Monday, 27 October 2025

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर



आज फिर थाम लिया है माँ ने,

छोटी सी सुपली में,
समूची प्रकृति को।
सृष्टि-थाल में दमकता पुरुष,
ऊंघता- सा, गिरने को,
तंद्रिल से क्षितिज पर पच्छिम के,
लोक लिया है लावण्यमयी ने,
अपने आँचल में।
हवा पर तैरती
उसकी लोरियों में उतरता,
अस्ताचल शिशु।
आतुर मूँदने को अपनी
लाल-लाल बुझी आँखें।
रात भर सोता रहेगा,
गोदी में उसके।
हाथी और कलशे से सजी
कोशी पर जलते दिए,
गन्ने के पत्तों के चंदवे,
और माँ के आंचल से झांकता,
रवि शिशु, ऊपर आसमान की ओर।
झलमलाते दीयों की रोशनी में,
आतुर उकेरने को अपनी किरणें।
तभी उषा की आहट में,
माँ के कंठों से फूटा स्वर,
'केलवा के पात पर'।
आकंठ जल में डूबी
उसने उतार दिया है,
हौले से छौने को
झिलमिल पानी में।
उसने अपने आँचल में बँधी
सृष्टि को खोला क्या!
पसर गया अपनी लालिमा में,
यह नटखट बालक पूर्ववत।
और जुट गया तैयारी में,
अपनी अस्ताचल यात्रा के।
सब एक जुट हो गए फिर
अर्घ्य की उस सुपली में
"क्षिति जल पावक गगन समीर।"


Monday, 20 October 2025

उनकी कहानियाँ मेरे नाटक




पुस्तक का नाम - उनकी कहानियाँ मेरे नाटक 

मूल्य - ६९९ रुपए 

लेखक - डॉ० नरेन्द्र नाथ पाण्डेय  

प्रकाशक – कौटिल्य  बुक्स, ई - २/५९,  सेक्टर - ११, रोहिणी, नयी दिल्ली -११००८५ ३०९, 
ईमेल - kautilya.in 

डा० नरेंद्र नाथ पांडेय की पुस्तक ‘उनकी कहानियाँ मेरे नाटक’ कथा-कला से नाट्य- कला की यात्रा का एक अभिराम रेखा चित्र है। विश्व के नौ कालजयी कथाकारों की चर्चित कहानियों का यह नाट्य रूपांतर है। इस पुस्तक का पुरोवाक भी प्रसिद्द कालजयी कवि अरुण कमल ने उचारा है। भौतिक विज्ञान के अध्येता नाटककार पांडेय जी का साहित्य विटप भी विज्ञान की उर्वरा भूमि में ही पनपा है। इसीलिए इनके द्वारा कथाओं के चयन की कला में भी इनकी वैज्ञानिकता का तत्व दृष्टिगोचर होता है। ये कथाएँ एक वैज्ञानिक काल-क्रम में व्यवस्थित हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इन्होंने समय के साथ  वैश्विक कथा साहित्य के विकास, प्रवाह एवं प्रकृति की दशा और दिशा को अपनी कल्पनाशीलता के चित्र में उकेरा है। इस तथ्य को आत्मसात करने की सरलता के लिए नीचे की तालिका का अवलोकन किया जा सकता है। इसमें कहानीकार,  उनकी जीवन-अवधि, देश-परिवेश, साहित्य-दर्शन और नाट्य-रूपांतरित कथाओं के आरोहण को समय की रेखा पर समझा जा सकता है। 



