Monday 6 November 2023

सागर बता क्यों?

 


सागर बता क्यों तू,

गंभीर इतने?

तूने देखे घात

प्रतिघात कितने!



सुनी है ये हमने

पुरातन कहानी।

कि सृष्टि का स्त्रोत

तुम्हारा ही पानी।


तुम थे, तुम थे,

और केवल तुम थे।

जो जड़ थे, चेतन थे,

सब तुम में गुम थे।


भ्रूण में तुम्हारे,

रतन ही रतन थे।

निकले सब बाहर,

मंथन  जतन से।


सृष्टि को भेजा था,

जल से तू थल पर।

तेरे परलय टंगी,

धरती शूकर पर।


आगे बही फिर,

सभ्यता की धारा।

प्रतिकूलता को,

हमने संहारा।


ऊपर, और ऊपर

चढ़ते गए हम।

प्रतिमान नए और

गढ़ते गए हम।


पशुओं को मारे,

और पशुता को धारे।

जटिल जिंदगानी,

इंसान हारे।


पियूष प्रकृति बूंद,

बूंद हमने पीया।

संततियों को,

बस जहर हमने दिया।


लहरें ही लहरों में,

जा के यूं उलझे।

श्रृंग-गर्त्त भंवर बन,

रह गए अनसुलझे।


तुमसे ही अमृत,

तुमसे गरल भी!

बता क्यों है क्लिष्ट,

अब ये सृष्टि सरल सी?






18 comments:

  1. वाह! हमेशा की तरह बहुत सुंदर रचना।

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  2. वाह्ह लाज़वाब ,बेहतरीन अभिव्यक्ति।
    एक लंबे अंतराल के बाद आपकी रचना पढने को मिली सहुत अच्छा लगा।
    सादर।
    ----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ७ नवम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. जी, बहुत आभार, हृदयतल से।

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  3. काव्य पाठ भी बहुत अच्छा लगा।

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  4. बहुत सुंदर रचना

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  5. अत्यंत भावपूर्ण और प्रभावी रचना आदरणीय विश्व मोहन जी! हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकार करें!
    *** ****
    किए सिन्धु से प्रश्न बड़े जग ने
    कभी उत्तर ना जान सका कोई
    घात अनगिन सदा ले जीया जी पर
    पर पीर ना पहचान सका कोई

    छलकी कितनी नयन गागर?
    सागर भीतर कितने सागर ??
    किस कारण खार घुला जल में
    ये राज ना जान सका कोई !////
    🙏🙏

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    1. अद्भुत टिप्पणी। हार्दिक आभार।

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