पुस्तक का नाम – देहरी से द्वार तक
बिहार की महिला विभूतियाँ
(रेडियो रूपक एवं डॉक्यु-ड्रामा)
लेखक – डॉक्टर नरेंद्र नाथ पांडेय
प्रकाशक – कौटिल्य बुक्स, ३०९, हरि सदन, २०, अंसारी रोड , दरियागंज, नयी दिल्ली – ११०००२
पुस्तक का अमेजन लिंक :
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प्रोफ़ेसर पांडेय की यह कृति ‘देहरी से द्वार तक’ कई मामलों में एक विलक्षण कृति है। पहली बात तो यह कि यह पुस्तक हमारी नयी पीढ़ी को उनकी उस महान विरासत से परिचित कराती है जो इस पुस्तक के मुख्य किरदार के रूप में उनके सामने उपस्थित हुई है। और, दूसरी एक और महत्वपूर्ण बात यह कि पुस्तक का कथ्य रेडियो रूपक की रोचक शैली में है जो पाठकों का परिचय एक नयी विधा से भी कराती है। पुस्तक के वर्ण्य-विषय के रूप में लेखक ने परतंत्र भारत में जन्मी उन नारी चरित्रों को चुना है जिन्होंने समकालीन पुरुष-प्रधान समाज के रूढ़ आडंबरो, मिथ्या दंभ, प्रतिगामी परम्पराएँ और जड़तापूर्ण मिथकों को मुँह चिढ़ाते हुए सार्वजनिक जीवन में अपनी मेहनत, लगन, निष्ठा, अदम्य साहस और दृढ इच्छा-शक्ति के दम पर न केवल अपनी उपस्थिति का दमदार अहसास दिलाया है बल्कि आनेवाली संततियों के लिए आशा के नए बीज का रोपण कर उसे प्रेरणा की भागीरथी से सिंचित भी किया है। इन नारियों का जन्म-क्षेत्र या कर्म-क्षेत्र बिहार रहा है।
आर्यावर्त की सनातन परम्परा नारियों की गरिमामयी उपस्थिति से सदा सिंचित रही है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तंत्र रमंते देवा:’ इस भूमि की संस्कृति का सूत्र वाक्य रहा है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में विवाह सूक्त की रचना अपने ही परिणय संस्कार में पढ़े जाने के लिए सावित्री के द्वारा की गयी थी जो अद्यतन विवाह संस्कार में मंत्र के रूप में उच्चरित होते चले आ रहे हैं। गार्गी, मैत्रेयी, लोपमुद्रा, अपला, अहल्या, आम्रपाली, भारती, विद्योतमा, संघमित्रा आदि ऋषिकाओं एवं विदुषियों ने अपनी अद्भुत विद्वता एवं कृतित्व से इस भारत भूमि को चमत्कृत किया है। आदि काल में समाज के ताने-बाने में शीर्ष स्थान पर आसीन सबला नारियों की स्थिति तदंतर काल के प्रवाह में धूमिल होती चली गयी और मध्य काल के आते-आते उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। सामाजिक कुरीतियों और छद्म पौरुष के दम्भी आचरण में जकड़ी नारी ‘असूर्यपश्या’ और ‘अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी’ की स्थिति में पहुँच गयी। विद्वत सभा में याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने वाली गार्गी की संततियाँ अब देहरी के भीतर सिमट कर रह गयीं। वेद की ऋचाओं को रचने वाली सृजन की देवियाँ अब अज्ञानता और अशिक्षा के तिमिर गह्वर में सिसकने लगी। पर्दा, सती और बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं के छल-जाल में समष्टि-रथ का यह पहिया उलझ गया।
किंतु काल के प्रतिकूल थपेड़ों में भी नारी चेतना सुप्त नहीं हुई और झंझा को चुनौती देती दीपशिखा की तरह उन्होंने अपनी लौ की तेजस्विता को जीवित बनाए रखा। इस उद्योग में नारियों को संघर्ष की किन-किन दुर्गम उपत्यकाओं से गुज़रना पड़ा और इस पुरुष प्रधान दंभी समाज से कैसे लोहा लेना पड़ा, आज की सूचना क्रांति और अन्तर्जाल में पली-बढ़ी पीढ़ी के लिए यह तथ्य कल्पना के बाहर की ही वस्तु है। सोचिए उस कोमल अबला ‘कमल कामिनी’ के सबल साहस को जो पहली बार दक़ियानूसी समाज के ज़ंजीरों को काट कर परदे से बाहर निकली होगी और पहुँच गयी होगी परीक्षा केंद्र पर मैट्रिक की परीक्षा देने! उसे देखने के लिए लोगों का मजमा उमड़ पड़ा