शिशु की हरकत और उसके हाव भाव देख माँ ने उसके अन्दर के हलचल को
अनायास ताड़ लिया कि भूख लगी है और उसे दूध पिलाने लगी. दूध पिलाने से पहले माँ
द्वारा किये जाने वाले उपक्रम और चेष्टाओं की गतिविधियों से शिशु ने भी ताड़ लिया
कि उसके स्तन पान की तैयारी चल रही है और शिशु शांत हो गया.एक दूसरे को समझने में
जच्चा और बच्चा पारंगत है. उनका पारस्परिक तादात्म्य मनोवैज्ञानिक और आत्मिक स्तर पर
है, जिसकी अभिव्यक्ति 'हम' 'आप' इस
पयपान की प्रक्रिया में देख पाते हैं. एक दूसरे को समझने के इस टेलीपैथिक समीकरण
को हम ' ताड़ना ' शब्द से अभिहित करते हैं.
ताड़ने की यह प्रक्रिया मनोविज्ञान के सूक्ष्मातिसूक्ष्म धरा पर सम्पन्न होती है. यहाँ कर्ता और कर्म एक दूसरे से ऐसे घुल मिल जाते हैं कि उनमे स्वरूपगत कोई मानसिक भेद नहीं रह पाता. दोनों चेतना के स्तर पर एकाकार हो जाते हैं. कर्ता और कर्म का भेद मिट जाता है. कर्ता कर्म और कर्म कर्ता बन जाता है. दोनों की चेतना का समाहार हो जाता है. दोनों का एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव तरल होकर साम्य की ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है कि किसके भाव का प्रवाह किसकी ओर हो रहा है, इस भाव का अभाव हो जाता है और दोनों की चेतनाओं का समागम एक स्वाभाविक निर्भाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है. यहाँ एक का संकेत दूसरे में चेष्टा का स्फुरण और दूसरे का संकेत पहले में चेष्टा का स्फुरण कर देता है. दोनों एक स्वचालित समभाव की स्थिति में आ जाते हैं और भावों की यह एकरूपता इतनी गाढ़ी होती है कि भौतिक संवाद के सम्प्रेषण की कोई गुंजाइश शेष नहीं रह जाती. कर्म के समस्त अवयव कर्ता में और कर्ता के समस्त तंतु कर्म में समा जाते हैं. भावों की प्रगाढ़ता का यौगिक घोल सहज साम्य की ऐसी विलक्षणता का रसायन पा लेता है कि भाषा गौण नहीं, प्रत्युत मौन हो जाती है.अंगों की झटक, नैनों की मटक, हाव-भाव, स्वर की तीव्रता या मंदता, गात का प्रकंपन , होठों की थिरकन, चेहरे का विन्यास और भावों के सम्प्रेषण के समस्त तार - ये अभिव्यक्ति के तमाम लटके झटके हैं जो मनश्चेतना के महीनतम स्तर पर संचरित होकर अंतर मन से आत्यंतिक संवाद स्थापित कर लेते हैं और एक लय, एक सुर और एक ताल बिठा लेते हैं.
