जल के तल पर,
स्वर्ण रेखा से,
पथ बन सूरज
सो गया।
मस्तुल पर मस्त
अन्यमनस्क मन ,
अकेलेपन में
खो गया।
तट से दूर,
अंदर जाकर,
पानी भी रंग
बदल लेता!
फिर क्यों मन
चंचल होकर भी,
आज अचेत सा
यूँ लेटा?
बस पल भर,
बीत जाते ही,
कंचन वीथि
खो जाएगी।
गागर में
रजनी अपनी,
सागर समेट
सो जाएगी।
नीचे तम,
और ऊपर भी तम,
और क्षितिज भी,
चहुँ मुख हो सम।
अँधियारे लिपटे
अन्हार को,
भी न खुद
होने का भ्रम!
दृश्य जगत का,
छल प्रपंच,
अदृश्य अमा के
तिमिर काल।
न होगा ऊपर
नील गगन,
न नीचे रत्ना
गर्भ ताल।
फिर खोए नितांत
एकांत में,
जागे मानस,
इच्छा तत्व।
तीन गुणों में
सूत्र आबद्ध,
राजस, तमस
और सृजन सत्व।
' न होने ' से
'हो जाने ' , के,
' प्रत्यभिज्ञा ' अंकुर-मुख
खोलेगा।
कालरात्रि के
छोर क्षितिज,
सृजन सवेरा
डोलेगा।