Monday, 17 July 2023

भावार्थ

 अबूझ प्यास क्या बुझे,

तू और इसे कुरेदती।

प्रकृति तू! प्रति तत्व को,

पुरुष के उद्भेदती।


डूबकर मैं रूप में,

अरूप को संधानता।

हर शब्द आहत नाद में,

अनाहत ही अनुमानता।


सरस स्पर्श में तेरे,

मैं नीरस, नि: स्पृह-सा।

गंधमादन गेह देह,

मेरे शुष्क गृह -सा।


तर्क तूण तीर तन,

आखेटता मैं भाव को।

भाव भव सागर में,

तलाशता अभाव को।


कणन कंचन कामना तू,

मैं पुलक पुरुषार्थ का।

वासना के पार मैं,

वैराग्य के भावार्थ -सा।


18 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 18 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !  

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  2. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना आदरनीय विश्वमोहन जी। प्रकृति और पुरुष का प्रेम सृष्टि को पूर्णता प्रदान करता है। पर प्रेम की दिव्यता और उत्कृष्टता उसकी निर्मलता में निहित है।जहाँ सभी देहजनित विकार मिट जाते हैं वही प्रेम का उत्कर्ष है।बहुत दिनों बाद ब्लॉग की रौनक बढ़ाती और विशुद्ध प्रेम का भावार्थ बताती रचना के लिए हार्दिक बधाई 🙏

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  3. निश्छल प्रेम को व्यक्त करती भावपूर्ण रचना।

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  4. डॉ विभा नायक18 July 2023 at 08:19

    सुंदर पर 'उद्बेधती' शब्द पर अटक रही हूँ। उद्भेदती से तो परिचित हूँ

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    1. अत्यंत आभार। सही कर दिया🙏

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  5. अरूप से ही रूप का जन्म हुआ है, जहां प्रेम है वहाँ दोनों मिट जाते हैं, सुंदर सृजन!

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  6. डॉ विभा नायक18 July 2023 at 12:36

    🙏

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  7. आहा .. प्रकृति और प्रेम का समर्पण ... लाजवाब कृति ...

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