था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से आई ए की परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद वह ‘फ़र्स्ट फ़ीमेल ग्रैजूएट ऑफ बिहार’ बनी। उस कमसीन ‘कमरुन्निसा’ की कल्पना कीजिए जिसने अत्यंत कम उम्र में ही बेवा होने के बावजूद रूढ़ियों के बंधन काट और परदे की सीमा को पार कर बिहार, बंगाल और उड़ीसा मिलाकर बी ए की परीक्षा में टॉप किया। ‘प्रभावती’ की उस दिव्य प्रभा का आभास कीजिए जिसने अपने पूरे जीवन को ही विवाह के तुरंत बाद ब्रह्मचर्य की अग्नि में तपाकर राष्ट्र की बलिवेदी पर आहूत कर दिया। न्याय तंत्र को धर्म की शिला पर परखने वाली उस पहली लेडी बैरिस्टर ‘धर्मशिला’ की कल्पना कीजिए जिसके लिए ‘द सर्चलाइट’ अख़बार ने लिखा, ‘इंडीयन पोर्शिया एंटर्स कोर्ट-रूम’। जितवारपुर गाँव की मिट्टी की दीवारों को ‘वेजिटेबल-कलर्स’ में रंगी अपनी कूची से खचित सांस्कारिक बिंबों की अपनी अद्भुत मधुबनी चित्रकला में सजीव करने वाली ‘सीता देवी’ का समर्पण और त्याग आधुनिक पीढ़ी के लिए एक किंवदंती के समान ही है। कल्पना कीजिए क्रांति का सुर बिखेरने वाली उस वीरांगना ‘वीणापाणि’ का जो १९४२ में पटना जंक्शन पर रेल की पटरियों को उड़ाने के लिए अपनी जान हथेली पर रखकर बम फेंक आयी थीं। बिना किसी बाहरी सहायता के नारियों को संगठित कर नारी शक्ति के बल बूते उस ज़माने में पटना शहर में ‘वर्किंग वीमेंस हॉस्टल’ खोलना कामकाजी नारियों के लिए रिहायश का इंतज़ाम मात्र नहीं था बल्कि यह ‘शेफालिका’ के द्वारा नारी स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता की विजय यात्रा का पांचजन्य-नाद था। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही बिहार की दूसरी मेडिकल ग्रेजुएट और स्वर्ण पदक प्राप्त ‘डॉक्टर मारी क्वाड्रस’ का मानव सेवा को समर्पित सादगी और त्याग से परिपूर्ण जीवन एक ऐसा दिव्य प्रकाश-स्तम्भ है जो भविष्य की पीढ़ियों का पथ अनंत काल तक आलोकित करता रहेगा। घोर अशिक्षा और पर्दानशीन समाज की प्रपंची परम्पराओं से तपते उपवन को अपने कोकिल-स्वर से हरित करने वाली ‘विंध्यवासिनी’ को लोकगायन और संगीत की कला में शिक्षित होने के लिए किन-किन पापड़ों को बेलना पड़ा होगा – यह तत्कालीन समाज के परिवेश के परिप्रेक्ष्य में कल्पना की ही बात हो सकती है! नर्सिंग को अपना करियर बनाकर ‘मूक-बघिर-संस्था’, ‘रेड-क्रौस-सोसायटी’ और ‘अखिल भारतीय महिला परिषद’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से ‘ऐनी मुखोपाध्याय’ ने न केवल मानव सेवा का अलख जगाया बल्कि ‘ऑल पटना वन ऐक्ट प्ले फ़ेस्टिवल सॉसायटी’ के पटल पर महिलाओं को रंगमच की दुनिया में प्रवेश भी दिलाया। चालीस के दशक से शुरू होकर अस्सी के दशक तक अपनी विशिष्ट मनोरंजक शैली में सामाजिक कुरीतियों और अंध परम्पराओं पर चोट करते प्रसिद्ध रेडियो धारावाहिक नाटक ‘लोहा सिंह’ में ‘खदेरन को मदर’ के नाम से प्रसिद्ध प्रमुख नेत्री ‘शांति देवी’ आज एक किंवदंती बन चुकी हैं। यह भी एक संयोग ही है कि इस पुस्तक के लेखक इसी नाटक में एक प्रमुख किरदार ‘फाटक बाबा’ की भूमिका भी निभा चुके हैं। आकाशवाणी पटना से प्रसारित ‘नारी जगत’ और ‘बाल मंडली’ की प्रोड्यूसर, ‘निवेदन है’ की पत्र वाचिका’, कई रेडियो नाटकों की प्रमुख किरदार और प्रसिद्ध कार्यक्रम ‘चौपाल’ की ‘गौरी बहन’ के रूप में ख्यात ‘पुष्पा अर्याणी’ की लगन, निष्ठा, मानवीय संवेदना और संघर्षशीलता एक अद्भुत मिसाल के रूप में चिर काल तक अविस्मरणीय रहेंगी। अपने जीवन की अंतर्व्यथा से तन्तुओं को समेटकर समकालीन समाज की रूढ़ियों के मौन का उच्छेदन करती पाँच सौ से अधिक कहानियों, पाँच उपन्यास और अनेक नाटकों एवं लघुकथाओं को रचने