Monday, 17 July 2023

भावार्थ

 अबूझ प्यास क्या बुझे,

तू और इसे कुरेदती।

प्रकृति तू! प्रति तत्व को,

पुरुष के उद्भेदती।


डूबकर मैं रूप में,

अरूप को संधानता।

हर शब्द आहत नाद में,

अनाहत ही अनुमानता।


सरस स्पर्श में तेरे,

मैं नीरस, नि: स्पृह-सा।

गंधमादन गेह देह,

मेरे शुष्क गृह -सा।


तर्क तूण तीर तन,

आखेटता मैं भाव को।

भाव भव सागर में,

तलाशता अभाव को।


कणन कंचन कामना तू,

मैं पुलक पुरुषार्थ का।

वासना के पार मैं,

वैराग्य के भावार्थ -सा।


Sunday, 16 July 2023

चंदा मामा के साथ चार दिन




चंदा मामा दूर  के,
बड़ी पकाये  गुड़  के।
अपने  खाये  थाली मे,
मुन्ने  को  दे  प्याली में।
.......... दादी माँ  की लोरिओं में अघाते और ऊँघते चंदा मामा कब मेरी कल्पनाओं के अंतस मे प्रवेश  कर  गये , मुझे पता भी न चला। वह पल-पल मेरी पलकों पर मेरे हसरतों के पालने मे झूलते, मुझे सोते से जगाते, दादी माँ  के कौरों में अपनी चाँदनी  की  मिठास घोलते और मुझे मेरी चिंतन क्षमता की परिपक्वता का आभास दिलाते कि अब तक  मैं  यह समझ चुका था कि वह धरती माता के भाई होने के नाते हम पृथ्वीवासियों के सगे मामा लगते हैं। दादी माँ   ने  यह भी बता दिया था कि सुरज चंद्रमा के अग्रज हैं। अपनी मां को पीड़ा की तपन देने की सजा में सुरज तपते हैं और माँ  को सुख-स्नेह देने के आशीष स्वरुप चंद्रमा शीतलता व सौंदर्य का पीयुष परिधान  धारण करते हैं। बात जो भी हो, अपने सांसारिक मामा में मुझे वो आकर्षण या निमंत्रण-सामर्थ्य कभी बिम्बित  नहीं  हुआ जो नील गगन के प्रशस्त प्रांगण मे निहारिकाओं से रास रचाते चंदा मामा की कमनीय कलाओं के कण-कण में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होता।
बाल सुलभ मन न केवल इस मामा से मिलने को आतुर रहता बल्कि अपने प्रतियोगी संस्कारों के कारण इस मिलन में अपने शेष मित्रों को पीछे छोड़ने का सपना पाले रहता।
ध्यायतो विषयान पुंसः....... गीता की इन पंक्तियों का मर्म मेरा बाल मन समझने लगा था। तथापि, योगस्थ: कुरु कर्माणि की मुद्रा मे मेरी चंद्र-मिलन की कामनाओं ने घुटने नहीं टेके थे।
अब नील आर्मस्ट्रौंग हमारे आराध्य नही, प्रत्युत हमारे प्रतियोगी और ईर्ष्या-इष्ट थे। नाहि सुप्तस्य सिन्हस्य प्रविशंति मुखे मृगा से प्रेरित मैंने इसरो को अपनी इच्छा का सुविचारित पत्र भेजा और मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, जब इसरो  ने अपने चन्द्रयान की  चंद्रयात्रा के अभियान में  मेरा चयन कर तय तिथि को आने की ताकीद कर दी। इस प्रसंग मे मुझे प्रदत्त प्रशिक्षण के वृतांत वर्णन से बचते हुए मैं  सीधे अपनी यात्रा की ओर बढता हूं।
यह अत्यंत सुखद क्षण था जब मेरी कल्पना(चावला) की आत्मा सजीव हो उठी और मैंनें अपने सहयात्री  के  साथ यान मे  प्रवेश  किया पलायन-वेग के साथ यान को वैज्ञानिकों ने श्रीहरिकोटा से उपर फेंका। पृथ्वी के वायुमंडल  और बादलों को चीरते हुए यान अंतरिक्ष मे कुदने को तत्पर हुआ और मैं धरती माता के मोह के गुरुत्व-बंधन से अपने को मुक्त करता हुआ मातुल लोक की ओर लपका। यान का वेग मेरी भावनाओं  के  प्रबल  आवेग  के  साथ  अद्भुत साम बिठाये था और मैं  शनैः शनैः भारहीनता की हालत मे खुशियों  के गोते  लगाने  लगा।
