Monday, 20 October 2025

उनकी कहानियाँ मेरे नाटक




पुस्तक का नाम - उनकी कहानियाँ मेरे नाटक 

मूल्य - ६९९ रुपए 

लेखक - डॉ० नरेन्द्र नाथ पाण्डेय  

प्रकाशक – कौटिल्य  बुक्स, ई - २/५९,  सेक्टर - ११, रोहिणी, नयी दिल्ली -११००८५ ३०९, 
ईमेल - kautilya.in 

डा० नरेंद्र नाथ पांडेय की पुस्तक ‘उनकी कहानियाँ मेरे नाटक’ कथा-कला से नाट्य- कला की यात्रा का एक अभिराम रेखा चित्र है। विश्व के नौ कालजयी कथाकारों की चर्चित कहानियों का यह नाट्य रूपांतर है। भौतिकी के अध्येता नाटककार पांडेय जी का साहित्य विटप भी विज्ञान की उर्वरा भूमि में ही पनपा है। इसीलिए इनके द्वारा कथाओं के चयन की कला में भी इनकी वैज्ञानिकता का तत्व दृष्टिगोचर होता है। ये कथाएँ एक वैज्ञानिक काल-क्रम में व्यवस्थित हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इन्होंने समय के साथ  वैश्विक कथा साहित्य के विकास, प्रवाह एवं प्रकृति की दशा और दिशा को अपनी कल्पनाशीलता के चित्र में उकेरा है। इस तथ्य को आत्मसात करने की सरलता के लिए नीचे की तालिका का अवलोकन किया जा सकता है। इसमें कहानीकार,  उनकी जीवन-अवधि, देश-परिवेश, साहित्य-दर्शन और नाट्य-रूपांतरित कथाओं के आरोहण को समय की रेखा पर समझा जा सकता है। 



