सृष्टि, स्थिति
और प्रलय है।
जय में क्षय है,
क्षय में जय है।
कालरात्रि की
काली कोख है।
सभी मौन, पर
समय शोख है।
क्षितिज से छलका
भौचक्क! भोर है।
मौन को मथता
मचा रोर है।
शोर नहीं,
यह सन्नाटा है।
ज्वार अंदर,
बाहर भाटा है।
कल, आज, कल
यूँ घूमता है।
विरह मिलन के,
संग झूमता है।
शांत शर्वरी,
वाचाल दिवस है।
काल चक्र में,
सभी विवश हैं।
जो आगत है,
वही विगत है।
सृष्टि का बस,
यही एक सत है।
सृष्टि के सत्य को कहती भावपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteसन्नाटे में भी शोर सुनाई देता है ।सुंदर सृजन ।
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteअदभुद
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteजी, अत्यंत आभार!!!
ReplyDeleteकालचक्र में बंधे जीवन की द्विरंगी प्रकृति को उद्घघाटित सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय विश्वमोहन जी। दोनों रंग एक दूसरे में गूंथे और एक दूजे के पूरक है चाहे मिलन -वियोग हों ,धूप-छांव अथवा दिन-रात! सृष्टि अपनी लय में निरंतर गोचर करती है। ये पंक्तियां विशेष लगी ---
ReplyDeleteशांत शर्वरी,
वाचाल दिवस है।
काल चक्र में,
सभी विवश हैं।👌👌
हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 🙏🙏
बहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteश्रृष्टि का गान लिख दिया ...
ReplyDeleteजीवन का सार लिख दिया ...स्पष्ट तार-तार लिख दिया ...
बहुत ही सहजता से गहरी बातों को कहने का प्रयास है विश्वमोहन जी ... नमस्कार ...
जी, अत्यंत आभार!!!
Deleteसृष्टि की सत्यता को परिभाषित करती सुंदर रचना के लिए आपको बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteसत्य ! हर लम्हा कह लों 'समय शोख है।'
ReplyDeleteलाजवाब शब्द संयोजन अर्थ और भावों से छलकती लघु रचनाएं।
अप्रतिम।
जी, अत्यंत आभार!!!
DeleteYou have well elucidated the hollow deafening silence which exists within the din and cacophony surrounding us !
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
DeleteSuperb !! 😊
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपका।😄🙏
Deleteक्यूँ कर उलझते हो तुम
ReplyDeleteइन महीन रेखाओं के मध्यांतर में
तितिक्षा के गाँव में वास करो
अटके रहे कब से,
Deleteतितिक्षा के गाँव में।
गलियारे में ज्ञान की,
बुभक्षा की छाँह में!
भूख ये मिटा जाय,
जोगी कोई राह में।