Saturday, 31 March 2018

पूरणमासी वित्तवर्ष की!


दूर क्षितिज के छोर पर

बंधी है सँझा रानी
रंभाती बांझीन गाय की तरह
आसमान के खूंटे से
वित् वर्ष की अंतिम पूरनमासी है जो!

पीये जा रहा है समंदर
बेतरतीब बादलों को , बेहिसाब!
लहराते लघुचाप में झमकती झंझावातें
गपक गप्प गपकती भंवरे
भूल चुक लेनी देनी है जो!

ताकता टुकुर टुकुर, टंगा चाँद
टोकरी में ढके सूरज को,
होगा 'अभिमन्यु-वध', फिर
डूबकी मारेगा रत्नाकर में,
करना है दिगंबर अम्बर को  जो!

जोहते बाट, पथिक, पथराई आँखों से,
बांध बनने, पुल झुलने और डायवर्सन खुलने का
उंघती सोती सड़के तैयार, सरकने को नवजात अस्पताल तक,
होगी रेलम पेल फिर फाइल, सरपट भागती सवारियों से,
'विकास' के प्रसव  की तिथि का उप 'संहार' है जो!

थामे पल्लू, पुलकित पलकों पे , घूँघट पट में,
ललचाये लोचन लावण्यमयी  ललनाओं के.
'खुले में शौचमुक्त' होने का, गाँव के.
मिलेंगे तैयार, जाने तक, शौचालय संचिकाओं में.
होने हैं 'अपशिष्ट' निःशेष ,सँझा के खुलने तक जो!

हैं श्रमरत!  दफ्तर में, सूरमे संचिकाओं के,
निपटाने में, व्यूह-दर-व्यूह रचनाओं को .
युद्ध-निपुण 'कर्ण'धारों के पराक्रम का कुटिल प्रहार.
लो, खेत रहा सौभद्र! और धंसा धरती में अर्थचक्र.
समर का, इस साल के, अवसान होना है जो!

मिला संकेत 'गुडाकेश' का! झांके, फिर डूबे! 'अंशुमाली'.
खुलकर फैली संझा, लगी चाँद-तारों की रखवाली
पसारे पाँव पूनम ने, मचाने लगा उधम, मनचला पवन! 
पी रहे हैं, सब, छककर 'चांदनी' और काट रहे चांदी
दुधिया पूरनमासी है बीते वित्त वर्ष की जो!  








Monday, 26 March 2018

vishwamohanuwaachDDBiharBihan



महादेवी वर्मा के जन्मदिवस पर दूरदर्शन बिहार से मेरी भेंट वार्ता का एक अंश.

Wednesday, 14 March 2018

विश्व विटप, प्राणी पाखी


अ परिचित उर्मी सी आ तू ,
जलधि वक्ष पर चढ़ आई.
ह्रदय गर्त में धंस धंसकर
तू धड़कन मेरी पढ़ आयी.
संग प्रीत-रंग, सारंग-तरंग
तू धरा कूल की ओर बही,
विरह विगलन  की व्यथा कथा
कहूँ कासे, अबतक नहीं कही.

पूनम को जब शुक्ल पक्ष का
चाँद गगन में बुलाता है.
विरह अगन में दग्ध विश्व का
सागर सा मन अकुलाता है.
नागिन सी फिर कृष्ण की रातें
धीरे धरा पर आती हैं.
आकुल व्याकुल शापित विश्व के
अंग अंग डस जाती है.

गड़े गाछ ठूंठे ठिठके से
घास पात सब सूखे से.
पतझड़ का हो पत्रपात तो
पञ्च प्राण सब रूखे से.
पुनि वसंत पंचम में कोयल,
रस यौवन भर जाता है
विकल-विश्व बीत विरह-व्यास
मिलन मधुर फिर आता है.

उत्स उषा है दुपहरी की
प्रत्युष गोधुल में खोती.
अंतरिक्ष के आँचल को
चंदा की किरणें धोती.
खिले धरा से, मिले धरा में
क्षितिज छोर खड़ा साखी है.
अमर कथा आने जाने की,
विश्व विटप, प्राणी पाखी है.

Monday, 12 March 2018

भनसा घर


भनसा घरकोना,

पीअरी माटी से लीपा 

सेनुर से टीकी दीवार,

सजता संवरता

हर तीज त्यौहार.

सुहाग सुहागन

करते पूरी

रसम कोहबर का।


आज ऊँघता मिला!


छिटककर दूर पड़ा,

मुर्छाए दोने के पास

अच्छत वाले चाऊर के,  

हल्दी का टुकड़ा

फुआजी के अँचरा  से,

चाची  के  खोईंछा का।

सहेजता सोंधी यादों को 

कालजयी और धूल-धूसरीत! 


सूंघता मिला!


धुल की मोटी जाजीम पर लेटा,

करीने से बुने मकड़जाल.

चंदवे और चादर

आच्छादित चहुमुख.

सरीआ रहे थे अनाज

पुराने ढकने मे,

गण गणपति के.

और हो रहा था मटकोर


सामने अगिन कोन.


सूख चुका था

जल कलसा का.

छोड़कर 

धब्बे, धूसरित

अतीत के,

मानो हो आँखें

बेपानी

आज की!


निःस्वाद!


ढब ढब,

दरिया से,

यादों के

लोर.

नयनो के कोर में,

बाबा की

अब भी छलकता

ज़िंदा था.


भविष्य का भोर





शब्दार्थ: भंसा घर- गाँव के घर का वह हिस्सा जहाँ रसोई बनती है और घर के कुल देवी/देवता का स्थान होता है.
पिअरी माटी- पीली मिटटी जिससे घर का फर्श लीपा जाता है.
सेनुर- सिंदूर, चाऊर - चावल, अच्छत - अक्षत, खोईंछा -विदायी के समय बेटी के आँचल में दिया जानेवाला सगुन।
कोहबर- विवाह के बाद वह स्थान (कुल देवी/देवता के पास) जहाँ नवविवाहित जोड़ा अपना पहला साथ बिताने की रस्म पूरी करता है.
जाजिम - बिछौना, ढकना - कलश का ढक्कन, कलसा - कलश . गण गणपति के - गणेश के वाहन चूहे ,
सरिआना - सजाना , जमा करना.
मटकोर- विवाह की पूर्व संध्या पर सत्यनारायण भगवान की पूजा करने और महिलाओं द्वारा माटी खोदने की परंपरा. यहाँ पर चूहों द्वारा घर के कोने में मिट्टी खोदने का अर्थ लिया गया है.
अगिन कोन- दक्षिण पूर्व कोना
लोर- आंसू,