वाली महिला कथाकार ‘बिंदु सिन्हा’ ने इस पारम्परिक मान्यता को चुनौती दी कि बेटियाँ दान की वस्तु होती हैं और अपनी तीन पुत्रियों के विवाह में उन्होंने ‘कन्यादान’ के रिवाज का निषेध किया। उपरोक्त तेरह मनीषियों के रेडियो रूपक को तैयार करने हेतु सामग्रियों को जुटाने में लेखक ने जो अथक प्रयास किए वह किसी भागीरथ की गाथा से कम रोचक नहीं है। प्रामाणिक तथ्यों के संकलन के साथ-साथ लेखक ने वाचक और उद्घोषक के रूप में उन हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया है जिनका सीधा संबंध इन किरदारों से रहा है और उनके संस्मरणों ने किताब के कथ्य में जान डाल दिया है।
पुस्तक की चौदहवीं नायिका के रूप में ‘कैप्टन मिस दूर्वा बनर्जी’ के जीवन-वृत्त को एक आलेख के रूप में इस पुस्तक में शामिल किया गया है। बिहार की बेटी ‘दूर्वा बनर्जी’ भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की पहली महिला पायलट थी, जिसने वर्ष १९५८ से वर्ष १९८८ तक, बिना किसी रुकावट के हवाई जहाज़ उड़ाकर १८५०० ‘फ़्लाइंग आवर्स’ पूरे किए और विश्व कीर्तिमान स्थापित किया।
रेडियो रूपक या डॉक्यु-ड्रामा एक ऐसी विधा है जिसमें ध्वनि और संगीत के समन्वित प्रभाव में सजे कथ्य के केंद्र में व्यक्ति विशेष, स्थान या घटना होते हैं। लेखक ने बड़े ही विलक्षण शिल्प में अपने रूपक के ताने-बाने को बुना है। लेखक का नैतिक उद्देश्य साफ़ है – इन मनीषियों के कृतित्व को आज की पीढ़ी के सामने रखना ताकि वह प्रेरणा के तन्तुओं को बटोर सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु लेखक ने रेडियो की इस रचनात्मक रूपक शैली को गीत, संगीत ध्वनि-प्रभाव और अत्यंत आकर्षक तरीक़े से इसमें कतिपय अभिराम नाटकीय तत्वों का समावेश कर अत्यंत जीवंत बना दिया है। इस तरह ‘एक पंथ दो काज’ के मुहावरे को चरितार्थ करती हुए यह पुस्तक एक ओर जहाँ नारी विभूति की हमारी महान विरासत से हमारा परिचय कराती है, वहीं दूसरी ओर लुप्तप्राय होने की कगार पर खड़ी रेडियो रूपक की रचनात्मक विधा को संजीवनी प्रदान की है।
लेखक के इस संजीवन यज्ञ में आकाशवाणी पटना के कार्यक्रम अधिशासी श्री किशोर सिन्हा जैसे कुशल प्रोड्यूसर ने अपनी कुशल रेडियो प्रस्तुति से सोने में सुहागा लगा दिया है। महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों के साक्षात्कार के संकलन से लेकर इस रूपक-सह-डॉक्यु ड्रामा की प्रस्तुति तक दोनों के मणि-कांचन संयोग ने इस यज्ञ को अपने सम्पूर्ण लक्ष्य तक पहुँचा दिया है। 'हमीं सो गए दास्ताँ कहते.....कहते ...!' शीर्षक से इस पुस्तक की भूमिका में श्री किशोर सिन्हा जी ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि "सोलह दिनों के रिकार्ड-समय (११ मार्च २००८ से २७ मार्च २००८) में यह धारावाहिक रिकार्ड हुआ और ४ अप्रैल २००८ से २७ जून २००८ के बीच प्रसारित हुआ।
अपने अद्भुत कथ्य, विषयवस्तु, शिल्प और शैली के आलोक में यह पुस्तक पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की कसौटी पर पूरी तरह से खरी उतरती है। ‘सोद्देश्यता कला की आत्मा होती है’ इस कथन के मर्म की अनुगूँज पुस्तक को आद्योपांत पढ़ने के पश्चात हमें विशुद्धानंद जी द्वारा लिखे गए इसके शीर्षक गीत में सुनायी देती है जिससे हरेक रूपक का श्री गणेश होता है :
‘रोशनी फैलाएगी जो दीपिका संसार तक,
क्यों समेटे हम उसे इस देहरी के द्वार तक!
रोज़ की ताज़ा हवा परदे से टकराकर फिरे क्यों?
वर्जनाएँ, बंदिशें कुहरा घना बनकर घिरे क्यों?
जो सहज ही दूर कर सकती अँधेरा ज़िंदगी का,
वही क्यों है आज चौखट में फँसी घर-बार तक!
क्यों समेटे हम उसे इस देहरी से द्वार तक!’
और अब लेखक परिचय