(मित्र विजय ने अंडमान निकोबार से प्रकृति से अपने सीधे संपर्क की यह तस्वीर भेजी। उसी पर आधारित कविता।)
ऊपर वायु नीचे जल था,
मध्य स्वर्ण-सा विरल तरल था।
सागर स्थिर पारद-तल-सा,
प्रांतर में प्रातः का पल था।
पीत दुकूल बादल का ओढ़े
रवि का थाल चमकता था।
रजत वक्ष पर रश्मिरथी के
पहिये का पथ झलकता था।
द्यौ में दुबका सूरज ढुलका
अंतरिक्ष में अटका था।
वारिद के रग-रग में रक्त-सा
लाल रंग भी टटका था।
बाट जोहती सागर तीर पर,
सद्य:स्नात थी उषा भी।
विस्फारित अलकों में वनिता
प्रणय-पाग पी पूषा की।
प्रतिभास से पूर्ण पुरुष का,
चेतन धरती का अंचल था।
चित्रकला सी सजी प्रकृति,
प्रांतर में प्रातः का पल था।
The flourish of your pen has matched God`s paintbrush !!Beautiful!!
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!
Deleteवाह
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ अक्टूबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी, अत्यंत आभार!
Deleteआदरणीय विश्वमोहन जी, जितना सुन्दर चित्र उतनी मनमोहक प्रांतर की
ReplyDeleteमनमोहक प्रभात की झांकी शब्दों के रूप में सजी है। इस सूक्ष्मता से एक सुदक्ष कविदृष्टि ही प्रकृति को यूं शब्दों में संवार सकती है। अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित इस अभिनव शब्दचित्र के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।🙏🙏
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteसुन्दर लेखन
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
Deleteप्रकृति की सुंदर छटा बिखेरती छवि और चित्र को साकार करती अनुपम काव्यकृति । बहुत शुभकामनाएं आदरणीय विश्वमोहन जी
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteप्रातः काल का सुंदर वर्णन। अनुपम सृजन।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!
Deleteद्यौ में दुबका सूरज ढुलका
ReplyDeleteअंतरिक्ष में अटका था।
वारिद के रग-रग में रक्त-सा
लाल रंग भी टटका था।
वाह!!!!
अद्भुत.... प्रांतर में प्रातः के ऐसे मनमोहक पल...शब्द-शब्द ऐसी मनमोहक छवि उकेरता...
बहुत ही लाजवाब सृजन।
जी, अत्यंत आभार!!
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
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