‘प्रभंजन’ के संवाद में भाषा और कहन की आत्मीयता की सघनता है। बातचीत की सीधी ‘भाखा’ में विदेशज शब्दों का मणि-काँचन संयोग है। ब्लादमिर और  मारिया की बातचीत न केवल प्रिय और प्रेयसी की अंतरंगता की सहज अभिव्यक्ति है, वरन यह  समकालीन व्यष्टि-समष्टि  संबंध और जीवन-दर्शन को भी सहेजते चल रही है। बीच-बीच की क्षणिक चुप्पी उच्च आवृति की दीर्घकालिक मुखरता से भी ज़्यादा प्रभावी और मारक है। यह नाटक ध्वनि की अभियांत्रिकी  से झाँकता स्वर-व्यंजना का विज्ञान है। कहन का ढ़ब और लय की पात्रानुकूलता इतने प्रगाढ़ हैं कि संवाद से ही पात्र को पाठक पकड़ लेता है।
किसी भी यात्रा का असली मज़ा तो  गंतव्य तक पहुँचने से पहले तक  होता है। गंतव्य बिंदु का स्पर्श करते ही आनंद का पटाक्षेप हो जाता है। कुछ ऐसी ही बात कल्पना के यथार्थ तक पहुँचने के बीच घटित होती है।  श्रव्य कल्पना के तंतु को जगाते हैं तो दृश्य यथार्थ को सामने रख देता है। श्रव्य का ध्वनि-संयोजन कल्पना की गहराई को शोधता है। पाठक-श्रोता के सारे ऐंद्रिक तंतु उसमें विलीन होकर आत्म-परमात्म के मिलन के परमानंद को छू लेते हैं। यही नाटककार की नाट्य-कला का उत्कर्ष और ऐश्वर्य है। पांडेय जी ने इस उत्कर्ष का स्पर्श कर लिया है। अद्भुत ध्वनयात्मक शब्द-चित्रों के साथ-साथ नाटक में मानवीय भाव, सामंती अहंकार,सामाजिक वैषम्य – सभी अपनी स्वाभाविक आवृति में पारा-पारी उभरते-उतराते हैं और पाठक-श्रोता को अपने में बुड़ा लेते हैं।  नाटकों में अवसान का जो शिल्प बुना गया है, वह इसके सुख और दुःख को अत्यंत संजीदा बना देता है। यही नाटककार के  शिल्प-विधान की शैली की जादूगरी है।
‘ओवरकोट’ नाटक की मूल कथा और उसके कथाकार गोगोल  के बारे में दोस्तोवोस्की की बड़ी रोचक विवेचना है कि समस्त आधुनिक साहित्य गोगोल के ‘ओवरकोट’ से निकलता है। उसी तरह नाटककार प्रोफ़ेसर पांडेय के इस नाटक की चित्रात्मकता पर यदि ग़ौर करें तो पाएँगे कि यह ओवरकोट दादाजी और बच्चों की बातचीत से निकलता है। ज़ाहिर है, बाल-सुलभ भोली-भाली शैली में कथानक  सरलता का शिल्प ओढ़े ऐसी प्रांजलता को प्राप्त होता है कि नाट्य-विधान और उसके प्रस्तुतीकरण में चार चाँद लग जाते हैं। भाषा में ग़ज़ब की धार है और शब्दों में टटकापन! ‘ऊपर से देखो तो खल्वाट नज़र आए, ……पूरा भुक्खड़ लगता है। एकदम कार्टून।‘ क्षिप्र संवादों का यह चुटिलापन इतना तीखा है कि कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि मूल कहानी के किसी क्लिष्ट भाव के सूत्र को नाटककार ने अपने पात्रों के वार्तालाप के ढंग में पिरोकर पाठक-श्रोताओं के लिए सहज, ग्राह्य एवं सुपाच्य बना दिया है। यदि यह कहें कि शिल्प, शैली और प्रभाव में यह नाटक अपनी मूल कृति से बीस ही बैठती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं! संवादों में नाटककार ने इस तथ्य में प्राण फूँक दिया है कि ‘ओवरकोट’ अकाके के लिए महज़ एक परिधान नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक चूनर है है जो उसके जीवन की समग्रता को अपने सात्विक आवरण में समाहित किए उसे चिन्मयानंद से आपुरित कर रहा है। अकाके का अंतिम आलाप ‘बाई में बउआने’  के समान है जो उसके अंतस की व्यथा को बाहर उड़ेल दे रहा है।  यहाँ नाटककार की कल्पानाशीलता अपने पूरे शबाब पर है।
टोलस्टोय के ‘तीन प्रश्न’ में राजा और रानी की बातचीत  नाटक की भूमि रचती है। रानी का राजा को साधु का भेद बताना कथानक को एक नैसर्गिक नाटकीयता प्रदान करता है। उसी तरह ‘धम्म’ की आवाज़ कहानी में कुतूहल घोलती है। राजा और साधु द्वारा घायल की सुश्रुषा नाटक को आवेग देता है। नाटककार का शब्द चित्र पाठक-श्रोता की आँखों में यहाँ सीधा उतर आता है। अंत में संन्यासी के मुँह से ‘वर्तमान’ की महत्ता को रेखांकित करते संदेश में नाटककार नरेंद्र पांडेय ने ऐसी गरिमा घोल दी है कि पाठक-श्रोता को ऐसा प्रतीत होता है, मानों वह राजा जनक के सपने की व्याख्या को महर्षि अष्टावक्र के मुख से सुन रहा हो।
‘वो तो सच जानता है’ के संवाद अत्यंत सहज बोली में हैं। इसमें नाटककार ने मूल कहानीकार टोल्सटोय के दर्शन की मंदाकिनी बहा दी है। अक्सिनोव की कराह  को सुपरइम्पोज करती कड़कती आवाज़ में ध्वनि का कमाल का संयोजन और  मिश्रण है।  
‘चाँदनी रात में’ नाटककार के अंदर का वैज्ञानिक उसके अंदर के साहित्यकार के पीछे खड़ा नज़र आता है। फ़्रान्स के समकालीन समाज की जो सड़ाँध मोपांसा की कहानी से निकलती है, उसकी विकरालता इस नाट्य रूपांतर में और वीभत्स रूप ले लेती है। ‘हीरो के हार’ का अंतिम दृश्य मातिल्दा के ज़िंदगी हार जाने का करुण चित्र है। ‘स्वार्थी राक्षस’ के दृश्य संयोजन में श्रव्य की बारीकी है और साथ ही बाल क्रीड़ा का जीवंत चित्र उभरता है। संगीत के घड़े में समय को घोल दिया गया है। ‘राक्षसी प्रवृति प्रकृति को भी प्रतिकूलता का न्योता देती है’- इस संदेश को इस नाटक ने इतनी तीव्रता से महसूस कराया है कि स्वयं मूल कथाकर ऑस्कर वाइल्ड का अपना साहिय दर्शन, कला को केवल कला के लिए होना चाहिए और इसका समाज अथवा मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़े यह आवश्यक नहीं है, इस नाटक के नीचे दबता दिखायी देता है। ‘प्रेम की बावत’ में एक साथ दो कथाएँ चलती हैं। एक ओर येन के साथ आलियोख़िन स्मृति-वीथिका  में विचर रहा है, दूसरी ओर उसी की ‘आँखों देखी’ वह अपनी मित्र-मंडली में उचार रहा है। इस दृश्य को नाटककार की कल्पनाशीलता ने बख़ूबी पकड़कर अपनी चित्रात्मकता में उकेर दिया है। ‘मेजाई का उपहार’ के अंत में नाटककार का सूत्रधार को खड़ा कर उससे उपहार के तत्व की मीमांसा करवाना बड़ा प्रभावोत्पादक है। यह विवेचना उससे नि:सृत करुण संगीत के सुर में जिम और डेला के अभिसार से पाठक-श्रोताओं को सिक्त कर देती है।  ‘मास्टरपीस’ बतरस की शैली का मास्टरपीस है। बतियाने के बीच के ‘ठहराव’ में वार्ताकारों की चुहलबाज़ी छलकती है। ‘नौकर’ में जेराशिम का उसके लिए नौकरी से हटाए गए वृद्ध दम्पति की कारुणिक बातचीत सुनने पर उसका हृदय परिवर्तन और फिर उसका नौकरी को नकार देना – इस प्रसंग की नाट्य-प्रस्तुति का जो सीधा प्रभाव पाठक-श्रोता पर पड़ता है, यह प्रोफ़ेसर पांडेय के विलक्षण रचनात्मक कौशल का चरम गौरव है। ‘अकथ्य संग्रह’ में रेकनर की अंतिम आवाज़ पाठक-श्रोता को अंदर से झकझोर देती है, जब उस संग्रहकर्ता फ़्रेंज की आत्मा से उसके अपने संग्रहों की स्मृतियों में जीवंत रहने का  मर्मस्पर्शी आर्त्तनाद गूँजता है।   
रेडियो नाटक एक सर्जनात्मक विधा है जिसमें किसी कथावस्तु को अत्यंत रोचक और प्रभावी ढंग से प्रस्तुति हेतु संगीत, स्वर और संवाद का एक ‘कोलाज’ होता है। कल्पना और रचनात्मकता इसमें पूरी तरह तथ्यों पर आधारित होते हैं। भले हीं, मंचन अदृश्य हो किंतु प्रस्तुति रोचक, प्रवाहमय, सहज और संवादात्मक होती है। शब्द, ध्वनि और कान, इन तीन कारकों के माध्यम से संदेश का संचार अत्यंत सजीव और तीव्र होता है। इस कृति में भी नाटककार नरेंद्र पांडेय ने अपनी रचनात्माकता और चित्रात्मकता का अद्भुत प्रभाव छोड़ा है। शब्द और ध्वनि की लहर पर बिम्ब साक्षात तैरते हुए पाठक-श्रोता के मानस पटल पर अपना संपूर्ण प्रभाव छोड़ जाते हैं। इनके  दृश्यों पर आकार की कोई बंदिश नहीं है और न ही वे किसी शास्त्रीयता के बंधन में बँधे हैं। इसीलिए सही में इन्हें अंधेरे का नाटक कहा जा सकता है जो बिना देखे संवेदना के स्तर पर पाठक-श्रोता  के समस्त इंद्रियों को नेत्रवान बना देता है।
पाठक-श्रोता  का सहज संबंध पात्रों के अंतर्मन से हो जाता है। पात्रों की पीड़ा, श्रोता की कराह और पात्रों का प्रमोद श्रोता का श्रिंगार बन जाता है। शब्द नाद धर्मा होते हैं। उनके आरोह-अवरोह में ही शब्द का आंतरिक नाटक समाया होता है। वाचिक अभिनय नाटक का शरीर होता है। वाणी के अभिनय में अंग-प्रत्यंग की थिरकन घुली होती है। यहाँ सब कुछ मिलता है। पांडेय जी ने अपने नाटकों के ‘स्वगत’ कथन में पात्रों के मानसिक अंतर्द्वंद्व को बख़ूबी उभारा है। नाटक में यत्र-तत्र बिखरा ‘ठहराव’ भी श्रोताओं के मन में एक नयी गति को स्फूरित कर देता है तथा उसका ‘मौन’ संवाद की प्रखरता को धार देता है। नाटककार की कल्पनाजीविता नाटक के चरित्र में भाव, विचार, संवेदना और अनुभूतियों के वैसे बीज छिटते दिखती हैं जो उसके नित्य प्रति के जीवन संघर्ष से प्रस्फुटित हुई हैं। चरित्र गतिशील हैं और संघर्षशील भी। उनकी ध्वनि और शब्दों की अठखेलियों में  वाणी की चारों अवस्थाएँ – परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी बिखरी हुई हैं। भाषा की सहजता, संप्रेषणीयता, भावानुरूपता, पात्रानकुलता, चित्रात्मकता और गतिशीलता  पाठक के अंतर्मन में पात्र की जीवंत छवि को खड़ा कर देती है। नाटककार नरेंद्र नाथ पांडेय की  संवाद शैली उनके नाटकों का प्राण है। अपने संवादों के माध्यम से उन्होंने कथानक के विकास के साथ पात्रों के चरित्र को भी बख़ूबी उभारा है। संवादों के प्रवाह, गति और भाव-प्रवणता श्रोताओं  को गुदगुदाते हैं, रुलाते हैं और कहीं -कहीं तो क्षोभ के आवेग उत्पन्न कर देते हैं। समस्त नाटक में आद्योपांत करुणा का अजस्त्र प्रवाह है। संवादों में एक कसाव है, तारतम्यता है और पात्र एवं परिवेश की स्पष्टता है। नाटक में नाटककार पांडेय जी द्वारा इंगित संगीत संयोजन अत्यंत मोहक है। संवादों की पृष्ठभूमि में गूँजते  संगीत में मनोदशा के अनुरूप रागों के स्वर हैं, वाद्य्यंत्र की थिरकन है और दृश्यांतर का प्रभाव है। 
शीर्षक में रोचकता का तत्व है और एक चुंबकीय आकर्षण है जो न केवल पाठक के कौतुहल को बढ़ाता है, प्रत्युत उसके श्रोता मन पर एक अमिट  छाप छोड़ जाता है। 
और अंत में हम इस बात को अवश्य रेखांकित करेंगे कि ये नाटक मूलत: विश्व प्रसिद्ध  कहानीकारों की अद्भुत कथाओं का नाट्य रूपांतर हैं। इसलिए नाटककार  नरेंद्र नाथ पांडेय को यहाँ दायित्व बोध की अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ा है। और, इस अग्नि-परीक्षा में उनके अंदर के नाटककार की कंचन-कला कुंदन बनकर निकली और निखरी है। कथा की आत्मा को बचाए रखकर उसके शरीर की काट-छाँट कर अपने नाटक के उद्भव, विकास और  परिणति की पूरी यात्रा में कहीं कोई भटकाव नहीं है। बल्कि, नाटक का कलेवर अपने आप में इतना संपूर्ण है कि वह स्वयंभू मौलिक सा मालूम होता है। 
नाटककार नरेंद्र नाथ पांडेय को इस कृति की बधाई!






