Wednesday, 1 September 2021

बादल बरसे

लहर की प्यास बढ़ी,
वह रेत को पी गयी।
 
देह की ऊष्मा बढ़ी,
सूरज को तपा दिया।
 
मन शीतल हुआ,
बरफ जम गयी।
 
कामनाएं दहकी,
रात पिघलने लगी।
 
साँसे टकराई,
आँधी आ गयी।
 
नशा छाया,
कस्तूरी-सी काया।
 
अंगालिंगन तरसे,
बादल बरसे।

34 comments:

  1. एक दूसरे में समाने के जद्दोजहद में कितना कुछ बदल जाता है

    बहुत सुन्दर

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  2. अत्यंत गहन भाव लिए सुंदर भावाव्यक्ति।
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    आकांक्षाओं का नभ विशाल
    तृप्ति-अतृप्ति मरीचिका जाल
    रे मनुज! रक्तबीज कामनाएँ
    समझ सृष्टि का सृजन काल।
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    अति सारयुक्त सृजन आदरणीय विश्वमोहन जी।

    प्रणाम
    सादर।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 02-02-2021 को चर्चा – 4175 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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  4. अत्यंत सुन्दर सृजन ।

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  5. हर पंक्ति में सुंदर भाव । मानव मन के एहसासों की बहुत खूबसूरत
    अभिव्यक्ति ।

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  6. प्रेम और प्रकृति के प्रभाव का सुन्दर सामंजस्य । चिर उत्तप्त विकलता.....

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  7. सच है भाव बढ़े तो इतने ही बढ़ें...
    सुन्दर सृजन।

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  8. बहुत सुन्दर सराहनीय। शब्द शब्द में एक पूर्ण भाव एक छिपी कविता । बहुत सुन्दर ।

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  9. गहरे भाव समेटे अद्भुत सृजन,सादर नमन आपको

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  10. अभिनव, अभिराम, अद्भुत!
    बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति।

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  11. भावपूर्ण लेखन

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  12. सारगर्भित सुंदर सृजन।
    शुभकामनाएँ।

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  13. विरोधाभास भाव लिए
    अत्यंत गहन रचना ।

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  14. बहुत ही सारगर्भित विरोधाभास लिए गहन चिन्तनपरक सृजन
    वाह!!!

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  15. वाह!बहुत ही सुन्दर सृजन सर।
    सादर

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  16. लहर की प्यास बढ़ी,
    वह रेत को पी गयी।
    देह की ऊष्मा बढ़ी,
    सूरज को तपा दिया।
    रोचक भावाभिव्यक्ति 👌👌
    सादर🙏🙏

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