‘प्रभंजन’ के संवाद में भाषा और कहन की आत्मीयता की सघनता है। बातचीत की सीधी ‘भाखा’ में विदेशज शब्दों का मणि-काँचन संयोग है। ब्लादमिर और  मारिया की बातचीत न केवल प्रिय और प्रेयसी की अंतरंगता की सहज अभिव्यक्ति है, वरन यह  समकालीन व्यष्टि-समष्टि  संबंध और जीवन-दर्शन को भी सहेजते चल रही है। बीच-बीच की क्षणिक चुप्पी उच्च आवृति की दीर्घकालिक मुखरता से भी ज़्यादा प्रभावी और मारक है। यह नाटक ध्वनि की अभियांत्रिकी  से झाँकता स्वर-व्यंजना का विज्ञान है। कहन का ढ़ब और लय की पात्रानुकूलता इतने प्रगाढ़ हैं कि संवाद से ही पात्र को पाठक पकड़ लेता है।
किसी भी यात्रा का असली मज़ा तो  गंतव्य तक पहुँचने से पहले तक  होता है। गंतव्य बिंदु का स्पर्श करते ही आनंद का पटाक्षेप हो जाता है। कुछ ऐसी ही बात कल्पना के यथार्थ तक पहुँचने के बीच घटित होती है।  श्रव्य कल्पना के तंतु को जगाते हैं तो दृश्य यथार्थ को सामने रख देता है। श्रव्य का ध्वनि-संयोजन कल्पना की गहराई को शोधता है। पाठक-श्रोता के सारे ऐंद्रिक तंतु उसमें विलीन होकर आत्म-परमात्म के मिलन के परमानंद को छू लेते हैं। यही नाटककार की नाट्य-कला का उत्कर्ष और ऐश्वर्य है। पांडेय जी ने इस उत्कर्ष का स्पर्श कर लिया है। अद्भुत ध्वनयात्मक शब्द-चित्रों के साथ-साथ नाटक में मानवीय भाव, सामंती अहंकार,सामाजिक वैषम्य – सभी अपनी स्वाभाविक आवृति में पारा-पारी उभरते-उतराते हैं और पाठक-श्रोता को अपने में बुड़ा लेते हैं।  नाटकों में अवसान का जो शिल्प बुना गया है, वह इसके सुख और दुःख को अत्यंत संजीदा बना देता है। यही नाटककार के  शिल्प-विधान की शैली की जादूगरी है।
‘ओवरकोट’ नाटक की मूल कथा और उसके कथाकार गोगोल  के बारे में दोस्तोवोस्की की बड़ी रोचक विवेचना है कि समस्त आधुनिक साहित्य गोगोल के ‘ओवरकोट’ से निकलता है। उसी तरह नाटककार प्रोफ़ेसर पांडेय के इस नाटक की चित्रात्मकता पर यदि ग़ौर करें तो पाएँगे कि यह ओवरकोट दादाजी और बच्चों की बातचीत से निकलता है। ज़ाहिर है, बाल-सुलभ भोली-भाली शैली में कथानक  सरलता का शिल्प ओढ़े ऐसी प्रांजलता को प्राप्त होता है कि नाट्य-विधान और उसके प्रस्तुतीकरण में चार चाँद लग जाते हैं। भाषा में ग़ज़ब की धार है और शब्दों में टटकापन! ‘ऊपर से देखो तो खल्वाट नज़र आए, ……पूरा भुक्खड़ लगता है। एकदम कार्टून।‘ क्षिप्र संवादों का यह चुटिलापन इतना तीखा है कि कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि मूल कहानी के किसी क्लिष्ट भाव के सूत्र को नाटककार ने अपने पात्रों के वार्तालाप के ढंग में पिरोकर पाठक-श्रोताओं के लिए सहज, ग्राह्य एवं सुपाच्य बना दिया है। यदि यह कहें कि शिल्प, शैली और प्रभाव में यह नाटक अपनी मूल कृति से बीस ही बैठती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं! संवादों में नाटककार ने इस तथ्य में प्राण फूँक दिया है कि ‘ओवरकोट’ अकाके के लिए महज़ एक परिधान नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक चूनर है है जो उसके जीवन की समग्रता को अपने सात्विक आवरण में समाहित किए उसे चिन्मयानंद से आपुरित कर रहा है। अकाके का अंतिम आलाप ‘बाई में बउआने’  के समान है जो उसके अंतस की व्यथा को बाहर उड़ेल दे रहा है।  यहाँ नाटककार की कल्पानाशीलता अपने पूरे शबाब पर है।
टोलस्टोय के ‘तीन प्रश्न’ में राजा और रानी की बातचीत  नाटक की भूमि रचती है। रानी का राजा को साधु का भेद बताना कथानक को एक नैसर्गिक नाटकीयता प्रदान करता है। उसी तरह ‘धम्म’ की आवाज़ कहानी में कुतूहल घोलती है। राजा और साधु द्वारा घायल की सुश्रुषा नाटक को आवेग देता है। नाटककार का शब्द चित्र पाठक-श्रोता की आँखों में यहाँ सीधा उतर आता है। अंत में संन्यासी के मुँह से ‘वर्तमान’ की महत्ता को रेखांकित करते संदेश में नाटककार नरेंद्र पांडेय ने ऐसी गरिमा घोल दी है कि पाठक-श्रोता को ऐसा प्रतीत होता है, मानों वह राजा जनक के सपने की व्याख्या को महर्षि अष्टावक्र के मुख से सुन रहा हो।
‘वो तो सच जानता है’ के संवाद अत्यंत सहज बोली में हैं। इसमें नाटककार ने मूल कहानीकार टोल्सटोय के दर्शन की मंदाकिनी बहा दी है। अक्सिनोव की कराह  को सुपरइम्पोज करती कड़कती आवाज़ में ध्वनि का कमाल का संयोजन और  मिश्रण है।  
‘चाँदनी रात में’ नाटककार के अंदर का वैज्ञानिक उसके अंदर के साहित्यकार के पीछे खड़ा नज़र आता है। फ़्रान्स के समकालीन समाज की जो सड़ाँध मोपांसा की कहानी से निकलती है, उसकी विकरालता इस नाट्य रूपांतर में और वीभत्स रूप ले लेती है। ‘हीरो के हार’ का अंतिम दृश्य मातिल्दा के ज़िंदगी हार जाने का करुण चित्र है। ‘स्वार्थी राक्षस’ के दृश्य संयोजन में श्रव्य की बारीकी है और साथ ही बाल क्रीड़ा का जीवंत चित्र उभरता है। संगीत के घड़े में समय को घोल दिया गया है। ‘राक्षसी प्रवृति प्रकृति को भी प्रतिकूलता का न्योता देती है’- इस संदेश को इस नाटक ने इतनी तीव्रता से महसूस कराया है कि स्वयं मूल कथाकर ऑस्कर वाइल्ड का अपना साहिय दर्शन, कला को केवल कला के लिए होना चाहिए और इसका समाज अथवा मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़े यह आवश्यक नहीं है, इस नाटक के नीचे दबता दिखायी देता है। ‘प्रेम की बावत’ में एक साथ दो कथाएँ चलती हैं। एक ओर येन के साथ आलियोख़िन स्मृति-वीथिका  में विचर रहा है, दूसरी ओर उसी की ‘आँखों देखी’ वह अपनी मित्र-मंडली में उचार रहा है। इस दृश्य को नाटककार की कल्पनाशीलता ने बख़ूबी पकड़कर अपनी चित्रात्मकता में उकेर दिया है। ‘मेजाई का उपहार’ के अंत में नाटककार का सूत्रधार को खड़ा कर उससे उपहार के तत्व की मीमांसा करवाना बड़ा प्रभावोत्पादक है। यह विवेचना उससे नि:सृत करुण संगीत के सुर में जिम और डेला के अभिसार से पाठक-श्रोताओं को सिक्त कर देती है।  ‘मास्टरपीस’ बतरस की शैली का मास्टरपीस है। बतियाने के बीच के ‘ठहराव’ में वार्ताकारों की चुहलबाज़ी छलकती है। ‘नौकर’ में जेराशिम का उसके लिए नौकरी से हटाए गए वृद्ध दम्पति की कारुणिक बातचीत सुनने पर उसका हृदय परिवर्तन और फिर उसका नौकरी को नकार देना – इस प्रसंग की नाट्य-प्रस्तुति का जो सीधा प्रभाव पाठक-श्रोता पर पड़ता है, यह प्रोफ़ेसर पांडेय के विलक्षण रचनात्मक कौशल का चरम गौरव है। ‘अकथ्य संग्रह’ में रेकनर की अंतिम आवाज़ पाठक-श्रोता को अंदर से झकझोर देती है, जब उस संग्रहकर्ता फ़्रेंज की आत्मा से उसके अपने संग्रहों की स्मृतियों में जीवंत रहने का  मर्मस्पर्शी आर्त्तनाद गूँजता है।   
रेडियो नाटक एक सर्जनात्मक विधा है जिसमें किसी कथावस्तु को अत्यंत रोचक और प्रभावी ढंग से प्रस्तुति हेतु संगीत, स्वर और संवाद का एक ‘कोलाज’ होता है। कल्पना और रचनात्मकता इसमें पूरी तरह तथ्यों पर आधारित होते हैं। भले हीं, मंचन अदृश्य हो किंतु प्रस्तुति रोचक, प्रवाहमय, सहज और संवादात्मक होती है। शब्द, ध्वनि और कान, इन तीन कारकों के माध्यम से संदेश का संचार अत्यंत सजीव और तीव्र होता है। इस कृति में भी नाटककार नरेंद्र पांडेय ने अपनी रचनात्माकता और चित्रात्मकता का अद्भुत प्रभाव छोड़ा है। शब्द और ध्वनि की लहर पर बिम्ब साक्षात तैरते हुए पाठक-श्रोता के मानस पटल पर अपना संपूर्ण प्रभाव छोड़ जाते हैं। इनके  दृश्यों पर आकार की कोई बंदिश नहीं है और न ही वे किसी शास्त्रीयता के बंधन में बँधे हैं। इसीलिए सही में इन्हें अंधेरे का नाटक कहा जा सकता है जो बिना देखे संवेदना के स्तर पर पाठक-श्रोता  के समस्त इंद्रियों को नेत्रवान बना देता है।
पाठक-श्रोता  का सहज संबंध पात्रों के अंतर्मन से हो जाता है। पात्रों की पीड़ा, श्रोता की कराह और पात्रों का प्रमोद श्रोता का श्रिंगार बन जाता है। शब्द नाद धर्मा होते हैं। उनके आरोह-अवरोह में ही शब्द का आंतरिक नाटक समाया होता है। वाचिक अभिनय नाटक का शरीर होता है। वाणी के अभिनय में अंग-प्रत्यंग की थिरकन घुली होती है। यहाँ सब कुछ मिलता है। पांडेय जी ने अपने नाटकों के ‘स्वगत’ कथन में पात्रों के मानसिक अंतर्द्वंद्व को बख़ूबी उभारा है। नाटक में यत्र-तत्र बिखरा ‘ठहराव’ भी श्रोताओं के मन में एक नयी गति को स्फूरित कर देता है तथा उसका ‘मौन’ संवाद की प्रखरता को धार देता है। नाटककार की कल्पनाजीविता नाटक के चरित्र में भाव, विचार, संवेदना और अनुभूतियों के वैसे बीज छिटते दिखती हैं जो उसके नित्य प्रति के जीवन संघर्ष से प्रस्फुटित हुई हैं। चरित्र गतिशील हैं और संघर्षशील भी। उनकी ध्वनि और शब्दों की अठखेलियों में  वाणी की चारों अवस्थाएँ – परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी बिखरी हुई हैं। भाषा की सहजता, संप्रेषणीयता, भावानुरूपता, पात्रानकुलता, चित्रात्मकता और गतिशीलता  पाठक के अंतर्मन में पात्र की जीवंत छवि को खड़ा कर देती है। नाटककार नरेंद्र नाथ पांडेय की  संवाद शैली उनके नाटकों का प्राण है। अपने संवादों के माध्यम से उन्होंने कथानक के विकास के साथ पात्रों के चरित्र को भी बख़ूबी उभारा है। संवादों के प्रवाह, गति और भाव-प्रवणता श्रोताओं  को गुदगुदाते हैं, रुलाते हैं और कहीं -कहीं तो क्षोभ के आवेग उत्पन्न कर देते हैं। समस्त नाटक में आद्योपांत करुणा का अजस्त्र प्रवाह है। संवादों में एक कसाव है, तारतम्यता है और पात्र एवं परिवेश की स्पष्टता है। नाटक में नाटककार पांडेय जी द्वारा इंगित संगीत संयोजन अत्यंत मोहक है। संवादों की पृष्ठभूमि में गूँजते  संगीत में मनोदशा के अनुरूप रागों के स्वर हैं, वाद्य्यंत्र की थिरकन है और दृश्यांतर का प्रभाव है। 
शीर्षक में रोचकता का तत्व है और एक चुंबकीय आकर्षण है जो न केवल पाठक के कौतुहल को बढ़ाता है, प्रत्युत उसके श्रोता मन पर एक अमिट  छाप छोड़ जाता है। 
और अंत में हम इस बात को अवश्य रेखांकित करेंगे कि ये नाटक मूलत: विश्व प्रसिद्ध  कहानीकारों की अद्भुत कथाओं का नाट्य रूपांतर हैं। इसलिए नाटककार  नरेंद्र नाथ पांडेय को यहाँ दायित्व बोध की अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ा है। और, इस अग्नि-परीक्षा में उनके अंदर के नाटककार की कंचन-कला कुंदन बनकर निकली और निखरी है। कथा की आत्मा को बचाए रखकर उसके शरीर की काट-छाँट कर अपने नाटक के उद्भव, विकास और  परिणति की पूरी यात्रा में कहीं कोई भटकाव नहीं है। बल्कि, नाटक का कलेवर अपने आप में इतना संपूर्ण है कि वह स्वयंभू मौलिक सा मालूम होता है। 
नाटककार नरेंद्र नाथ पांडेय को इस कृति की बधाई!