और अब लेखक परिचय 

नेतरहाट विद्यालय और पटना साइंस कॉलेज से शिक्षा प्राप्त पूर्णिया जिले के 'सरसी' ग्राम में अवतरित हुए प्रोफेसर नरेंद्र नाथ पांडेय अनेक मामलों में एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं। पटना विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर रहे अद्भुद वैज्ञानिक सूझ-बूझ के धनी डॉ पांडेय ने 'रंगमंच एवं फिल्मों का एक-दूसरे पर प्रभाव एवं इनकी सामाजिक जिम्मेवारी' जैसे गूढ़ साहित्यिक और समाजशास्त्रीय विषय पर अनूठा शोध प्रबंध रच डाला, जिसके लिए पटना विश्वविद्यालय ने इन्हें डी लिट् की उपाधि से विभूषित किया। रेडियो, टेलीविजन, रंगमंच एवं फिल्मों में अभिनय और निर्देशन के वृहत अनुभवों को समेटे डॉ पांडेय ने सम्पूर्ण भारत में एक साथ अनेक भाषाओं में प्रसारित, सबसे लंबी रेडियो श्रृंखला 'मानव का विकास' की सर्वाधिक किस्तों का सफल लेखन किया। 'रविन्द्र नाथ ठाकुर की कहानियाँ' , ' चल उड़ जा रे पंछी ' और 'देहरी से द्वार तक' इनकी बहुचर्चित प्रकाशित पुस्तक रही हैं। 
'राज्य शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान , बिहार' के निदेशक रह चुके डॉ पांडेय अखिल भारतीय स्तर पर अनेक नाट्य प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता एवं निर्देशक के पुरस्कार सहित 'शिखर सम्मान' के आभूषण का गौरव बटोर चुके हैं। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के संचालन से लेकर डॉक्यु ड्रामा, रेडियो पर बच्चों के लिए विज्ञान कथाओं के निर्माण और प्रसारण, शिक्षाप्रद वार्ताएँ और  रेडियो रूपक की रचना तक का इनका सफर बड़ा ही रोचक और प्रेरक रहा है।
और अंत में, यह भी बताते चले कि इनकी धर्मपत्नी प्रो०डॉ० सुषमा मिश्रा, विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, ने पटना साइंस कॉलेज में हमें पढ़ाया भी है। इस नाते अत्यंत मृदुभाषी और आत्मीय प्रो० पांडेय हमारे 'गुरूपति' भी हुए। इस गुरुयुगल को सादर चरण स्पर्श।











Saturday, 24 May 2025

सम्यक - सम्बोधि समीक्षा

पुस्तक का नाम -  सम्यक सम्बोधि 
(लघुकथा संग्रह)
संपादक - विभा रानी श्रीवास्तव

एक पाठक के रूप में यदि किसी विधा ने हमें सबसे अधिक बांधा है तो वह लघुकथा है।कारण बहुत सरल और सर्वमान्य है।समय की लघुता में भावों के विस्तृत व्योम की थाह पा लेने की उत्कंठा।और जो कथा अपनी आकृति की लघुता में हमारे पाठक मन को अपनी भाव गंगा की अतल गहराई का आभास दिलाकर हमारे मनोमस्तिष्क पर एक अटल प्रभाव छोड़ जाती है, वही हमारी पसंदीदा रचना बन जाती है। इस आधार पर एक पाठक को क्या चाहिए? संदेशवाहक कथ्य के साथ एक सुगठित कथानक , ग़ैर उबाऊ शैली और सुगम एवं मोहक शिल्प! मेरा पाठक मन इन्ही मान्यताओं पर किसी लघुकथा का मूल्यांकन करता है।बाक़ी विश्लेषण की कलाओं की दुरुहता में भटकने का यदि समय होता तो  फिर लघुकथाएँ  ही क्यों पढ़ता!

लघुता ते प्रभुता मिले, प्रभुता ते प्रभु दूरी।

चींटी शक्कर ले चली, हाथी के सिर धुरी।

लघुकथा के पात्र उसके कथानक के शिल्प में ऐसे गुँथे होते हैं कि वह पाठक से सीधे बतियाते हैं। कहन की शैली इतनी क्षिप्र होती है कि सहसा कोई पात्र कूदकर कोई ऐसी बात पाठक को समझा जाता है कि पाठक का दिमाग़ झनझना जाता है और यह झनझनाहट दीर्घ काल तक अपना प्रभाव बनाए रखती है। बतौर पाठक हमें लघुकथाओं के आकार का साढ़े चार सौ से लेकर पाँच सौ शब्दों की सीमा के अंदर ही होना उसके लघुकथा होने की सार्थकता को साधते दिखता है।न्यूनतम सीमा तो एक वाक्य से लेकर एक दो वैसे शब्द भी हो सकती  है जो कोई मारक प्रभाव छोड़ जाय।जैसे, ‘ब्रुटस, तुम!’ यामैं तो ठहर गया, भला तू कब ठहरेगा!’  याबेटा, क्या बिगाड़ के दर से ईमान की बात नहीं कहोगे!’ आदि आदि। तो सीधे पते की बात पर आयें तो सबसे पहले कथानक और उसका मारक प्रभाव, फिर शिल्प, तब शैली और अंत में शीर्षक। एक अत्यंत आम पाठक की मेरी निगाहें बस इतना ही तलाशती है लघुकथाओं में। हाँ यदि भाव प्रवाह की प्रांजलता को ऊर्जा और संजीदगी की ताजगी भरती भाव प्रवण भाषा और शास्त्रीयता का कोई मणि-कांचन संयोग हो उसमें तो फिर कहना ही क्या! मुझे उसके अंदर छिपे किसी भी दुरूह संदेश और दार्शनिकता से भी कोई मनमुटाव नहीं, यदि वह स्वयं पात्रों की चाल-ढाल, बोली-चाली या भाव भंगिमा में रच बसकर सीधे मेरे पाठक मन को छू ले। लघुकथाओं से ऐसे तो वैदिक साहित्य, औपनिषदिक कृतियाँ, पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथायें, महाभारत , रामायण, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य आदि आदि पटे पड़े हैं, किंतु इधर पिछले कुछ दशकों से इस विधा के पुनरावलोकन की प्रवृत्ति कुछ अधिक तीव्र हो गई है मानों यह विधा अब अपने पुनर्जागरण काल में पहुँच गई है। इसमें कुछ योगदान तो बदलती जीवन शैली का भी प्रतीत होता है जहां आम जन को अब धरती की चाल तेज लगने लगी है। चौबीस घंटे कम पड़ने लगे हैं। वह चाहता है कि धरती भी अपने घूर्णन गति के लघुकथा संस्करण को प्राप्त हो ताकि उसे समय कुछ और मिले और वह समय  की लघुता के गागर में अपने जीवन की ज़रूरतों का सागर भर ले।अब उसके पास दीर्घ गाथाओं, उपन्यासों और बड़ी कहानियों को पढ़ने का वक़्त नहीं।थोड़े समय में ज्यादा से ज्यादा संवाद कर लेना चाहता है वह! लघुकथायें आज के आम जन की इस आवश्यकता पर एक कारगर विधा के रूप में खरी और खड़ी प्रतीत नज़र रही है। इन समस्त तथ्यों का संबोध कराती एक सार्थक कृति अभी पिछले विश्व पुस्तक मेले में दिल्ली में  और फिर बाद में पटना के बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के मंच पर लोकार्पित हुई। इसका संपादन किया है लघुकथा को समर्पित साहित्यकार विभा रानी श्रीवास्तव ने।  छब्बीस समर्थ रचनाकारों की पाँच-पाँच प्रतिनिधि लघुकथाओं के इस संकलन का नाम है - ‘ सम्यक् सम्बोधि ऐसे तो संबोधि शब्द का अर्थ ही होता है सम्यक् बोध किंतु उसके पीछे एक बार फिर से सम्यक् जोड़ने पर हमें बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में सम्यक् शब्द की याद आती है जो सकारण है। सम्यक् शब्द भावों की संपूर्णता और सांगोपांगता का आभास दिलाता है। ऐसे बताते चलें कि लघुकथा पाठक के रूप में मेरी लघुकथाएँ भी अपने अष्टांगिक तत्वों की सम्यकता में ही अपने स्वरूप की संपूर्णता को प्राप्त करती हैं। ये आठ अंग हैं, सम्यक् कथ्य, सम्यक् कथानक, सम्यक् शिल्प, सम्यक् शैली, सम्यक् भाषा, सम्यक् आकार, सम्यक् संदेश और सम्यक् शीर्षक। अब सम्यक् सम्बोधि की समीक्षा भी इन अष्टांगों की सम्यकता की कसौटी पर कसा जाना अपेक्षित होगा। 

