Sunday, 16 October 2022

दंभ दामिनी

 खुद कपटी थे, क्या समझो तुम!

निश्छलता क्या होती है।

तेरी हर खुदगर्जी पर,

बस टीस-सी दिल में होती है।


मेरी तो हर बात में तुमको,

केवल व्यंग्य झलकता है।

जबकि हर हर्फ वह तेरा,

मुझको पल-पल छलता है।


बात बात तेरी घुड़की कि,

मुझे छोड़ तुम जाओगे।

मेरी यादों की गलियों में,

नहीं कभी तुम आओगे।


तुम भी सुन लो, नहीं मिटेगी,

गलियों की पद जोड़ी रेखा।

मेरा रंग तो सदा एक-सा,

रंगहीन नेह तेरा देखा।


हम कहते, छोड़ो हठात हठ,

और दंभ का दामन अपना!

अहंकार को आहूत कर दो,

हसरतों का बुनों सपना।


हुई दग्ध तुम, दर्प निदाघ में

और न दहको, दंभ दामिनी।

देखो, दूधिया दमके चांदनी

राग यमन में झूमे यामिनी।









Saturday, 8 October 2022

पगले बादल!

हाँ, हाँ, गरजो,

बादल, गरजो!

बरस भी रहे हो,

अब तो! 

मूसलाधार! 

और असमय भी! 

बेमौसम ।

हो गयी है  अब तो,

धरती भी,

शर्म से पानी-पानी।



'गरजना' तुम्हारी भावनाएँ हैं ।

और फ़ितरत है, तुम्हारी।

'बरसना', 

उन भावनाओं में।

कहना क्या  चाह रहे हो? 

कोई अवस्था नहीं होती 

भावोद्वेग की! 

कोई उम्र नहीं होती,

वश में करने और 

बहने बहकने की! 



तो जान लो!

एक भाव होता है,

हर 'अवस्था' का भी।

और एक पड़ाव,

हर 'भाव' का भी!

पहले पैदा करो

मन में अपने,

भावना, नियंत्रण की! 

पाओगे नियंत्रण तब,

अपनी भावनाओं पर!



नहीं बरसोगे, 

फिर  बेमौसम, ग़ैर उम्र।

ना ही तड़पोगे तब,

और ना ही गरजोगे।

पहले बीज तो डालो, 

करने को क़ाबू में,  ख़ुद को।

नहीं होता नाश कभी, 

कर्म के बीज का!

यही तो योग है।

पगले बादल!