मनुष्य मनुष्य की आदत है कि बिना पढ़े वह बहुत कुछ लिख जाता है, और बिना लिखे
बहुत कुछ पढ़ भी जाता है. वस्तुतः जीवन को देखना जीवन को पढ़ना है और
जीवन को जीना जीवन को लिखना है. जीवन को देखते हुए जीना और जीते हुए
देखना ही सार्थक जीना है. मन का काम है- पढ़ना, दिल का काम है- लिखना.
जब मन और दिल सायुज्य में शनैः शनैः साथ-साथ सरकते हैं, तो चैतन्य के
चिन्मय संगीत में कृष्ण का “ योगस्थः कुरु कर्मणि “ अपने सत्य स्वरुप में
साकार होता है.
मन और दिल का संतुलन मनुष्य के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य की कुंजी है. तभी जीवन को सार्थक गति मिलती है. प्रवहमान धारा से ही कलकल-छलछल का नाद निकलता है. यदि स्थिर जल से ऐसा स्वर निकले तो फिर यही समझा जाये कि उसकी गहरी छाती से असंतोष के बुलबुले निकल रहे हैं. मंद मंद डोलती पत्तियाँ
और बहता पवन – दोनों एक दूसरे से पृथक नहीं होते. वायु के वेग में पत्तियों की थिरकन है, और पत्तियों के सुरीले सर्र सर्र स्वर में पवन के प्रचंड आवेग का अनुमान. बिना पवन के यदि पत्तियां डोले तो फिर पेड़ को कोई झकझोर रहा है. मन पवन है, दिल पत्ता है और पेड़ जीवन.
तुलसीदास ने प्राकृतिक उपादानों के संतुलन से सृजित जीवन की ओर संकेत किया-
“क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंच तत्व रचित अधम शरीरा”
प्रकृति के पंच तत्वों का संतुलित सम्मिश्रण एक भौतिक अस्तित्व का कारण है. मन और दिल तज्जन्य चेतना के अंतर्भुत कारक हैं. ये कारक भीतरी स्तर पर सक्रिय होते हैं. ये ऐसे भीतरी तत्व हैं, जो बाहरी स्वरूप को आवरण देते हैं. इनका रंग इनके बाहरी आवरण को रंग देता है. कबीर ठीक बोले-
“ मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा”
कपड़े पर मन का रंग जरूर चढ जाता है. फगुआ में यदि वासंती बयार सनसनाती है तो मन की मस्तानी में ही. मन अगर रुग्ण हो और दिल थका हो तो फगुआ का गीत अपनी लय नहीं पकड़्ता.
शारीरिक चेतना की अभिव्यक्ति का स्रोत मन और दिल है, तो मन और दिल की चेतना का उत्स – आत्मा. आत्मा को समझना बड़ा गुढ़ है.
आत्मा को समझ लेना खुद को जान लेना है. बड़े-बड़े ज्ञानियों ने आत्मा को जानने के लिए बड़े-बड़े यत्न किये हैं.कौन कहां तक पहुंचा, वहीं जान सका.जो जितनी दूर पहुंचा, उसे उतनी ही और दूर जाने की आवश्यकता मह्सूस हुई. जितनी लंबी यात्रा, उतनी ही अपूर्ण. ठीक उसके उलट, जो जितना कम चला, उसे पूर्णता का उतना प्रबल आभास हुआ.बड़ी विडंबना है- इस अनुभूत जीवन में.जिसने जितना जाना उसे उतनी अज्ञानता का आभास हुआ और जिसने कम जाना, ज्ञानी होने की भ्रांति उसे ही हुई.
केनोपनिषद के वाक्य अप्रासंगिक कथमपि नहीं हैं:
“यस्यामतं मतं तस्य मतं यस्य न वेद सः”
इस भँवर से निकलकर आत्मा को जान लेना ही वस्तुतः परमात्मा का साक्षात्कार है. इस रहस्यमय ज्ञान को पाने के उपरांत ज्ञानी परमात्मामय हो जाता है. और; फिर स्वयं निर्णय लेने की पात्रता प्राप्त कर लेता है. सारथी कृष्ण अंत में अर्जून को यहीं बोलता है:
“इति ज्ञानं आख्यानं गुह्यात गुह्यतमं मया
विमृश्यैतद्शेषेण यथेच्छसि तथा कुरु.”
--------विश्वमोहन