Sunday, 31 July 2022

धनपत

 (आज प्रेमचंद जयंती पर लेखनी के धनी धनपत राय को याद करते हुए)


ताप उदर का जब लहके,

मन की पीड़ा सह-सह के।

ज्वार विचार का उठता है,

शब्द-शब्द वह गहता है।


शोषण, दमन व अत्याचार के,

दंभ, आडंबर,  कुविचार के।

दुर्ग दलन वह करता है,

धर्म धीर का धरता है।



करुणा का कातर कतरा,

कुछ अनकहा-सा कहता है।

ऊष्मा से आहत अंतस के,

तप्त तरल-सा बहता है।


स्व की कुक्षी से बाहर आ,

अखिल अलख जगाता है।

तब रचना का प्रथम बीज,

मन-मरू में अंकुराता है।


भोग-विलास, धन कांटे जो,

बालुकूट में पलते हैं।

तप्त धरा पड़ते पावों के,

छालों को भी छलते हैं।


तभी वेदना की वीथी से,

जज़्बात का ज़मज़म जगता है।

डरे ईमान न कभी बिगाड़ से,

पंच परमेश्वर पगता है।


पांचजन्य के क्रांति नाद में,

विषमता खो जाती है।

धन्य-धन्य 'धनपत' की लेखनी

लहालोट हो जाती है।

Friday, 8 July 2022

लभ 'मिरेज' (लघुकथा)

 

दोनों के अंदर की कड़वाहट अब उबलकर बाहर आने लगी थी। अब न पत्नी शब्दों को चलनी में चालती, न ही पति उन्हे छनौते में छानता। पत्नी की जुबान पर कैंची और पति के मुख पर आत्मदर्प का तेज कुछ ज्यादा ही था।

आज फिर कैंची चल गई थी। रक्त की ऊष्मा भी आत्मदर्प में दमकने लगी। 'देखो जी, थोड़ी जुबान पर कंट्रोल करो।'

कैंची फिर छिटकी, '' ये तो तब कंट्रोल करना था न, जब तुम्हारा सौदा चार लाख में अरेंज कर दिया था, तुम्हारे बाप ने।''

'फिर तो कैंची वहीं चलाओ जहाँ  भुगतान किया था। मुझे तो तुम्हारे फादर से एक रेजगारी भी नहीं मिली थी।'

कामवाली बाई बड़ी रस लेकर किचेन में यह आँखों  देखा हाल पड़ोसन की उस नई नवेली बहू को सुना रही थी,  जिसे उसका खसम इसी खरमास में भगा के ले आया था।

'सुनो, ये चार लाख वाली बात माँ  जी के सामने मत बकना। मुँह पर ताला लगा लो अब! और, यह भी गठरी बांध लो कि हमारा अरेंज नहीं, लव मैरेज है।'

'भगवान आपका लभ 'मिरेज' बनाए रखे', यह कहते हुए  बाई तेजी से निकल गई।