मानों, मेरी उत्कण्ठित भावनाओं  ने मेरे समग्र द्रव्यमान को उत्साह और अधीरता की असीम ऊर्जा मे परिणत कर दिया हो!  आइंसटीन द्वारा प्रतिपादित मात्रा-वेग –ऊर्जा  समीकरण स्वतःसिद्ध साबित होने लगा था।उधर पृथ्वी की प्रयोगशाला मे बैठे मेरे वैज्ञानिक चाचा मेरे यान की प्रत्येक गतिविधि को संचालित कर रहे थे। साथ मे कुछ प्रयोग भी संचालित किये  जा रहे थे। हमारी इस यात्रा में पहले के यानों की तुलना में अधिक समय लगाने वाला था। जहाँ अपोलो और चांग ने यह यात्रा क़रीब चार दिनों में और लुना-१ ने ३६ घंटों में तय की थी, वही अब की बार हमें क़रीब ४० दिन के आसपास लगने जा रहे थे। इसका कारण था, हम अपेक्षाकृत कम क्षमता वाले इंजिन से ही एक लंबे किंतु आसान-से  पथ-रेखा का अनुगमन कर रहे थे। अपने अंड-वृत्ताकार पथ में पृथ्वी से अधिकतम दूरी वाले बिंदु, ऐपजी, पर यान की गति न्यूनतम और निकटतम बिंदु, पेरिजी, पर सबसे  तेज़ हो जाती थी। यह एक अत्यंत रोमांचक अनुभव था। हमें यह भी बताया गया कि  पृथ्वी की कक्षा से हमें चंद्रमा की कक्षा में ठीक उसी वक़्त फेंक दिया जाएगा, जब हम चंद्रमा के सबसे नज़दीक होंगे। हमारे वैज्ञानिक चाचाओं की यह चालाकी न केवल उनके गुरुत्वीय ज्ञान का उद्घोष था, बल्कि इससे इंधन और ऊर्जा की अच्छी-ख़ासी बचत भी हो गयी। यात्रा का आनंद गंतव्य पर पहुँच जाने के आनंद से वाक़ई कई गुना होता है और हम अपनी इस यात्रा की इस लंबाई का पूरा लुत्फ़ ले रहे थे।  धरती धीरे-धीरे गोल गेंद-सी  दिखने लगी  थी, जिसकी आकृति भी छोटी होती जा रही थी। इधर अंतरिक्ष के नीले घट में  तेजी से डूबते मेरे यान ने तकरीबन उनचालीस  दिन तेरह घंटे बाद चंद्रमा के मंडल मे प्रवेश किया, जहां से अपने सहयात्री के संग एक लघु यान के सहारे मैंनें चंद्रमा के सतह का स्पर्श किया। मेरे पैर चाँद  पर थे। विचारो ने विश्राम ले लिया। भावनायें  निःशब्द  हो गयी  और  मै अवाक!
अब मैं अपनी  जन्मभूमि से तीन लाख चौरासी हज़ार चार  सौ  बीस  किलोमीटर की दूरी पर ठीक उसी जगह अपने पदचिन्हो को आरोपित कर रहा था, जहां नील साहब सहित बारह अन्य चन्द्रयात्रियों के पदछाप साफ साफ दीख रहे थे। चंद्रमा पर न कोइ वायुमंडल है, न ही हवाओं का अत्याचार!  इसलिये वहाँ  वायु के द्वारा भूक्षरण की प्रक्रिया का नामो-निशान नहीं  है।  सम्भवतः,  इसी कारण आने वाली सदियों  तक ये सारे चरण चिन्ह ऐसे ही अपने मूल स्वरूप  में  संरक्षित  रहेंगे और यह बात हमारे लिये अद्भुत रोमांच  का विषय  था।
अपने चार दिवसीय चारु चंद्रवास की  अवधि  में  मैने चंद्रमा की  सतहों पर एक विशेष वाहन मे सैर का  भरपुर  लुत्फ  उठाया।  इस दौरान  काफी शोधपरक  तथ्यों  को  भी  एकत्रित  किया। चंद्रमा की उत्पति किसी प्रबल  आवेग वाले  खगोलीय पिंड के पृथ्वी  के सतह से आज से करीब साढ़े चार बिलियन वर्ष पुर्व टकराने के  फलस्वरुप हुई थी। इस कारण पृथ्वी के अंदर के लौह द्रव्यों का अनुपात चंद्रमा के हिस्से कम ही पड़ा। यही कारण है कि चंद्रमा की सतहों  पर  रेतीले चट्टानों की  बहुतायत है।  ऐसा प्रतीत होता है  कि  शुरुआती दिनों  में   ही कोई तीव्र वेग  वाले  पिंड  के चाँद  की सतह से टकराहट हुई होगी और इस संघट्ट से कुछ लावा  छलका होगा जो  कलांतर मे जमने  की प्रक्रिया के  दौरान गढ्ढ़े मे  तबदील हो  गया और  इसकी अभिव्यंजना मुक्तिबोध ने इन शब्दों मे की—‘चाँद  का मुँह  टेढ़ा है’! अब सम्भवतः शीतकरण  की  प्रक्रिया पूर्ण हो  गयी  है और  चाँद  के  मुँह  को और ज्यादा टेढ़े  होने की गुंजाइश शेष  न  रही।
