुप्रबंधन से
शापित इस प्रदेश और इसके कृषकों की कहानी करुणा से सिंचित है। दूसरी तरफ, नहरों का
जाल बिछा जल के समुचित प्रबंधन से पाँच नदियों का प्रदेश, पंजाब, अपनी
कृषि उपलब्धियों के कसीदे काढ़ रहा है। इसलिये इस बात पर बल देने की जरुरत है कि पहले स्थानीय कमी की पुर्ति की जाये फिर
अतिरिक्त जल को परिभाषित कर विस्थापन और वातावरण,
पुनर्वास और पर्यावास इन सभी तथ्यों को ध्यान में
रखकर इस महत्वाकांक्षी योजना पर अमल किया जाय। उन्होने इस संदर्भ में शासन
की लापरवाही पर खेद जताया। कुल १८ नहरों में बिहार के हिस्से मात्र दो या तीन नहरे
हैं। अगर यहाँ नहरों का जाल बिछा रहता तो पंजाब के खेतों में काम करने के
बजाय बिहार के लोग अपने ही खेतों में काम क्यो नहीं करते? हालांकि
इस बात पर उन्होनें गर्व करने से
गुरेज नहीं किया कि लोग बाहर देश-विदेश
जायें और सम्मानजनक पदों पर काम
करें। उत्तराखंड जैसे राज्य में जहां
भागीरथी, गंगा और अलकनंदा जैसी नदियां ३००० मीटर की ऊँचाई पर बहती
हैं जबकि सिंचाई के क्षेत्र ६००० मीटर की ऊँचाई तक अवस्थित हैं, वहां १४% सिंचित
क्षेत्र की बात तो पचाई जा सकती है लेकिन बिहार में तो शत प्रतिशत से नीचे बात नहीं बनती।
बाढ से जुड़े इंजीनियरिंग पक्षों पर उन्होने बडे
मनोयोगपुर्वक मेरी राय जानी। नदियों की
तलहटी मे गाद के निरंतर जमाव से होने वाले
दुष्प्रभाव को मैंने उनके समक्ष रखा. गाद
के जमा होने से नदियों की गहराई
घटती है और त्रिज्या के बढ़ने से जलधारा घटे हुए
यानि कम क्रांतिक वेग पर ही अपने
समरेखीय प्रवाह को छोड़कर आराजक (टर्बुलेंट) हो जाती है और तटीय मर्यादाओं का
अतिक्रमण करती बाढ के रुप में अपनी वीभत्सता परोसने लगती है। कभी-कभी अपनी
अनुशासनहीन अल्हड़ता में आकुल जल-संकुल भुगोल भी बदल देता है। बाढ़ में इस गाद का परिमाण और बढ़ जाता है। इस तरह बाढ़ एक ऐसा प्राकृतिक कैंसर है जो अपने साथ अपने
भविष्य को भी लेकर आती है। जरुरत इस बात
की है कि गाद को काछा जाय और नदियों को गहरा बनाया जाय। पनामा और स्वेज नहरों
में ऐसी व्यवस्था है। काछे गये गाद को किनारों पर पसारा जाय। इस उर्वर
गाद में सघन वन लगाये जायें।
उन्होनें उत्साहित
स्वर में गहरी बना दिये जाने के उपरांत नदियों को जल परिवहनके माध्यम के
रुप मे विकसीत किये जाने पर भी जोर दिया। किंतु साथ ही मनीषी के आर्ष वचन में
नैराश्य भाव गुंजित हुए – “ इसके लिये प्रबल राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है
जो यहां दिखता नहीं है।” स्थानीय स्तर
पर छोटी बड़ी ऐसी नहरें जिनके तल एवम सतह पक्के नहीं हैं ( अनलाइंड कैनल), उनसे भी गाद निकालने के काम को प्राथमिकता
दी जानी चाहिये। मनरेगा जैसे कार्यक्रमों
में समुचित नियोजन ऐसे ही उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु होने चाहिये। उन्होनें
लोगों में जल संचयन, जल के सदुपयोग एवम जल को संसाधन के रुप मे विकसित करने
के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता को प्राथमिकता देने पर बल दिया। दिन-ब-दिन इस
क्षेत्र में आम जनों की बढ़ती रुचि और जागरुकता पर उन्होनें संतोष तो व्यक्त किया, किंतु
शासन के स्तर पर दृष्टिगोचर उदासीनता पर अवसाद प्रकट किया।
प्राकृतिक त्रासदियों की ये विडम्बना है कि वो मानव शरीर
और उसके अवयवों की तरह समग्रता में
आचरण करती हैं। जैसे पेट के गैस से सिर में दर्द हो सकता है , वैसे ही
एक क्षेत्र के लोगों की गलती का खामियाजा दूसरे क्षेत्र में घटित प्राकृतिक
त्रासदी के रुप में भुगतना पड़ सकता है। इसलिये पर्यावरणीय असंतुलन की उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख
अवस्था को समेकित रुप में समझने और हल
करने की आवश्यकता है।
हम दोनों बातचीत में तल्लीन थे। इसी बीच खाने की बुलाहट
आ गयी और हमने अपनी बात को विराम दिया। इस
महान तपस्वी के सान्निध्य में ऐसा
प्रतीत हो रहा
था मानों उनके विचार-प्रसूत ऋचाओं
की चिन्मय ज्योति में मन चैतन्य हो उठा हो और उनकी मृदुल वाणी के प्रांजल प्रवाह
से अंतस सिक्त हो गया हो। भोजन की मेज पर हमने बिहार की मिथिला संस्कृति की मिठास
की चर्चा की। विदा लेने का वक्त आ गया था। बड़े अपनेपन से हमने अपने चलभाष क्रमांक
की अदला-बदली की और फिर मिलने की आशा जगाकर प्रणाम निवेदित किये।
------------------------------ विश्वमोहन
Kusum Kothari's profile photo
ReplyDeleteKusum Kothari
+1
आप समाचार पत्रों मे लिखते हैं क्या
पूर्ण शुद्धि करण के साथ आपका लेखन है
रिपोर्ताज बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक रहा।
बधाई।
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Jul 13, 2017
Vishwa Mohan's profile photo
Vishwa Mohan
+Kusum Kothari बड़ाई करने का आपका ये ख़ास अंदाज़ पसंद आया. आभार एवं शुक्रिया !