अनिल मकरिया केअव्यय बीजका पाठक भी अनियंत्रित हाव-भाव से मानव के प्रतिउसकीखीझ से खीझ उठता है जबवह’  ‘कहीं सेउठते मनुष्य के शोर से विचलित होकर ग्रह को फिर से वर्तमान की जीवन रहित स्थिति में ले आता है। कितना कमजोर और कायर हैवह’! विरूपताओं के समक्ष उसके घुटने टेकने में लघुकथा के संदेश पक्ष की साँसें अटक गई सी लगती हैं।ट्रॉली प्रॉब्लमआर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में उभरते जज़्बातों का और फिर उन जज़्बातों के चश्में से मानवीय संवेदनाओं को परखने का सुंदर  चित्रण है।दशरथ जलइस धारणा को बल देता है कि अब चौथा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा।अहलकारमें साहब के नहले से नवाचार पर कुली का दहला सा दहलाता व्यवहार है।पर्यावरण के प्रदूषण की पोल खोलतेबोधि वृक्षके सुगठित शिल्प को शैली की जटिलता छूती नज़र रही है। 

ऋचा वर्मा कावायरल वीडियोमेडिकल परीक्षा के नीट घोटाले का पर्दाफ़ाश है। आज का सोशल मीडिया सशक्तिकरण का एक मज़बूत टूल है। समकालीन सामाजिक सोच की विसंगति केहुलियाके पर्दाफ़ाश में सभी किरदार लाइन हाज़िर होते दिखाई देते हैं।संयुक्त परिवार की तेज़ी से बदलतीचाल ‘  अपने शिल्प और शैली दोनों में समृद्ध है कैमरे के पीछे सेपरिवार को निगलते ग्लैमर की कहानी का सफ़्फ़ाक सच दिख रहा है।कुली का काम रात में लेकर स्टेशन की वाईफ़ाई सुविधा से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का यह हुनर वाक़ईडगर से नभको नापने का सार्थक संदेश बयान कर रहा है। 

ऋता शेखर  ‘मधुकी मीना का विवाह को सामाजिक बंधन की दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करना केवल बदलते समय की आहट है प्रत्युत इसकाअसर कहाँ तकआगे होना है यह प्रश्न पाठक को दबोच लेता है।सुपर मॉमभारतीय परिवार का सनातन सच हैं।सीधे सपाट शीर्षक वाले छाया दान में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की घनी छाँह है।परछाईंमें जीवन और जमाने के आपसी तराने की अनुगूँज है।बढ़ती बेटियों पर समाज की गिद्ध दृष्टि का कुरूप चेहरा उभर कर आता है, ‘ बेटी बड़ी हो गईमें। इसका शीर्षकगिद्ध दृष्टिभी हो सकता था। 

कमला अग्रवाल की जागरूकता अन्न की बर्बादी पर संवेदनशील दृष्टि फेरती है।पर्यावरण पर उनकी  ‘हताशावाजिब है।उनकाआत्म-साक्षात्कारजीवन की क्षणभंगुरता से व्युत्पन्न सर्वजन सुखाय हेतु आत्मोत्सर्ग का भाव उद्भूत करता है।काल चक्रमें इंसान की करनी के साथ वक़्त का इंसाफ़ है।छलावा सेछत्तीस का आँकड़ारखने वाली निश्छला की बातों में मानव जीवन में शुचिता का शंखनाद है। 

गरिमा सक्सेना काजानवरमानवीय मूल्यों के पतन पर तीखा व्यंग्य करता है। एकल बुजुर्ग के एकाकी जीवन की मर्मांतक पीड़ा को वहकंधादेती हैं।मौसमविदहसरतों के पर लगाये निरंतर आसमान को निहारने वाली एक सुयोग्य नारी के पैरों के परिस्तिथियों के दलदल में धँस जाने की त्रासदी है। प्रेम के बाज़ारूपन का खुलासास्टेटसमें होता है।आत्मा और शरीरकलियुगी इश्क़ के रूह को तलाशती दास्तान है।यथा विहाय जीर्णानिइसका सही शीर्षक हो सकता था। 

गार्गी राय केऐबमें वोटों के ख़रीद-फ़रोख़्त को बड़ी मासूमियत से परोसा गया है। उनकासुरसमाज में व्याप्त वर्ण भेद को साधता है।काल-कोठरीमें पौरुष अत्याचार से आहत और जिजीविषा को ढूँढती एक उदीयमान सशक्त नेत्री के आंतरिक शौर्य का स्वर उभरता है।निधि की जगह सुरेखा का नाम टंकण अशुद्धि है, सुरेखा के प्रत्युत्तर में! ‘श्राद्ध का उत्सवशोक की घड़ी में भी आडंबर और फ़ैशनों के नवाचार की कुत्सित वृत्ति का पर्दाफ़ाश है, मानो यह कोई उत्सव हो! यहाँ तीन पीढ़ियाँ एक साथ उपस्थित होती हैं सबसे नीचे वाली पीढ़ी को दूषित करने का सूत्रधार बीचवाली  पीढ़ी ही दिखायी देती है।और यही आज का सच है जिसे चित्रित करने में यह लघुकथा बाक़ी मार ले जाती है।फ़ास्ट फ़ूड के बढ़ते बाज़ार में किताबों केख़रीदारअब खो गए हैं। जातिभेद के पुरातन विकृत कुसंस्कारों से नयी पीढ़ी की बेटी का विद्रोह माँ को  ‘पर्व का मर्मसमझा जाता है। माँ का हृदय परिवर्तन पाठक मन में भी लघुकथा के सार्थक संदेश को भलीभाँति रोप देता है।