ताड़ने की यह प्रक्रिया मनोविज्ञान के सूक्ष्मातिसूक्ष्म धरा पर सम्पन्न होती है. यहाँ कर्ता और कर्म एक दूसरे से ऐसे घुल मिल जाते हैं कि उनमे स्वरूपगत कोई मानसिक भेद नहीं रह पाता. दोनों चेतना के स्तर पर एकाकार हो जाते हैं. कर्ता और कर्म का भेद मिट जाता है. कर्ता कर्म और कर्म कर्ता बन जाता है. दोनों की चेतना का समाहार हो जाता है. दोनों का एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव तरल होकर साम्य की ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है कि किसके भाव का प्रवाह किसकी ओर हो रहा है, इस भाव का अभाव हो जाता है और दोनों की चेतनाओं का समागम एक स्वाभाविक निर्भाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है. यहाँ एक का संकेत दूसरे में चेष्टा का स्फुरण और दूसरे का संकेत पहले में चेष्टा का स्फुरण कर देता है. दोनों एक स्वचालित समभाव की स्थिति में आ जाते हैं और भावों की यह एकरूपता इतनी गाढ़ी होती है कि भौतिक संवाद के सम्प्रेषण की कोई गुंजाइश शेष नहीं रह जाती. कर्म के समस्त अवयव कर्ता में और कर्ता के समस्त तंतु कर्म में समा जाते हैं. भावों की प्रगाढ़ता का यौगिक घोल सहज साम्य की ऐसी विलक्षणता का रसायन पा लेता है कि भाषा गौण नहीं, प्रत्युत मौन हो जाती है.अंगों की झटक, नैनों की मटक, हाव-भाव, स्वर की तीव्रता या मंदता, गात का प्रकंपन , होठों की थिरकन, चेहरे का विन्यास और भावों के सम्प्रेषण के समस्त तार - ये अभिव्यक्ति के तमाम लटके झटके हैं जो मनश्चेतना के महीनतम स्तर पर संचरित होकर अंतर मन से आत्यंतिक संवाद स्थापित कर लेते हैं और एक लय, एक सुर और एक ताल बिठा लेते हैं.
पदार्थ विज्ञान का यह सत्य है कि प्रत्येक
पदार्थ की अपनी एक चारित्रिक मूल आवृति होती है, जो उसकी परमाण्विक संरचना का फलन
होती है. साथ ही, प्रत्येक पदार्थ अपनी प्रकृति में पदार्थ और उर्जा का द्वैत
स्वभाव धारण करता है. अर्थात, वह स्वरुप पदार्थ के द्रव्यमान और उर्जा की आवृति रूप में
द्वैत आचरण करता है. ऊर्जा उसकी सूक्ष्म आवृति है, तो पदार्थ स्थूल आकृति. जब दो अलग पदार्थों की अपनी संरचनात्मक
स्वाभाविक आवृति समान या समानता के आस पास होती है और दोनों प्रकम्पन की समान कला
में होते हैं तो दोनों के मध्य रचनात्मक व्यतिकरण
(constructive interference ) होता है और दोनों के आयाम जुड़ जाते हैं.
प्रकम्पन का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है. सुर, ताल, लय सभी मिल जाते हैं. इसे
अनुनाद की स्थिति कहते हैं. यहाँ दोनों पदार्थ आपस में पूर्ण तादात्म्य या यूँ कह
लें, कि "कम्पलीट हारमनी" में होते हैं .
मेरा मानना है कि यहीं ऊर्जा मनोविज्ञान में
अपनी सूक्ष्मता और स्वरुपगत वैविध्य के अलोक में चेतन , अवचेतन या निश्चेतन मन का
उत्स होती है. ' कम्पलीट हारमनी ' की स्थिति में चेतना , अवचेतना और निश्चेतना की तीनों कलाओं में दोनों पदार्थ अभेद की स्थिति
में आ जाते हैं. दोनों सर्वांग भाव से एक दूसरे के प्रति ' चेत ' गए होते हैं.
अर्थात, यहीं वह बिंदु है जहां एक पदार्थ
की चेतना दूसरे की चेतना के प्रति ' चेतना ' आरम्भ कर देती है और फिर दोनों एक
दूसरे की " 'ताड़ना' के अधिकारी"
बन जाते हैं.वादक वाद्य की और वाद्य वादक की, सुर गाने की और गाना सुर की, गायक
वादक की और वादक गायक की, वैज्ञानिक उपकरण की और उपकरण वैज्ञानिक की, रचनाकार रचना
की और रचना रचनाकार की, कवि श्रोता की और
श्रोता कवि की,चरवैया गाय की और गाय चरवैया की, माँ शिशु की और शिशु माँ की, पत्नी पति की और पति पत्नी की, गुरु
शिष्य की और शिष्य गुरु की, स्वामी भक्त की और भक्त स्वामी की ........... आत्मा परमात्मा की और परमात्मा आत्मा की; इस
जीव-ब्रह्म द्वैत के दोनों तत्व एक दूसरे
की 'ताड़ना के अधिकारी ' बनकर एक दूसरे को ताड़ने लगते है और उनके आपसी विलयन की
प्रक्रिया पूर्ण होने लगती है, जिसका
गंतव्य है 'अनुनाद' की स्थिति को प्राप्त करना, दोनों के स्वरूपगत भेद का मिट जाना.