पृथ्वी की उपरी सतह की भाँति  चंद्रमा का बाह्य  कवच  भी  औक्सीजन और सिलिकन की बहुलता  से  परिपूर्ण है। इसके टेढ़े मुँह  का एक और  कारण विदित हुआ कि पृथ्वी की  ओर  वाले  सतह की मुटाई १०० मील और पृथ्वी से दूर वाले सतह  की मुटाई ६० मील है। इसका  कारण पृथ्वी के गुरुत्व के कारण चाँद  की सतह  का पृथ्वी  की  ओर  खिंचाव  है। एक और  रोचक तथ्य प्रकाश मे  आया कि चंदा मामा हमारी धरती से चार सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से दूर होते जा रहे हैं। विलगाव  की ये  प्रक्रिया पचास  बिलियन वर्षों  तक  चलेगी। विरह  की इस व्यथा की वेदना में  हमारी धरती अपनी तय उम्र सीमा पाँच  बिलियन वर्ष मे ही दम  तोड़  देगी। भाई से  अलग होने के दुख में बहन के असमय प्राणांत की इस वैज्ञानिक व्याख्या से मन व्याकुल  हो  उठा।
जब भाई चाँद  अपनी बहन पृथ्वी से निकटतम दूरी पर  होता है, बहन की भावनायें हिलोरें लेती है और उसकी छाती पर समुंदर में  ज्वार  उठने लगते हैं।  भावनाओं  की ज्वार-भाटा की यह वैज्ञानिक मीमांसा भारतीय मान्यताओं को पुष्ट करती हैं।
चंदा मामा सुरज की ज्योति  से  ही  ज्योतित  होते  है।. ये अपनी  धरती बहिन के  नैसर्गिक  प्रेम के  गुरुत्व  बंधन  मे  बंधकर  उसकी परिक्रमा लगभग साढे सत्ताइस दिनों  मे पूरी  करते  है।  इस  अवधि  को  एक  चंद्रमास  कहते  हैं.
इस दौरान एक बार मिलन की प्रसन्नता की आभा से इनका समग्र स्वरुप देदीप्यमान हो  उठता है जिससे वसुंधरा बहन पूनम की रात के  रुप मे सुसज्जित होती है। फिर एक समय  आता है,  जब चंद्रमा प्रकाशहीन होता है और वसुधा पर अमावस की उदासी छा जाती है।
स्वयं अल्प गुरुत्व होने  के  करण वायुमंडल मे तैरते कणों को बांध कर थामे रखने की क्षमता से हीन  है चंद्रमा!  इसलिये  इसका कोइ  वायुमंडल नही। फलस्वरुप प्रकाश  के  परावर्तन,  अपवर्तन, विष्फरण या छिटकने जैसी कोइ क्रिया यहाँ नहीं  होती। यही  कारण है  कि  इसकी  सतहों  पर  घोर  तमस  का साम्राज्य रहता है।
चंद्रमा का गुरुत्व पृथ्वी के  गुरुत्व का मात्र  सत्रह  प्रतिशत  है। पृथ्वी पर बत्तीस किलो का वजन यहां मात्र साढ़े  पांच  किलो  होता है। ये हुई न, बिना व्यायाम के वजन घटने का विलक्षण संजोग!
अंधकार के साये मे लिपटे , अल्प गुरुत्व वाले रेतीले चट्टान पर न हवाओं का शोर, न वनस्पति की झुमर और न प्रवहमान धारा का कलकल छलछल संगीत!  अम्बर के  प्रशस्त  प्रांगण मे अपनी प्रणय रंजित रजत चाँदनी  का चंदोवा  छाकर नीलांक विहार करने वाले चंदा मामा का अंतस कितना शुष्क , नीरस और तमोमय है, इसका भान होते ही आँखें  छलछला गयी। यहीं कारण शायद  रहा हो  कि  हलाहल पान कर विश्व का  कल्याण करनेवाले नीलकण्ठ ने इन्हे शिरोधार्य किया और शशिशेखर कहलाये। भले ही, रजनीश की इस सरलता का उपहास लोककवि  तुलसी ने  यह  कहकर उड़ा दिया कि – यमाश्रितो हि वक्रोअपि चंद्रः सर्वत्र वंद्यते ‘!
समय एक क्षण विश्राम नहीं लेता। हम इसरो  से प्राप्त निर्देशों  के  अनुसार आवश्यक शोधपरक सामग्री और जानकारी एकत्रित किये जा रहे थे। सौर वायु, मृदा-संरचना,  चंद्रमा की सतह की बनावट से जुड़े ढ़ेर सारी प्रयोग-सामग्रियाँ, वहाँ  के चुम्बकीय क्षेत्र से सम्बद्ध प्रायोगिक तथ्य, चंद्रमा एवम सूर्य की भिन्न-भिन्न कलाओं का पृथ्वी पर प्रभाव, पृथ्वी के अक्ष के झुकाव में चंद्रमा का योगदान, चंद्रमा और ऋतु परिवर्तन और ऐसे अनेक महत्वपूर्ण बिंदुओं की जॉच-परख एवं उनके संगोपांग अध्ययन के परितः हमारी गतिविधियां केंद्रित थीं।   