और अब लेखक परिचय 

नेतरहाट विद्यालय और पटना साइंस कॉलेज से शिक्षा प्राप्त पूर्णिया जिले के 'सरसी' ग्राम में अवतरित हुए प्रोफेसर नरेंद्र नाथ पांडेय अनेक मामलों में एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं। पटना विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर रहे अद्भुद वैज्ञानिक सूझ-बूझ के धनी डॉ पांडेय ने 'रंगमंच एवं फिल्मों का एक-दूसरे पर प्रभाव एवं इनकी सामाजिक जिम्मेवारी' जैसे गूढ़ साहित्यिक और समाजशास्त्रीय विषय पर अनूठा शोध प्रबंध रच डाला, जिसके लिए पटना विश्वविद्यालय ने इन्हें डी लिट् की उपाधि से विभूषित किया। रेडियो, टेलीविजन, रंगमंच एवं फिल्मों में अभिनय और निर्देशन के वृहत अनुभवों को समेटे डॉ पांडेय ने सम्पूर्ण भारत में एक साथ अनेक भाषाओं में प्रसारित, सबसे लंबी रेडियो श्रृंखला 'मानव का विकास' की सर्वाधिक किस्तों का सफल लेखन किया। 'रविन्द्र नाथ ठाकुर की कहानियाँ और मेरे रेडियो नाटक'  और 'देहरी से द्वार तक' इनकी बहुचर्चित प्रकाशित पुस्तक रही हैं। इनकी प्रकाश्य पुस्तक  'अन्तर्राष्ट्रीय  लेखकों की कहानियाँ और मेरे रेडियो नाटक' है ।
'राज्य शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान , बिहार' के निदेशक रह चुके डॉ पांडेय अखिल भारतीय स्तर पर अनेक नाट्य प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता एवं निर्देशक के पुरस्कार सहित 'शिखर सम्मान' के आभूषण का गौरव बटोर चुके हैं। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के संचालन से लेकर डॉक्यु ड्रामा, रेडियो पर बच्चों के लिए विज्ञान कथाओं के निर्माण और प्रसारण, शिक्षाप्रद वार्ताएँ और  रेडियो रूपक की रचना तक का इनका सफर बड़ा ही रोचक और प्रेरक रहा है।
और अंत में, यह भी बताते चले कि इनकी धर्मपत्नी प्रो०डॉ० सुषमा मिश्रा, विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, ने पटना साइंस कॉलेज में हमें पढ़ाया भी है। इस नाते अत्यंत मृदुभाषी और आत्मीय प्रो० पांडेय हमारे 'गुरूपति' भी हुए। इस गुरुयुगल को सादर चरण स्पर्श।











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