परमात्म विभोर हो जाना !
ठीक वैसे जैसे ढोलकिया ढोलक के रस्से
को तबतक तान तानकर अपनी थाप से तारतम्य
मिलाता है जबतक उसे अपने संगीत का अनुनाद न सुनाई दे. ढोलक के ताड़ते ही ढोलकिया
भंगिमा की चेतना में उससे एकाकार हो जाता
है.चेतना के सूक्ष्म स्तर पर जुड़ते ही संवेदना के महीन महीन धागे मोटे मोटे दिखने
लगते हैं और आस्तित्व का द्वैत संवेदना के अद्वैत में परिणत हो जाता है. समर्पण,
सरलता और निःस्वार्थ अभिव्यक्ति का मौन एक दूसरे में ऐसे समा जाता है कि सजीव निर्जीव
हो जाता है और निर्जीव सजीव, विद्वान् गंवार बन जाता है और गंवार विद्वान, सेवक
स्वामी बन जाता है और स्वामी सेवक, राम हनुमान बन जाते हैं और हनुमान राम, शिव
शक्ति बन जाते हैं और शक्ति शिव ! निश्छल,
निर्विकार और योगस्थ आत्म समर्पण की पराकाष्ठा ही ताड़ने की इस प्रक्रिया को
प्रभावी बनाती है और उच्च परिमार्जित आत्मसंस्कार से ही इन्हे ताड़ा जा सकता है.
हाँ, जहां कलुषित आत्म संस्कार हों और भावों का मनोविज्ञान विकृत हो तो तत्वों की पारस्परिक कलाएं प्रतिद्वान्दत्मकता से पीड़ित हो उठती हैं . फिर व्यतिकरण भी विध्वंसात्मक (destructive interference) ! और, जीवन के चित्रपट का स्पेक्ट्रम काले धब्बों से भर जाता है. ताड़ना प्रताड़ना बन जाती है!
हाँ, जहां कलुषित आत्म संस्कार हों और भावों का मनोविज्ञान विकृत हो तो तत्वों की पारस्परिक कलाएं प्रतिद्वान्दत्मकता से पीड़ित हो उठती हैं . फिर व्यतिकरण भी विध्वंसात्मक (destructive interference) ! और, जीवन के चित्रपट का स्पेक्ट्रम काले धब्बों से भर जाता है. ताड़ना प्रताड़ना बन जाती है!
आइये, अब हम तुलसी के इन दोहों के मर्म तलाशने की वर्जिश करें!
" ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी !!!"
bhikam jangid11a's profile photo
ReplyDeletebhikam jangid11a
+1
बहुत सुंदर विश्वमोहन जी
Translate
Aug 26, 2017
Vishwa Mohan's profile photo
Vishwa Mohan
+1
+bhikam jangid11a जी , धन्यवाद!!!
Aug 26, 2017
Indira Gupta's profile photo
Indira Gupta
Moderator
+2
👌👌👌👌👌👌👌विश्व मोहन जी
सुंदर अति सुंदर विवेचन .....🙏
आत्म समर्पण और चेतना का सूक्ष्म स्तर ...
दोनो मौन के परिभाषित अंश है जहाँ समर्पण आ गया यानी अद्वैतवाद वहाँ बाकी सब स्तर गौण हो जाते है ....समर्पण होते ही स्वामी सेवक ,भक्त और प्रभु का भाव शून्य प्राय सा हो जाता है !...फ़िर परिमार्जिन किसका , क्यों और क्या करना ...
विलय की स्तिथि मै और परिमार्जन की गुंजाइश कहाँ रह जाती है ....जो घुल गया उसकी विलगता कहाँ सम्भव है !..