Jul 13, 2017
अमित जैन 'मौलिक''s profile photo
अमित जैन 'मौलिक'
Owner
नदियों की अकूत जलराशि का समुचित प्रबंधन देश की प्रगति के लिये बड़ा ही अहम मसला है। जलप्लावन और सूखे की भयावहता इन जल संसाधनों के कुप्रबंधन का ही नतीज़ा है। पौराणिक काल में नदियाँ ही परिवहन का मुख्य साधन थीं।
प्रकृति के घटकों का देशहित में सदुपयोग करने की अलख जगाता आपका यह अनूठा लेख प्रभावित कर गया। अप्रतिम मोहन जी।
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Jul 14, 2017
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जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ जून २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार।
Deleteबहुत सुन्दर लेखन।
ReplyDeleteपर्यावरणीय असंतुलन का नतीज़ा ही है कि हम आज घरों में कैद होकर रह गए. न जाने मानव के कुकृत्य हमें और क्या क्या दिन दिखाएंगे..
ReplyDeleteसर्वथा सार्थक.... विचारणीय.. 👌 👌 👌
पर्यावरण के विषय में आप विद्वजनों का साक्षात्कार बहुत महत्वपूर्ण एवं विचारणीय रहा ...।लेख के माध्यम से उसे सर्वसामान्य से साझा कर सभी का पर्यावरण की ओर ध्यानाकर्षित करना सराहनीय कदम है। 🙏🙏🙏
ReplyDeleteएक बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख ,आपकी जानकारी और लेखन कला को नमन।
ReplyDeleteरोचक उपयोगी शोधपरक लेख।
अनुपम।
आभार!
Deleteविश्वमोहन जी आप अपने जीवन काल में निरंतर संस्कृति तथा सभ्यता का संरक्षण अपनी खोज,अपने लेखन के माध्यम से कर रहे हैं,उसी क्रम में आप ऐसे मनीषियों से मिल भी रहे हैं,जो निरंतर देश की उन्नति के लिए प्रयासरत हैं चाहे वो पर्यावरण हो, हमारा वैदिक साहित्य हो या संस्कृति हो,सोचकर ही आनंद की अनुभूति होती है,आपका ये श्रेष्ठ कार्य सदैव हमारे लिए प्रेरणास्रोतहै,आप सभी को मेरा सादर नमन एवम पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.. जिज्ञासा सिंह ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपके सुंदर शब्दों का।
Deleteबहुत सुन्दर सराहनीय लेख । वैसे सच कहूं आपका लेखन बहुत ही सशक्त है । आप हर बात को ऐसे प्रस्तुत करते ही कि उसकी हर पर्त सहज रूप में खुलती चली जाती है ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपके सुंदर शब्दों का।
Deleteपर्यावरण-संरक्षण हेतु अपना जीवन अर्पित करने वाली विभूति से बहुत सुन्दर, रोचक और बहुत ज्ञानवर्धक मुलाक़ात.
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteएक चितक और एक जिज्ञासु का सार्थक संवाद बहुत लाभाकारी होता है।पर्यावरण के अनन्य प्रेमी आदरणीय भट्ट जी से साक्षात्कार बहुत रोचक है। पता चलता है जब दो प्रबुद्धजन वार्तालाप करते हैं तो उसका स्तर कितना ऊंचा होता है। शब्दनगरी की याद आ गई, वहींं पढ़ा था कभी ये संवाद। सादर आभार पुनः साझा करने के लिए 🙏🙏
ReplyDeleteजी, आपकी प्रतिक्रियाएं हमेशा उत्साहवर्द्धक होती हैं। अत्यंत आभार।
Deleteरोचक और ज्ञानवर्धक संवाद
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteहर वर्ष बाढ़ के कारण बिहार में जान माल का कितना नुकसान होता है, यह कल्पना से परे है। जिस राज्य को जितने अधिक जल संसाधन प्रकृति ने दिए हैं, मानव को उन जल संसाधनों के समुचित और सही प्रबंधन की चुनौतियाँ भी दी हैं। आदरणीय भट्ट जी के साथ हुए पर्यावरण और जल प्रबंधन के विषय पर हुए संवाद और विचार विनिमय को सभी से साझा करने हेतु अत्यंत आभार। लेखन की आपकी विशेष शैली मंत्रमुग्ध कर लेती है।
ReplyDeleteआदरणीय भट्ट जी का यह कथन – “ इसके लिये प्रबल राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है जो यहां दिखता नहीं है।”
मन में स्क टीस पैदा करता है। धन्य हैं ऐसे निस्वार्थ प्रकृति प्रेमी जो इस सच्चाई को जानकर भी पर्यावरण को बचाने के अपने कार्यों में निस्वार्थ भाव से जुटे रहते हैं, अपना सारा जीवन झोंक देते हैं।
जी, अत्यंत आभार आपकी विस्तृत, सार्थक और आशीषपूर्ण टिप्पणी का!
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