Saturday, 29 September 2018

आने दो, माँ को, मेरी!


मैं अयप्पन!
मणिकांता, शास्ता!
शिव का सुत हूँ मैं!
और मोहिनी है मेरी माँ!

चलो हटो!
आने दो
माँ को मेरी.
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
छाया में
ममता से भींगी
मातृ-योनि की अपनी!

अब जबकि
 सुलझा दिया है सब कुछ
माँ ने ही मेरी
बांधे पट्टी
आँखों में और
लिये तुला हाथों में.
लटके रहे जिसके
हर पल!
पकड़कर कस के
तुम एक पलड़े पर!

क्या कहा!
है वय
उसकी
दस से पचास!
माहवारी मालिन्य,
नारीत्व का नाश!

तीन लहरों से धुलती
तीर पर सागर के
निरंतर
'कन्याकुमारी'.
माँ नहीं तुम्हारी!
पूजते हो,
या ढोंगते हो केवल!

कैसा 'धरम' है रे तुम्हारा!
कहता है
अपवित्र
'धरम' को!
मेरी माँ के!

जो है
जैविक, स्वाभाविक और
'मासिक'!
जिसका
'होने के श्री-गणेश'
और
'न होने के पूर्ण विराम'
के मध्य
किसी विराम-बिंदु पर
'न होना'
बीज-वपन है
कुक्षी में.
तुम्हारे
'होने'
का!

कवलित कुसुम हो न,
तुम
'अधरम-काल' के!

दो मुक्ति
अपनी मरियल मान्यताओं से!
बेचारी 'माँ' को.
कर्कश कुविचार कश
में कसी.
या, फिर पोंछ दो
मुंडेरों से मेरी
'तत्त्वमसि'!

है यह गेह मेरा,
पेट भरे थे
माँ शबरी ने
तुम 'पुरुष'-उत्तम के!
जूठे बेर से!
यहाँ!

अब कबतक सहेगा
'बैर' तुम्हारा
मेरी माँ से
यह
'हरिहर-पुत्र'
शबरीमाला का!

छोडो छल!
करने पवित्र
देवत्व मेरा.
आने दो,
माँ को,
मेरी!

Wednesday, 5 September 2018

'साहित्यिक-डाकजनी'

किसी का जोरन,
किसी का दूध.
मटकी मेरी, 
दही विशुध.

छंद किसी का, 
बंध है मेरा.
'प्लेगरिज्म'
'पायरेसी' का  फेरा.

चौर-चातुर्य, 
रचना उद्योग.
पूरक, कुम्भक, 
रेचक योग.


थोड़ी उसकी पट, 
थोड़ी इसकी  चित.
क्यों लिखे, 
भला, मौलिक गीत!

गर गए पकड़े,
मची हाहाकार,
विरोध में वापस,
पुरस्कार!

कथ्य आयात, 
पात्र निर्यात
'साहित्यिक-डाकजनी' 
सौगात!!!

जोरन -- जामन या खट्टा जिसे मिलाने पर दूध दही में जम जाता है।