नलिनी श्रीवास्तवनीलकासपूतबढ़िया से समझा देता है किपूत सपूत तो का धन संचय! ‘अनुभूतिमें प्रेम की मर्मांतक पीड़ा की गहरी टीस है।बाल-बच्चों की उपेक्षा के दंश का त्रास आज केविपन्नसमाज का सच हो गया है।भेदभावमें किन्नरों के प्रति संवेदनहीनता और दुराग्रह का भंडाफोड़ है।कपटीमें समाज में निरंतर सर उठाते कपट और छल-प्रपंच का उद्भेदन है।

नीरजा कृष्ण कीभूलदो समांतर घटनाओं में दो सगी बहनों के प्रेम और विवाह संबंधों की विद्रूपता की चीत्कार है।सरनेम में आज की नारी ने सशक्तिकरण कीमेरी पहचानढूढ़ ली है।बस, बहुत हुआमें मातृत्व की विराट महिमा ने सौतेलेपन को ढक लिया है।बरकतने पाठक को बता दिया है किरोपे पेड़ बाबुल का, आम कहाँ से होय!’ एक संवेदनशील बहू के द्वारा श्वसुर की भावनाओं का ख़्याल रखने का  ‘देशी स्वादअत्यंत लजीज़ और लाजवाब है।

डाo पूनम देवा कीमुक्तिस्त्री-पुरुष संबंधों पर समाज की कुदृष्टि और नियत में खोट की अभिव्यक्ति हैं।सर्पदंशछूआछूत के दुर्भाव पर इंसानियत की फ़तह की दास्तान है।थैंक यू पापामें समष्टिगत कल्याण भाव के सामने व्यष्टिगत स्वार्थ घुटने टेकते नज़र आता है। पति की आत्मासचेतकर रही है कि सत्कर्म ही सच्चा श्राद्ध तर्पण है, कर्मकांड नहीं।रहमतुल्लाहकी इबारत सफ़्फ़ाकसाफ़ है कि इंसानियत की ख़िदमत ही ख़ुदा की सबसे बड़ी इबादत है।

प्रवीण कुमार श्रीवास्तव जी काक़ददो टूक बता देता है कि पति-पत्नी का  आपसी मामला बताकर पत्नी को प्रताड़ित होते देना केवल विवाह की संस्था का अपमान है, प्रत्युत यह एक विकृत और बीमार सोच भी है।अपचडिजिटल कुसंस्कार के साये में बर्बाद होते बचपन की शोक गाथा है।अमावस का सिताराइस बात को रेखांकित करता है कि प्रतिभा अभिजात्यता की मुहताज नहीं।निरंतर लांछन से लाञ्छित प्राणी के मनोविज्ञान का चित्र हैअभिशाप’! मानसिक प्रताड़ना शारीरिक क्षय में व्यक्त होती है। पाठकीय पैमाने के हर बिंदु पर यह एक अत्यंत सशक्त लघुकथा है।अदलक़ानून  की जटिलता और इसके खिलाड़ियों की कपटपूर्ण प्रतिभा का आख्यान है।

ललन सिंह नेमौक़ेमें राजनीतिक हिसाब-किताब के छल, कपट और बेईमानी को परोसा है।अंतिम दियाका यही संदेश है कि आशा और उत्साह को ज़िंदा रखना ही जीना है।सुरा-सार’  शराबबंदी के अंदर के खेल का  सार है।कुछ भी’  इस सच को सामने रखता है कि आज की प्रपंची राजनीतिक व्यवस्था में ग़रीब की आवाज़ नक़्क़ारखाने में तूती के समान है।निहितार्थमें सच्चे पुरुषार्थ की  उदात्त और गौरवपूर्ण परिभाषा निहित है।यह लघुकथा सशक्त बिंबों की ओट में पाठक को प्रभावित कर जाती है।

श्री मनोज कीविदाईमें सामाजिक व्यवस्था का विद्रूप चेहरा है। मानवता की सेवा ही ईश्वर की उपासना है, यह बातजन्नत या दोज़ख़में गूंजती है।शिक्षासंस्कार के मर्म का अनुसंधान है।विरासतदो पीढ़ियों के अपने-अपने सच की रामकहानी है।यह पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी के मुँह से विरासत और जीवन मूल्य के यथार्थ को समझाती है।कथानक के स्तर पररिवाज’  कमजोर ठहरता है जो सड़क के गड्ढों से ध्यान भटकाकर रिवाज के मखौल में उलझ जाता है।

मिन्नी मिश्रा कीमाँभी कथानक के स्तर पर निर्बल है। पाठक का मन कहानी की नब्ज शुरू में ही पकड़ लेता है पाठक गंगा के उत्तर को भी पहले से ही ताड़ लेता है। यहाँ अचानक कूदकर सच से पर्दा हटाने वाली कोई बात नहीं है।मौत की मुस्कानआज के समकालीन यथार्थ पर बनी एक सशक्त लघुकथा है जो पाठक के मन को सिर्फ़ छूती ही नहीं, वरन् बहुत कुछ सोचने को बाध्य कर देती है।आत्मरक्षाअपने अंदर एक वृहत संदेश को आत्मसात् किए हुए है। इसका कथानक अत्यंत सार्थक और सशक्त है जो प्रकारांतर में भारतीय समाज की आधी  दुनिया को पूरी बात सिखा जाता है।जज्बे को  सलाममें केवल कलुआ में उसकी नानी के द्वारा आरोपित  महान मूल्यों का प्रकटीकरण है, प्रत्युत उन मूल्यों के आलोक में मालकिन के हृदय परिवर्तन का उद्घाटन भी है।परकटासांस्कृतिक विलंबना (cultural lag) को परिभाषित करती है।यह बच्चों के बालपन को प्रदूषित करने में माता-पिता की सक्रिय भागीदारी की भी पोल खोलती है।