इन चार दिनों के चंद्र प्रवास में मेरे मनोवैज्ञानिक अवयवों को एक त्रासदीपूर्ण संक्रमण का सामना करना पड़ा। जैसे-जैसे तथ्यों की जानकारी होती रही, मेरे हृदय के गह्वर में  संजो कर सजाये गये चंदा मामा शनैः-शनैः इस सौरमंडल के पाँचवे  सबसे बड़े प्राकृतिक उपग्रह में परिवर्तित होते  जा  रहे  थे। इस मानसिक व्याघात ने हृदय में एक अव्यक्त आंदोलन को स्फुरित  कर  दिया था। इस चंद्र-विजय ने मेरी कल्पनाओं की निर्झरिणी को रसहीन कर दिया था। चंदा पर रचे गये वे गल्प, कथा-कहानियां , वे गीत,  कवितायें,  साहित्य सामग्रियां और उनसे निःसृत सुधा रस – इन सबको उस रेतीले चट्टान पर पसरा तमिस्त्र मुँह  चिढ़ा रहा था। चंदा मामा की गोद में ही बौद्धिकता के धरातल  पर मेरे मामा मुझसे विदा ले  रहे  थे और मैं  भी वापस अपने चंद्रयान में बैठकर अश्रूपुरित पलकों  संग पृथ्वी वापस लौट रहा था। अब मै अंतरिक्ष  मे चंदा से काफी दूर आ गया था।  फिर, राकेश अपनी समस्त कलाओं  को  सहेजकर अपने वैभव की पराकाष्ठा पर आसीन हो  चुके  थे। दुधिया चाँदनी की अमृत वर्षा हो  रही थी। तारक दल उधम  मचा रहे  थे। इस नयनाभिराम चंद्र-भंगिमा का अवलोकन कर मेरे मन के चंदा मामा फिर  से जी उठे थे  और उनको समर्पित मेरी चिर संचित कोमल आत्मीय भावनायें मेरी नवजात बौद्धिकता को ताने मार  रही थी --- चार दिन की चाँदनी , फिर अँधेरी रात !
मेरा बालपन मचलने लगा था - 
चान मामा, चान मामा,
हँसुआ द ।
ऊ हँसुआ काहेला?
मड़ई छवावेला 
......................
......................
बऊआ के मुँह में,
दूध भात घुटुक! 
                                 -----विश्वमोहन