Wednesday, 24 May 2023

बड़े घर की बेटी ( लघु कथा )


सरकारी नौकरी लगते ही बड़े-बड़े घरों की बेटियों के रिश्ते आने लगे। और, एक दिन एक बड़े घर की बेटी इस सरकारी बाबू की बहू बनकर आ भी गयी। आते ही बहू ने अपनी सतरंगी आभा का विस्तार किया। नौकर, चाकर, मुवक्किल, मुलाजिम, ठेकेदार, देनदार, अमले, फैले, भूमि, जनसंख्या, सरकार, सब साहब के। लेकिन, संप्रभुता बहू की! और, सबकी आज्ञाकारिता का भाव बहू के प्रति समर्पित। अरमान और फरमान दोनों बहू के। साहब तो इस व्यवस्था के 'श्री कंठ' मात्र थे जिससे मेमसाहब के स्वर निःसृत होते थे।  सारा कंट्रोल बड़े घर की इस बेटी के हाथ में ही था। दिन पर दिन घर की इकॉनमी और मेम साहब का शारीरिक शौष्ठव शेयर मार्किट की तरह उछाल पर आने लगा था।
दुर्भाग्य ने अचानक साहब के शरीर में सेंध लगा दी। उनके किडनी ख़राब हो गए। बदलने की नौबत आ गयी। सत्रह लाख रुपयों  की दरकार थी। साहब ने चारों तरफ नज़रें घुमा ली। एड़ी चोटी एक कर दी। हाथ पाँव मार लिए। सबसे चिरौरी कर ली। कहीं दाल न गली। हाथ पाँव फूलने लगे। कहाँ से जुगाड़े इतनी रकम! सात लाख तक ही जुटा पाए थे। भाई लाल बिहारी ने दिलासा दी। उसने खेत बेचे। मंगेतर के गहने गिरवी रखे और किसी तरह भीड़ा ली जुगत अतिरिक्त दस लाख रुपयों की। ऑपरेशन सफल रहा। साहब की जान बच गयी।
सरकार ने अचानक बिजली गिरा दी। नोटबंदी की घोषणा हो गयी। अफरा-तफरी मच गयी जमाखोरों में। मेमसाहब ने भी सत्रह लाख रुपये मजबूरी में साहब के हाथों में धर दिए। साहब ने पथराई आँखों से कागज़ के उन टुकड़ों को बिखेर दिया।
आज कचहरी की दहलीज़ से हाथों में तलाक़ का अदालती फरमान लिए साहब सामने घंटा घर की बंद घड़ी  की सुइयों को  निहार रहे थे और उन सुइयों पर प्रेमचन्द की 'बड़े घर की बेटी' लटकी हुई थी!  


Monday, 1 May 2023

रेस्जुडिकाटा!

जिंदगी की फटी पोटली से झांकती,
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
.......    ......     .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले  गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और  तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
.....    ......       .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!