डाo मीना कुमारी परिहार कीलाचारीएक माँ की मजबूरी को पढ़नेवाले बेटे के सफल संघर्ष की गाथा है जिसमें बाल मनोविज्ञान को भलीभाँति उकेरा गया है।प्रीत की डोर’  में बंधा पुत्र  माँ के अंध प्यार में बिगड़ जाता है।आत्मग्लानिमें तथाकथित बड़े परिवारों की सामंती सोच में सिसकते श्रमिकों की वेदना और पीड़ा है।छोटे बच्चे की बोली में एक ओर तो मजबूर स्त्री की विवशता अनावृत होती है, दूसरी और इसमें आज के बालकों की परवरिश और कुसंस्कार परजूते पड़नाभी है। सच्चाई की जीत का सरल कथ्य है, ‘कलंकित करना

ग़रीबी, स्पर्धा, छल-कपट, बिलखता बचपन, और रेल की तरह सरपट भागती दिनचर्या मृदुल जी कीपॉलिश में चकाचक दिख रही है। मुकेश कुमार मृदुल जी कास्वभावयह साफ़-साफ़ परिलक्षित कर देता है कि माँ के अंदर का पिता किंचित् माँ से ऊपर नहीं उठ सकता। आख़िर मातृत्व को प्रसव पीड़ा की अग्नि परीक्षा से गुजरना जो होता है।इंटरनेटपर सोशल मीडिया और डिजिटल दुनिया की अतिशयता की बलि वेदी  पर आहूत होती पारिवारिक शांति और मानसिक चैन का वीभत्स सच है। पाठक अजीब उधेड़बुन में है किबदमाश औरतहै कौन। नर्स या कलेसर! या फिर सोशल मीडिया पर वायरल यह किसी रील की पटकथा है! गांवों की कानाफूसी का रोचक चित्र खींचती हैख़राब औरत’!

रंजना जायसवाल कीचिट्ठीमें एक परित्यक्ता पुत्री और प्रताड़िता पत्नी की अप्रेषित वेदना है जिसका प्रारब्ध मात्र सिसकना है। सन्नोदेवी कीनर्कमें होने की आत्मस्वीकृति पाठक को लघुकथा का संदेश बड़े सशक्त भावों में पहुँचा देती है। बस यह कथा अपनी सोद्देश्यता में तब चूक जाती है, जब वह गुड़िया को इस नर्क से निकालने की कोई पहल नहीं करती। फिर तो, वह आत्मस्वीकृति एक फ़िल्मी डायलॉग मात्र बनकर रह जाती है।पुरुष सत्ता के दंभ काडरएक रचनाशील नारी की आकांक्षाओं का दम घोंट देता है।औरतों का मान नहीं होता’, यह पंक्तिमानकी मर्यादा को रेखांकित कर देती है।नील निशानपुरुष चरित्र का वह काला धब्बा है जो नारीत्व को खंडित करने का कुत्सित प्रयास करता है।

रमेश प्रसून काज्ञानोदयअमीर और गरीब के मध्य की असमानता से वायरस तक को  संवेदना से संक्रमित कर देता है।कालासच’  वेश्यावृति की समस्या की बारीक पड़ताल है। लिंग परीक्षण, कन्या शिशु भ्रूण हत्या, ट्रांसज़ेंडर के प्रति समाज का रुख़ एक साथ कई पहलूनयी भोरमें दिखायी देते हैं।  “ ‘दोहरामारमें समलैंगिकता की वृत्ति की समाज के शिक्षित वर्ग कोदुहरी मार’  है। गाँव की लड़कियों को बिगाड़ने का मोबाइल फ़ोन काअकाट्य दांवआज के डिजिटल युग का सच है। 

राजेंद्र पुरोहित जी की लघुकथा उनकेलेख्य-मंजूषापरिवार के संस्कारों से अछूती नहीं प्रतीत होती। भय बिन प्रीति होई, को वह बड़े सर्जनात्मक कलेवर देते हैं - भय, बिन प्रीति होई अर्थात् प्रीति के बिना भय नहीं होता और यही प्रीति निष्पन्न भय लेख्य मंजूषा परिवार को बांधे रहता है। एक जिज्ञासु शिष्य और ज्ञान प्रसार को समर्पित गुरु के संवाद मेंजीवनोदकभविष्य की आशा है।सौदागरबाजारू संस्कृति में सँवरते समाज का सच है।  सुंदर शिल्प वितान पर रोचक शैली में बुना अत्यंत सशक्त कथानक की यह लघुकथा सम्यक् सार्थक है। अर्वाचीन यथार्थ परक दुनिया में आदर्शों का वितान तानती इस लघुकथा में  प्रेमचंद मानो अपना आदर्श तलाशते नज़र रहे हैं।आडंबरएक ऐसे चरित्र को खोलता है जोआँख का अंधा नाम नयनसुखहै।

राजेंद्र वर्मा जी काफ़ैसलानेकनियति और सदाचरण के अँजोर  में संदेह की धुँध मिटा देता है।बचपन में ही सर से माँ की ममता की छाँह से वंचित लिली का वृद्धाश्रम की वृद्धा को बुढ़ापे काबेटादेना पाठकों को संवेदना के एक अलग लोक में ले जाता है। यहबेटासमाज को करुणा और सेवा भाव का सामाजिक पाठ पढ़ा जाता है और यही इस लघु कथा का प्राण है। स्त्री ही स्त्री का दुश्मन होती है। बड़ी चाहत से जन्मे बेटे से परित्यक्ता माँ का अनचाहे जन्मीबेटीद्वारा हाथ थाम लेना केवल समाज की रूढ़िवादी सोच पर गहरी चोट है, वरन् यह बदलते वक़्त में बेटियों की बढ़ती महिमा को भी प्रतिष्ठित करता है।प्रतीक्षाव्यावसायिक दुनिया की उपभोक्तावादी चकाचौंध में इंसानियत की चौंधियाती आँखों और जज़्बातों की दुखद दास्तान है।देवतासामाजिक दुर्नीतियों को ललकारता है।उलझनमें अनकही बात कही बात से अधिक असर छोड़ जाती है।दानबेटी को वस्तु समझने की कुत्सित सामाजिक सोच पर तीखा व्यंग्य है।दुआमें किन्नरों के विषय में व्याप्त सामाजिक भ्रांति का खंडन है।अपनी गलती के अहसास और उस पर पछतावे की अभिव्यक्तिउफ़में होती है।तथाकथित आधुनिक पत्नियों के प्रेम समर्पण भाव की विरूपतासाम्राज्यवादमें उभरता है।