भौतिक चिंतन मनन से परे की बात सा सूक्ष्म सम्वेदना से ओत प्रोत महज ऐक्त्व भाव ही व्याप्त हो जाता है चर अचर मै ..
नमन 🙏
Translate
Aug 27, 2017
Vishwa Mohan's profile photo
Vishwa Mohan
+2
परिमार्जित चित ही आत्मसमर्पण की आकुलता का आधार होता है. आपने इतने मनोयोग से अपनी विचारणा का भोग मेरी रचना को लगाया , इसके लिए आभार एवं शुक्रिया!
Aug 27, 2017
अमित जैन 'मौलिक''s profile photo
अमित जैन 'मौलिक'
Owner
+1
+bhikam jangid11a जी आदरणीय, आपका बहुत बहुत स्वागत है।आपकी सोहबत प्राप्त हुई। उड़ती बात के लिये हर्ष का विषय है। नमन
Translate
Aug 27, 2017
अमित जैन 'मौलिक''s profile photo
अमित जैन 'मौलिक'
Owner
+1
बहुत अद्भुत दृष्टि विश्व मोहन जी। आज यह सूक्ष्म अंतर समझ आया की ताड़ना और प्रताड़ना में एक भारी अंतर होता है। एक ही विचारधारा के एक दूसरे को परिपूर्ण करते घटक जब सामीप्य प्राप्त करने की प्रारंभिक मनोवृत्ति से दृष्टिपात करते हैं या मौन संवाद करते हैं तो ताड़ना हुई।
ढोर गंवार शूद्र पशु नारी
सकल ताड़ना के अधिकारी।
विचार करें तो कितना सार्थक लिखा था तुलसीदास जी ने। और कितनी सटीक व्याख्या की आपने।
एक महाकवि तुलसीदास जी ने निश्चिन्त ही एक और कवि को आज ढेरों आशीर्वाद दिए होंगें।
Translate
Aug 27, 2017
Vishwa Mohan's profile photo
Vishwa Mohan
+1
+अमित जैन 'मौलिक' अमितजी, आपकी इस मौलिक विवेचना का आभार एवं शुक्रिया!!!
बहुत सुंदर आलेख ! ताड़ना के अधिकारी ' लेख गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखी गयी एक चौपाई को नव दृष्टि से आंकने का सार्थक प्रयास है | गोस्वामी जी की, " ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी !" चौपाई प्रायः बुद्धिजीवियों और नारी समाज के निशाने पर रही है | यहाँ ढोल , गंवार और शुद्र के समकक्ष नारी को प्रताड़ना के अधिकारी बताये जाने पर यदा - कदा विद्वानों की टेढ़ी नजर इस चौपाई पर तनी रहती है | आखिर इतने सुसंस्कारी गोस्वामी जी ने कुछ कथित असहाय वर्गों के प्रति ये संकीर्णता की भावना क्यों रखी ? ना जाने कब से इस यक्ष प्रश्न का उत्तर नदारद है , पर आप ने अपने चिंतन - मंथन और बौद्धिक चातुर्य से इस प्रसंग को आंकने का प्रयास कर एक मौलिक चिंतन से साहित्य प्रेमियों को रूबरू कराया है | साथ में ताड़ना 'शब्द की व्यापकता को एक नए अर्थ में प्रस्तुत कर ताड़ना और प्रताड़ना के अंतर को समझाकर गोस्वामी जी को सदियों के कोप से मुक्त करवाया है | सुधि पाठकों के लिए ऐसे ललित निबन्ध पढ़ना उनका सौभाग्य है | निश्चित रूप से ये निबन्ध साहित्य की अनमोल थाती है ,जिस पर पाठकों की पहुँच अत्यंत आवश्यक है | इस महत्वपूर्ण सांस्कृतिक निबन्ध के लिए साधुवाद और शुभकामनाएं आदरणीय विश्वमोहन जी| सादर 🙏🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteजी, बहुत आभार आपके आशीष का।
Delete