विभा रानी श्रीवास्तव केमुबश्शिरामें विकलांग वेदना भाव में ज़ोमेटो के विश्वासघात की वेदना खो जाती है।दूर्वहबेटियों के महत्व  को उभारती और समाज को सचेत करती  एक  सशक्त लघुकथा है।प्रघटना’  पाठकों को सोचने के लिए एक साथ कई पक्षों को छोड़ जाती है।कोरोना के करील काल में स्वार्थ का फैलता वर्तुल, पुत्र के सहयोग से वंचित पिता की  बेबसी और इन सबको अपने पाश में जकड़ते डिजिटल अन्तर्जाल का व्यावहारिक सत्यप्रघटनामें एक साथ घटित होता है।सीता, राम और लक्ष्मण के प्रतीक अर्थों में देवर भाभी का संवाद अबला जीवन के कारुणिक त्रासदी के आख्यान कापुनर्योगहै।नेति-नेतिमें नित्य काम करनेवाली सहायिकाओं की नियति और अर्वाचीन समाज की अनैतिक सोच का अनावरण है।

डाo शैलेश गुप्तवीरकेछंगू भाईको लगा थप्पड़ इस जड़  समाज में चेतना का अरुण केतन थामे रिक्शेवाले के सामाजिक क्रांति का शंखनाद है। यथार्थ की चौखट पर आदर्श को साष्टांग लिटवाते इस कथानक में सही मायने में एकबोल्डलघुकथा है।जिसकी लाठी उसी की भैंसइस समाज में एक आदमी कीहैसियततय करती है। भ्रष्टाचार के दलदल मेंबेरोज़गारीआकंठ फँसी हुई है।खिलवाड़तथाकथित बुद्धिवीरों के बौद्धिक  दोगलापन और वैचारिक प्रपंच की पोल खोलता है।

संगीता गोविल केउफानमें बेटी की सोयी शक्ति को जगाने के क्रम में माँ की खोई शक्ति के जाग जाने का सच है। फैलती प्राद्योगिकी के सिकुड़ते संसार में चिट्ठियाँ खो गई हैं। उन्हीं चिट्ठियों मेंसच का दामनथामती संगीता जी विकलांग व्यक्ति के व्यक्तित्व के कारुणिक दिव्यांग का दर्शन कराती हैं। आधुनिक जीवन प्रणाली में बेटे- बेटियों के पढ़ लिखकर घर-दुआर छोड़ जाने की पीड़ा मेंलमहों की गतिथम-सी गई हैं।जालसाज़का शीर्षकअब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेतभी हो सकता है।विचाराधीनमें परंपरा और आधुनिकता का संघर्ष विचाराधीन है।

सुदर्शन शर्मासुधिकीचौखट पर पौरुष दंभ से दंशित नारी अपनी स्वतंत्र अस्मिता तलाश लेती है।जन्मदिनदुख और सुख के भावों में सामंजस्य स्थापित करता है। ऐसे यह लघुकथालेकिन बेटा ….. लोग…..?” पर ही थम सकती थी।हमसफ़रयुवक का उत्तरदायित्व बोध और उसकी कुशाग्र बुद्धि अकेली सफ़र करती नारी को भयाक्रान्त  करने वाले मनचलों को केवल छकाती है,बल्कि पाठकों को भी अचंभित कर देती है।लघुकथा का शिल्प सौंदर्य श्लाघ्य है।सपनों और हक़ीक़त के बीच के फासलों कोसपनों का घरसाधता है।देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीरकी उक्ति कोकर्ज़चरितार्थ करता है। संकलन की संभवत: इस सर्वश्रेष्ठ लघुकथा के हरेक हर्फ़ में लघुकथा के समस्त वांछित तत्व अपने सम्यक् स्वरूप को फिट करने की होड़ में लगे नज़र आते हैं। 

डाo सुरेश वशिष्ठ  केटन मालमें लघुकथा  के कथ्य से कथानक भी भागती लड़की की तरह पाठक की आँखों से ओझल हो जाता है। अंत में पाठक बेचाराटन मालको दबोचे अबूझ- सा खड़ा रह जाता है।कौन तेरा बाप?’ हैवानियत की मार्मिक गाथा है। इसका शीर्षक “‘दयालुदंगाईभी हो सकता था।वस्त्रआडंबर को पटकनी देती सरलता की कथा है।मंथनएक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें पुरुष की वासनात्मक मनोविकृति का मंथन हुआ है।जातमें जातिवादिता के पाश्विक उन्माद का चित्रण है।

भाऊ राव महंत कीमानसिक पीड़ामेंपूत कपूत हो सकता है’  की पुष्टि होती है।इसका शीर्षकदूध की पीड़ाभी हो सकता था।सबसे सुंदरवही है जिसकी आत्मा सुंदर हो और जिसका आंतरिक सौंदर्य उसके विचारों में परिलक्षित होता हो।अपना- परायाका भेदभाव मनसा- कर्मणा दोगलापन की निशानी है।दोगले नसीहतपाठक को समाज के सच की सार्थक नसीहत दे जाता है। पत्नी की चुप्पी वाक़ई धूर्त पति कीक़ाबिलियत पर शकको उसके छली अतीत की दुखद यादों को मुखर कर देती है।

संग्रह का संपादन  सुगठित है।कहीं कहीं व्याकरण और टंकण की अशुद्धि खटकती है। संग्रह की भूमिका में आज की साहित्यिक संस्कृति की संक्षिप्त किंतु अत्यंत सार्थक चर्चा है। यह संग्रह लघुकथा की विकास यात्रा में अपने समकालीन स्वरूप का केवल आईना साबित होगी, प्रत्युत मील का एक महत्वपूर्ण पत्थर भी गाड़ेगी और अपनी गुणवत्ता के दम पर छद्मयुग की इस भ्रांति को तार- तार कर देगी किजिसका जितना बड़ा गिरोह,……. वह उतनी बड़ी हस्ती!

अस्तु!

विश्वमोहन

८८७७९३८९९९